शेष नारायण सिंह
धर्मनिरपेक्षता की राजनीति किसी भी समुदाय पर एहसान नहीं होता। किसी भी देश के नेता जब राजनीतिक आचरण में धर्मनिरपेक्षता को महत्वपूर्ण मुकाम देते हैं तो वे अपने राष्ट्र और समाज की भलाई के लिए काम कर रहे होते हैं। धर्मनिरपेक्षता का साधारण अर्थ यह है कि धर्म के आधार पर किसी को लाभ या हानि न पहुँचाया जाए। जब भी धर्म के आधार पर हानि या लाभ पहुंचाने की कोशिश शासक वर्ग करता है तो समाज को और राष्ट्र को भारी नुकसान होता है। भारत और पाकिस्तान को अंग्रेजों से आज़ादी एक ही साथ मिली थी, लेकिन भारत दुनिया में आज एक बड़ी ताकत के रूप में उभर चुका है और अमेरिका समेत सभी देश भारत को सम्मान की नजर से देखते हैं लेकिन पाकिस्तान की हालत बिल्कुल अलग है। वहाँ अगर अमेरिका और पश्चिम एशिया के देशों से आर्थिक मदद न मिले तो बुनियादी जरूरतों के लिए भी परेशानी पड़ सकती है। भारत को धमकाने के लिए चीन भी पाकिस्तान की मदद करता रहता है। ऐसा इसलिए है कि आजादी के बाद भारत ने धर्मनिरपेक्षता का रास्ता अपनाया और पाकिस्तान में मुहम्मद अली जिन्ना की एक न चली और पाकिस्तान धर्म पर आधारित राज्य बन गया। और पाकिस्तान दुनिया के बाकी संपन्न देशों पर निर्भर हो गया। अमेरिकी और चीनी मदद का नतीजा यह हुआ है कि पाकिस्तान की निर्भरता इन दोनों देशों पर बढ़ गई है। पूरे पाकिस्तान में चीन ने सड़कों, बंदरगाहों और बिजली के उत्पादन केन्द्रों का ऐसा जाल बिछा दिया है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में बुनियादी ढाँचों का क्षेत्र लगभग पूरी तरह से चीन की कृपा का मोहताज है। अब तो पूरी दुनिया में यह कहा जाता है कि पाकिस्तान वास्तव में आतंकवाद की नर्सरी है। जब अमेरिका के शासकों को पाकिस्तानी आतंकवाद का इस्तेमाल पुराने सोवियत संघ और मौजूदा रूस के खिलाफ करना होता था तो वह आतंकवादियों को हर तरह की सहायता देता था। अमेरिका को मुगालता था कि पाकिस्तान में वह जिस आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा था वह केवल एशिया में ही अमेरिकी लाभ के लिए इस्तेमाल होगा लेकिन जब अमरीकी जमीन पर अलकायदा ने आतंकी हमला कर दिया तब अमेरिका की समझ में आया कि आतंकवाद का कोई क्षेत्र नहीं होता और आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। वह संगठन के सरगना की मर्जी के हिसाब से चलता है और उसके अलावा उसका और कोई काम नहीं होता।
बहरहाल आज पाकिस्तान के आतंकवाद का डर पूरी दुनिया में है। भारत के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को अपने जीवन से सबसे अहम् मौके पर आमंत्रित करके यह साबित करने की कोशिश की थी कि वह पाकिस्तान से अच्छे रिश्ते रखना चाहते हैं लेकिन सबको मालूम है कि आतंकवादी संगठन किसी भी सरकार के अधीन नहीं होते। इसीलिए पाकिस्तान से होने वाले आतंकवादी हमलों में कोई कमी नहीं आई और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कहना पड़ा कि पाकिस्तान की तरफ से भारत में प्राक्सी युद्ध चल रहा है। और दोनों देशों के बीच हुई लड़ाईयों में जितने सैनिक मारे गए हैं उससे बहुत ज़्यादा भारतीय सैनिक पाकिस्तानी प्राक्सी युद्ध में मारे गए हैं। अब भारत में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बनी सरकार को पता चल गया है कि पाकिस्तान में आतंकवाद के तामझाम पर प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का नहीं वहाँ की फौज का हुक्म चलता है और फौज के सबसे बड़े अधिकारियों को अभी 1971 के युद्ध का अपमान हमेशा याद रहता है क्योंकि सन् 71 के आसपास ही आज के सभी पाकिस्तानी जनरलों को कमीशन मिला था और उनका पहला काम पाकिस्तानी सेना की हार के मलबे को संभालना था। इसके पहले के सेना प्रमुख जनरल अशफाक परवेज कयानी ने तो कई बार मीडिया से कहा था कि वे भारत से 1971 का बदला लेने के लिए तड़प रहे थे। जाहिर है उनकी फौज भारतीय सेना से जमीनी लड़ाई में 1971 की गति को ही प्राप्त होती इसलिए पाकिस्तानी सेना भारत में आतंकवाद के सहारे परेशानी खड़ी करने की कोशिश करती रहती थी।
