कृष्णा सोबती — हिंदी की बातूनी दादी नहीं रहीं
कृष्णा सोबती — हिंदी की बातूनी दादी नहीं रहीं
कृष्णा सोबती जी हमारे बीच नहीं रहीं। इस समाचार के साथ ही एकबारगी लगा — हिंदी की वह बातूनी दादी नहीं रही जिसकी मित्रों ओठ बिचका कर कहती थीं — 'चिन्ता-जंजाल किसको ? मैं तो चिन्ता करने वाली के पेट ही नहीं पड़ी ।'
वे हिंदी साहित्य में सचमुच एक ऐसे जगत का शून्य पैदा कर गई हैं जिसे उन्होंने ही हमारे लिये बड़े बुजुर्गों की मुहावरेदार भाषा से लदी बेलौस किस्सागोई से रचा था।
साहित्य की दुनिया में कृष्णा सोबती के होने के मतलब
जिसने भी कृष्णा जी के मित्रों मरजानी, यारों के यार, डार से बिछुड़ी, जिंदगीनामा, ऐ लड़की को पढ़ा होगा, वह साहित्य की दुनिया में कृष्णा सोबती के होने के मतलब को जानता होगा। वे पितृ सत्ता के दृढ़तम विरोध की और इसीलिये सामाजिक प्रगति की एक जीती जागती मिसाल थीं। उनकी उपस्थिति ही हिंदी साहित्य को पोंगापंथ, हर प्रकार की जड़ता, पिछड़ेपन और सामाजिक भेद-भाव के खिलाफ मनुष्य के अबाध स्वातंत्र्य के क्षेत्र का स्वरूप प्रदान करती थी।
आज के समय में उनका न होना सचमुच इस जगत की ऐसी क्षति है जिसे पूरा करना आसान नहीं होगा।
हम उनकी स्मृतियों के प्रति आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और दुख की इस घड़ी में उनके सभी परिजनों के प्रति अपनी संवेदनाएं प्रेषित करते हैं।
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