किस मर्ज की दवा है नोटबंदी
किस मर्ज की दवा है नोटबंदी
किस मर्ज की दवा है नोटबंदी
0 राजेंद्र शर्मा
संसद के शीतकालीन सत्र की शुरूआत हंगामाई रही है।
नोटबंदी के फैसले से लगातार दूसरे हफ्ते संसद की कार्रवाई ठप्प रही है। राज्यसभा में, जहां मोदी सरकार को बहुमत हासिल नहीं है, विपक्ष इस मुद्दे पर बहस के दौरान प्रधानमंत्री की उपस्थिति तथा उनके द्वारा ही बहस का जवाब दिए जाने पर अड़ा हुआ है, जबकि लोकसभा में विपक्ष कामरोको प्रस्ताव पर बसह की मांग कर रहा है, जिसका समापन वोट के साथ हो।
ऐसा होता है तो सार्वजनिक रूप से नोटबंदी के मुद्दे पर मोदी सरकार का विरोध कर रही किंतु केंद्र व राज्य, दोनों स्तरों पर सत्ताधारी गठबंधन में शामिल, शिव सेना क्या करती है यह देखना दिलचस्प होगा।
इन हालात में अचरज की बात नहीं है भाजपा चार लोकसभाई तथा दस विधानसभाई सीटों के उपचुनाव के नतीजों को ‘नोटबंदी के पक्ष में जनादेश’ बनाकर पेश करने की जीतोड़ कोशिशें कर रही है।
वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री अनंतकुमार ने तो बाकायदा इसका एलान भी कर दिया है। यह इसके बावजूद है कि डूबते को तिनके का सहारा की मुद्रा में असम तथा मध्य प्रदेश में, जहां भाजपा राज कर रही है, लोकसभाई सीटों पर तथा मध्य प्रदेश विधानसभाई सीट पर कब्जा बनाए रखने को और वह भी उपचुनाव में कब्जा बनाए रखने को ही, भाजपा नोटबंदी पर महत्वपूर्ण जनादेश बनाने की कोशिश कर रही है।
नोटबंदी के इस फैसले की आमतौर पर शहरों में साधारण जनता पर जो अभूतपूर्व मार पड़ी है, उसके सबूत तो पहले ही दिन से बैंकों, पोस्ट ऑफिसों, एटीएमों आदि पर नोट बदलवाने से लेकर, बैंकों से अपना पैसा निकलवाने तक के लिए लगी अंतहीन लाइनों के रूप में सामने था।
प्रधानमंत्री के नोटबंदी के एलान वाले प्रसारण के पूरे एक हफ्ते बाद भी ये लाइनें खत्म होना तो दूर, अगर बढ़ी नहीं हैं तो छोटी तो किसी भी तरह से नहीं हुई हैं।
जानकारों के अनुसार, प्रधानमंत्री शीतकालीन सत्र के पहले सप्ताह में संसद के दोनों सदनों में इस फैसले पर बहस के दौरान अनुपस्थित ही रहे हैं क्योंकि संसद के बाहर हालात अभी अनुकूल नहीं हैं। शायद दूसरे सप्ताह में लाइनें कुछ छोटी हो जाएं, प्रधानमंत्री उसके बाद ही संसद का सामना करना चाहेंगे।
प्रधानमंत्री के दुर्भाग्य से शहरों में लगीं इन कतारों के अलावा भी, नोटबंदी के इस फैसले ने आम आदमी पर और उसमें भी खासतौर पर बैंक-क्रेडिट/ डेबिट कार्ड आदि की सुविधाओं के उपयोग से आम तौर पर दूर, ग्रामीण गरीबों पर, मुसीबतों का जैसा पहाड़ तोड़ा है, वह भी इस एक सप्ताह के दौरान सब के सामने आ चुका है।
नये नोटों में भुगतान न कर पाने के चलते उपचार के अभाव में कम से कम चार बच्चों का दम तोड़ना या नोट न बदलवा पाने की हताशा में आत्महत्या की दसियों घटनाएं, बेशक इन तकलीफों के अतिवादी सबूत हैं।
कुछ आकलनों के अनुसार, नोटबंदी की मौतों का आंकड़ा तीन दर्जन पर पहुंच चुका है।
इन मौतों की सीमापार से आतंकवादी हमलों में मौतों से तुलना करना या इन्हें शहीद बताना भले ही सही नहीं हो, फिर भी यह तो कहना ही पड़ेगा कि है तो यह भी भारतीयों की जिंदगियों का ही मामला।
उधर जानकारों के अनुसार इस नोटबंदी की और बुरी मार, खाद-बीज आदि के लिए नकदी न जुटा पाने के चलते, किसानों के और इसी तरह अन्य छोटे काम-धंधे करने वालों के, उत्पादन तथा उनकी आय पर पड़ेगी और पड़ रही है।
वास्तव में यह साधारण जन के खिलाफ और अर्थव्यवस्था के खिलाफ ही सर्जिकल स्ट्राइक ही ज्यादा नजर आती है।
दूसरी ओर, इस नोटबंदी का कालेधन पर वास्तव में कोई खास असर पडऩा संदिग्ध है, जबकि आतंकवाद तथा जाली नोटों के चलन पर, फौरी उलट-पुलट के अलावा कोई और असर न पडऩा तय है।
नोटबंदी के दो सप्ताहों में इस आशय के सारे दावे मुंह के बल गिर चुके हैं कि यह कदम, समुचित तैयारियों के साथ उठाया गया है।
पुराने या अमान्य कर दिए गए नोटों के पैट्रोल पंपों, अस्पतालों, दवा की दूकानों आदि में स्वीकार किए जाने के लिए पहले तय की गयी 72 घंटे की अवधि, दो बार बढ़ाकर अब 24 नवंबर तक की जा चुकी है।