पाकिस्तान में तथाकथित डेमोक्रेसी वाली सरकारों का पाकिस्तान की धार्मिक विचारधारा में पूरी तरह से घुल-मिल चुकी फौज पर कोई असर नहीं पड़ता।
भारत की मौजूदा सरकार अब आतंकवाद खत्म करने के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री पर निर्भर नहीं कर रही है। वह अंतरराष्ट्रीय जनमत को पाकिस्तान में पलने वाले आतंकवाद के खिलाफ तैयार कर रही है। शायद इसी कूटनीतिक रणनीति के तहत अफगानिस्तान में भारत के राजदूत ने एक टीवी चैनल को बताया कि, "यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि अफगानिस्तान में आतंक फैलाने वाले आतंकवादी पाकिस्तान से आते हैं।“
आज पाकिस्तान धार्मिक आधार पर आतंकवाद के मोबिलाइजेशन का सबसे बड़ा केन्द्र है। इसका कारण यह है कि पाकिस्तान ने एक राष्ट्र के रूप में शुरुआत तो सेकुलर तरीके से की थी, लेकिन उसके संस्थापक मुहम्मद अली जिन्नाह की राजनीति को बाद के शासकों ने पूरी तरह से तबाह कर दिया और इस्लाम पर आधारित राजनीति की शुरुआत कर दी। धर्मनिरपेक्षता को भुला कर इस्लामिक राज्य की स्थापना करने के बाद पाकिस्तान को किन-किन मुसीबतों का सामना करना पड़ा है उसको जानने के लिए पाकिस्तान के पिछले पैंतीस वर्षों के इतिहास पर नजर डालना ही काफी है।
हमारे अपने देश में सेकुलर राजनीति का विरोध करने वाले और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का सपना देखें वालों को पाकिस्तान की धार्मिक राजनीति से हुई तबाही पर भी नजर डाल लेनी चाहिए।
पाकिस्तान की आजादी के वक्त उसके संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने साफ ऐलान कर दिया था कि पाकिस्तान एक सेकुलर देश होगा। ऐसा शायद इसलिए था कि 1920 तक जिन्नाह मू लरूप से एक सेकुलर राजनीति के पैरोकार थे। उन्होंने 1920 के आंदोलन में खिलाफत के धार्मिक नारे के आधार पर मुसलमानों को साथ लेने का विरोध भी किया था लेकिन बाद में अंग्रेजों की चाल में फँस गए और लियाकत अली ने उनको मुसलमानों का नेता बना दिया। नतीजा यह हुआ कि 1936 से 1947 तक हम मुहम्मद अली जिन्ना को मुस्लिम लीग के नेता के रूप में देखते हैं जो कांग्रेस को हिंदुओं की पार्टी साबित करने के चक्कर में रहते थे। लेकिन कांग्रेस का नेतृत्व महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के पास था और उन्होंने कांग्रेस को किसी एक धर्म की पार्टी नहीं बनने दिया। लेकिन जब पाकिस्तान की स्थापना हो गई तब जिन्ना ने ऐलान किया कि हालांकि पाकिस्तान की स्थापना इस्लाम के अनुयायियों के नाम पर हुई है लेकिन वह एक सेकुलर देश बनेगा।
अपने बहुचर्चित 11 अगस्त 1947 के भाषण में पाकिस्तानी संविधान सभा के अध्यक्षता करते हुए जिन्नाह ने सभी पाकिस्तानियों से कहा कि , "आप अब आज़ाद हैं। आप अपने मंदिरों में जाइए या अपनी मस्जिदों में जाइए। आप का धर्म या जाति कुछ भी हो उसका पाकिस्तान के राष्ट्र से कोई लेना देना नहीं है। अब हम सभी एक ही देश के स्वतन्त्र नागरिक हैं। ऐसे नागरिक, जो सभी एक-दूसरे के बराबर हैं। इसी बात को उन्होंने फरवरी 1948 में भी जोर देकर दोहराया। उन्होंने कहा कि, "किसी भी हालत में पाकिस्तान धार्मिक राज्य नहीं बनेगा। हमारे यहाँ बहुत सारे गैर-मुस्लिम हैं-हिंदू, ईसाई और पारसी हैं लेकिन वे सभी पाकिस्तानी हैं। उनको भी वही अधिकार मिलेंगे जो अन्य पाकिस्तानियों को और वे सब पाकिस्तान में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगें।" लेकिन पाकिस्तान के संस्थापक का यह सपना धरा का धरा रह गया और पाकिस्तान का पूरी तरह से इस्लामीकरण हो गया। पहले चुनाव के बाद ही वहाँ बहुमतवादी राजनीति कायम हो चुकी थी और उसी में एक असफल राज्य के रूप में पाकिस्तान की बुनियाद पड़ चुकी थी। 1971 आते-आते तो नमूने के लिए पाकिस्तानी संसद में एकाध हिंदू मिल जाता था वरना पाकिस्तान पूरी तरह से इस्लामी राज्य बन चुका था। अलोकतांत्रिक धार्मिक नेता राजकाज के हर क्षेत्र में हावी हो चुके थे।
