सामाजिक संगठनों और एन.जी.ओ. द्वारा दायर की गयी पीआईएल पर सनुवाई करते हुये सर्वोच्च न्यायालय ने 27 सितम्बर, 2013 भारतीय मतदताओं को नोटा (इनमें से कोई नहीं) का अधिकार दिया। कोर्ट ने कहा कि नकरात्मक वोट भी अभिव्यक्ति की आजादी का अनुच्छेद 19-1ए के तहत संवैधानिक अधिकार है।

कोर्ट ने चुनाव आयोग को सभी इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में नोटा (इनमें से कोई नहीं) बटन लगाया जाये का निर्देश दिया। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद पाँच राज्यों में हुये विधानसभा चुनाव में इस बटन को लगाया गया जिसमें 15 लाख से अधिक लोगों ने नोटा बटन का इस्तेमाल किया। मध्यप्रदेश की 26, छत्तीसगढ़ की 15, राजस्थान की 11 व दिल्ली की 4 सीटों पर जीत हार का अंतर नोटा पर परे वोटों से कम था।

भारत के ग्रामीण इलाकों में साक्षरता दर कम होने के कारण बहुत से मतदताओं को नोटा बटन के विषय में जानकारी नहीं है। 16 वीं लोकसभा में पहली बार नोटा बटन का प्रयोग देश में होगा। कोई भी राजनीतिक पार्टी इसकी जानकारी मतदाता को देना भी नहीं चाहता वहीं चुनाव आयोग भी इसकी जानकारी मतदाताओं तक नहीं पहुंचाती है। चुनाव आयोग मतदान करने के लिये प्रचार व एसएमएस तो करवा रहा है लेकिन नोटा को लेकर कोई जानकारी नहीं दे रहा है। यहां तक कि चुनाव अधिकारियों को भी इसके विषय में ट्रेनिंग नहीं दी जाती है जैसा कि विधानसभा चुनाव में दंतेवाड़ा के कट्टेकल्यान के मतदान अधिकारी मुन्ना रमयणम से जब बीबीसी संवादाता ने नोटा बटन में विषय बात की तो वे नोटा बटन को लेकर अनभिज्ञ थे। मुन्ना रमयण “गोंडी” भाषा भी जानते हैं जिससे वे वहां के मतदाताओं को आसानी से समझा सकते थे लेकिन जब उनको ही मालूम नहीं है तो वो मतदाता को कैसे बतायेंगे?

नोटा के विषय में जहां कम मतदताओं को जानकारी है वहीं चुनाव आयोग इसकी जानकारी उपलब्ध कराने के लिये निष्क्रिय है। सामाजिक कार्यकर्ता इसकी जानकारी लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं तो अधिकारियों द्वारा नोटा के प्रचार की अनुमति नहीं दी जा रही है। नोटा का प्रचार करने से रोका जाना दर्शाता है कि चुनाव के दौरान अफसरशाही पूरी तरह से हावी हो जाती है। चुनाव आयोग भी मनमानी करने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई करने को तब तक तैयार नहीं होता जब तक मामला किसी राजनीतिक दल द्वारा न उठाया जाये। राजनीतिक दल नोटा के प्रावधान से नाखुश है यही कारण है कि वे भी नोटा के विषय में लोगों को नहीं बताना चाहते हैं और नोटा की प्रचार की अनुमति नहीं दिये जाने पर कोई भी राजनैतिक दल किसी प्रकार की टीका टिप्पणी करने को तैयार नहीं है।

मुलताई क्षेत्र से दो बार विधायक रहे डॉ. सुनीलम को विधानसभा चुनाव में नोटा के प्रचार की अनुमति यह कह कर प्रदान नही की कि वे प्रत्याशी या उसके एजेंट नहीं है। इस बार भी बैतूल निर्वाचन अधिकारी द्वारा अब तक नोटा के प्रचार के अनुमति प्रदान नहीं की गयी है।

डॉ. सुनीलम ने चुनाव आयुक्त, भारत सरकार को पत्र लिखकर नोटा के प्रचार की अनुमति न देने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई करने की मांग करते हुये कहा है कि गत विधानसभा चुनाव में भी मध्यप्रदेश में नोटा की प्रचार की अनुमति नहीं दी गयी थी। सुनीलम को छिंदवाड़ा के निर्वाचन अधिकारी द्वारा 25 मार्च, 2014 को अनुमति प्रदान की गयी लेकिन 3 अप्रैल, 2014 को अनुमति निरस्त कर दी गयी। उल्लेखनीय है कि गत विधानसभा चुनाव में छिंदवाड़ा में 39,235 मतदताओं ने नोटा का बटन दबाया था।

इसी तरह किसान संघर्ष समिति के महामंत्री लीलाधर चौधरी ने 22 मार्च को देवास निर्वाचन अधिकारी से अनुमति मांगी थी जो आज तक नहीं दी गयी है। सिद्धी में 4 अप्रैल, 2014 को, संयोजक उमेश तिवारी ने निर्वाचन अधिकारी सिद्धी से अनुमति मांगी थी लेकिन अनुमति प्रदान नहीं की गयी जिसकी शिकायत राज्य निर्वाचन अधिकारी को उमेश तिवारी जी द्वारा 8 अप्रैल को की गयी।

डॉ. सुनीलम द्वारा कई बार चुनाव आयोग को शिकायतें भेजने तथा सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता संजय पारीख द्वारा चुनाव आयुक्त को दो बार पत्र लिखे जाने के बावजूद अब तक चुनाव आयोग द्वारा नोटा के प्रचार की अनुमति न देने वाले अधिकारियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी हैं। भारत की संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है लेकिन अधिकारियों द्वारा संवैधानिक अधिकार का हनन खुलेआम किया जा रहा है।
अन्ना हजारे भी नोटा के मुद्दों को लेकर चुनाव आयोग से मिले थे तब आयुक्त एवं अन्य अधिकारियों ने उन्हें बताया था कि नोटा के प्रचार-प्रसार पर कोई रोक नहीं है। इसी तरह की जानकारी संजय पारिख जी को अधिकारियों द्वारा दी गयी लेकिन नोटा का प्रचार प्रसार नहीं हो पाने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है।

सर्वोच्च न्यायालय ने जनभवनाओं को देखते हुये आदेश तो दे दिया कि नोटा बटन के रूप में मतदाताओं को विकल्प उपलब्ध कराया जाये। तो क्या यह विकल्प वोट प्रतिशत बढ़ाने के लिये है? जैसा कि नोटा में डाले गये वोट को अवैध ही माना जाता है उस वोट की गिनती हटा कर ही जमानत जप्त करने का प्रावधान है। जब मतदाता सोच समझ कर नोटा का बटन दबाया है तो बस वोट को अवैध कैसे माना जा रहा है? क्या इस तरह का प्रावधान व्यवस्था से रूष्ट मतदाताओं की प्रक्रिया को ही अवैध घोषित नहीं कर रहा है? क्या यह मतदाताओं का अपमान नहीं है? जिस तरह से चुनाव आयोग द्वारा नोटा में डाले गये मत को अवैध माना जाता है उससे तो यही लगता है कि नोटा कोई विकल्प है ही नहीं। नोटा वोट को अवैध माना जाना सर्वोच्च न्यायालय की अवेहलना है या मतदाताओं को मतदान केन्द्र तक पहुंचाने का शिगूफा है?

सुनील कुमार

सुनील कुमार, लेखक राजनैतिक सामाजिक कार्यकर्ता व स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।