बैंकों से नोट बदली और नकदी निकालने से संंबंधित नियमों में हर रोज बदलाव हो रहे हैं।
इनमें इस तरह के विचारहीन बदलाव भी शामिल हैं कि पहले नोट बदलने के लिए चार हजार रु0 की सीमा तय की गयी, फिर हालात में सुधार के संकेतक के रूप में यह सीमा बढ़ाकर चाढ़े चार हजार रु0 की गयी और उसके दो दिन बाद ही, यह सीमा आधी कर के दो हजार रुपया कर दी गयी।
इसी प्रकार पहले सप्ताह के अंत में चारों ओर से शादियों के सीजन का शोर मचने के बाद ही, शादी के लिए एक खाते से ढाई लाख रु0 निकालने की इजाजत देने से लेकर, करेंट एकाउंटधारी कारोबारियों के लिए हफ्ते में धन निकासी की सीमा पचास हजार रु0 करने, किसानों के लिए ऋणों के आधार पर बीज, खाद आदि के लिए पच्चीस हजार प्रति सप्ताह की निकासी आदि के तथा और आगे चलकर, सरकारी एजेंसियों से पुराने नोटों से बीज खरीदने की इजाजत देने जैसे प्रावधान किए गए हैं।
यह साफ तौर पर उक्त निर्णय से उठने वाले मुद्दों तथा आने वाली समस्याओं को हिसाब में न लिए जाने को ही दिखाता है।
यह दूसरी बात है कि आगरा की परिवर्तन रैली में प्रधानमंत्री ने समस्याएं सामने आने के बाद किए गए इन मामूली बदलावों को भी यह कहकर भुनाने की कोशिश की है कि इस मामले में सरकार का रुख शुरू से ही लचीला रहा है, हठपूर्ण नहीं!
और भी सामान्य स्तर पर विभिन्न गणनाएं दिखाती हैं कि पांच सौ तथा हजार रु0 के नोटों को बंद करने से, देश में मुद्रा के चलने में आयी 80 फीसद की कमी की भरपाई करने के लिए पर्याप्त संख्या में दो हजार तथा पांच सौ रुपए के नये नोट छापने में ही कम से कम छ: महीने का समय लगेगा।
अगर काला धन होने की वजह से 30 फीसद नोट दोबारा सर्कुलेशन में नहीं लाए जाने की बात सच मानकर चलें तब भी, सितंबर में आए रिजर्व बैंक के नये गवर्नर के दस्तखतों के नये नोटों की छपाई दिसंबर के अंत तक तो क्या चालू वित्त वर्ष के अंत तक भी इस जरूरत को किसी भी तरह से पूरा नहीं कर सकती है।
साफ है कि इस योजना की तमाम अनुमानित तिथियां ही गलत नहीं निकली हैं, एक तरह से पूरी योजना ही तुगलकी है-घोषणाओं में नेक तथा धमाकेदार, किंतु अविचारपूर्ण।
यह योजना लागू क्यों की गयी इस पर तो काफी अटकलें लगायी जा रही हैं। लेकिन, ऐसी अविचारपूर्ण योजना लागू कैसे कर दी गयी, इस पर चर्चा कम ही हुई है।
वास्तव में ऐसी योजना का लागू किया जाना, प्रधानमंत्री के हाथों में सारी सत्ता केंद्रित होने के जरिए, व्यावहारिक मानों में देश पर राष्ट्रपति प्रणाली थोपे जाने और कैबिनेट प्रणाली को भीतर से खोखला कर दिए जाने का ही कुफल है।
निर्णय के अधिकार का ऐसा केंद्रीकरण, निर्णय से पहले चौतरफा विचार की संभावनाओं पर ही दरवाजा बंद करता है।
इसी का नतीजा है कि सिर्फ विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री इस कदम के खिलाफ आंदोलन ही नहीं कर रहे हैं, कृषि मंत्री, सहकारिता मंत्री आदि, योजना लागू होने के बाद ही, अपने-अपने क्षेत्रों के तकाजों के हिसाब से, नोटबंदी की योजना के लागू होने के बाद ही, उसमें सुधार के लिए सुझाव दे पाए हैं।
विडंबना यह है कि इन सुझावों को भी प्रकटत: वही वित्त मंत्रालय खारिज कर रहा है, जिसे खुद भी समूची अर्थव्यवस्था को उलट-पुलट ही कर देने वाले इस निर्णय की प्रक्रिया से पूरी तरह से बाहर ही रखा गया था!
याद रहे कि खुद वित्त मंत्री तक का कहना है कि उन्हें भी इस मामले में कम से कम कुछ सुन-गुन जरूर थी! निर्णय प्रक्रिया का ऐसा केंद्रीकरण ही ऐसे तुगलकी फैसलों की जड़ में है, जो सबसे बढक़र एक नेता के लिए आदमकद से बड़ी छवि खड़ी करने की चिंता से संचालित हैं।
यह ऐसी चिंता है जो उत्तरोत्तर घटते अंतराल पर, उत्तरोत्तर बढ़ते हुए तमाशे की मांग करती है। तभी तो सीमा पार कथित सर्जिकल स्ट्राइक के डेढ़ महीने में ही यह दूसरी सर्जिकल स्ट्राइक आ चुकी थी और जनवरी में अगली सर्जिकल स्ट्राइक का प्रधानमंत्री पहले ही इशारा भी कर चुके हैं।