लेकिन असली धार्मिक कट्टरवाद की बुनियाद जनरल जियाउल हक ने डाली। उनको अपने पूर्ववर्ती शासक जुल्फिकार अली भुट्टो की हर बात को गलत साबित करना था लिहाजा उन्होंने पाकिस्तान की सभी संस्थाओं का इस्लामीकरण कर दिया। उन्होंने जुल्फिकार अली भुट्टो की रोटी, कपड़ा और मकान की राजनीति को साफ नकार दिया। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान की स्थापना ही इस्लाम के कारण हुई थी, यह मुसलमानों के लिए बनाया गया था। जनरल जिया ने 2 दिसंबर 1978 को इस्लामी नव वर्ष के मौके पर पाकिस्तान में इस्लामी सिस्टम को लागू कर दिया। उन्होंने तब तक के सभी पाकिस्तानी सेकुलर कानूनों को खत्म कर दिया और ऐलान किया कि वे निजामे-मुस्तफा लागू कर रहे थे। उन्होंने शरिया अदालतें स्थापित करने का ऐलान कर दिया। लेकिन सभी कानून तो फौरन बदले नहीं जा सकते थे लिहाजा जनरल जिया ने आर्डिनेंस लागू करके अपनी गद्दी की सुरक्षा का बंदोबस्त कर लिया। इस दिशा में पहला कानून था हुदूद आर्डिनेंस। इसके जरिये ताजिराते पाकिस्तान में बताए गए संपत्ति कानूनों को बदलने की कोशिश की गई। पूरी तरह बदल तो नहीं सके क्योंकि इस्लामी सबूत के नियमों के आधार पर सजा दे पाना असंभव था। दूसरा बदलाव बलात्कार और व्यभिचार के कानून में किया गया इसके जरिए तो पूरे पाकिस्तान में औरतों को गुलाम से भी बदतर बना दिया गया। अपनी इसी इस्लामीकरण की योजना के तहत ही धार्मिक शिक्षण के केन्द्रों का बड़े पैमाने पर विकास किया गया। पाकिस्तानी समाज में मदरसों के मालिकों का अधिकार और प्रभाव बहुत बढ़ गया। संगीत में भी भारी बदलाव किया गया। पाकिस्तानी रेडियो और टेलीविजन पर केवल देशभक्ति के गाने ही बजाए जाते थे। कुल मिलाकर ऐसा पाकिस्तान बना दिया गया जिसमें धार्मिक कट्टरता और बहुमतवाद का ही राज था। आज पाकिस्तान की जो दुर्दशा है उसमें जनरल जिया के उसी धार्मिक राज कायम करने के उत्साह को जिम्मेदार माना जा सकता है।
आजकल भारत में भी धार्मिक बहुमतवाद की राजनीति को स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। भारत की सत्ताधारी पार्टी के बड़े नेता भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात करते पाए जा रहे हैं। उनको भी ध्यान रखना पड़ेगा कि धार्मिक कट्टरता किसी भी राष्ट्र का धर्म नहीं बन सकती। अपने पड़ोसी के उदाहरण से अगर सीखा न गया तो किसी को भी अंदाज नहीं है कि हम अपनी आने वाली पीढिय़ों को किस तरह का भारत देने जा रहे हैं। लेकिन साथ ही यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि धार्मिक समूहों को वोट की लालच में आगे भी न बढ़ाया जाए। जवाहरलाल नेहरू के युग तक तो किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि धार्मिक समूहों का विरोध करे या पक्षपात करे लेकिन उनके जाने के बाद धार्मिक पहचान की राजनीति ने अपने देश में तेजी से रफ्तार पकड़ी और आज राजनीतिक प्रचार में वोट हासिल करने के लिए धार्मिक पक्षधरता की बात करना राजनीति की प्रमुख धारा बन चुकी है। कहीं मुसलमानों को अपनी तरफ मिलाने की कोशिश की जाती है तो दूसरी तरफ हिन्दुओं का नेता बनने की होड़ लगी हुई है। इससे बचना पड़ेगा। अगर न बच सके तो राष्ट्र और देश के सामने मुश्किल पेश आ सकती है।