विवेक दत्त मथुरिया
भारतीय मीडिया का चरित्र अन्य व्यवसायों की तरह संदिग्ध और जन आलोचना के केन्द्र में आ गया है। वजह साफ है कि मीडिया के लक्ष्य और सरोकार बदल चुके हैं, जिस मीडिया की अभिव्यक्ति को जनता की आवाज माना जाता था, आज वही किराये की अभिव्यक्ति बन कर रह गयी है। तमाम इंकार के बावजूद पेड न्यूज कल्चर उसकी व्यावसायिक नीति का हिस्सा बन चुका है। ऐसे में जनता के सरोकारों की बात मीडिया का व्यावसायिक हथकण्डा ही कहा जायेगा। वैश्वीकरण की बाजारवादी संस्कृति में पाखण्ड का ही महत्व है। आज खबरों में तेवर की बजाय सनसनी देखने और पढ़ने को मिल रही है। मीडिया की नीति और नजरिया बदलने के कारण जन सरोकारों से जुड़े जनता के मुद्दे तमाम संघर्षों के बाद अपने अंजाम तक नहीं पहुँच पाते। मीडिया तथ्यों की बजाय खबरों को लेकर जज का काम करने लग गया है। हालाँकि सब कुछ गड़बड़ नहीं है। मीडिया में अभी गिने चुने जनसरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध लोग है जिनके कारण मीडिया पर अभी कुछ भरोसा कायम है। लेकिन हमारे देश का शिक्षित वर्ग थाली के बैगन की तरह सुविधाभोगी नजरिये को अपने जीने की कला बना चुका है। यह

अपने तरीके का आचरण से जुड़ा वैचारिक भ्रष्टाचार है। उसी मध्यवर्ग के अंग के तौर पर काम कर रहे मीडिया की नजर में जनता की रोजमर्रा की बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी समस्यायें, समस्यायें नहीं रह गयी हैं। न ही जनता की इन समस्याओं के लिये संघर्ष करने वाले लोगों का कोई महत्व है। अगर ऐसा होता तो आज मीडिया की नजर में अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे के प्रति जो उपेक्षा दिखायी दे रही है, वह न होती। यह सवाल पूरे जनमानस को मथ रहा है। जनता को यह मालूम है कि आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल गत 23 मार्च से दिल्ली में बिजली पानी के बिलों को लेकर भूख हड़ताल पर बैठे हैं और उनका छह किलो वजन कम हो गया है। उनका स्वास्थ्य तेजी से गिर रहा है। लेकिन मीडिया खामोश है। यह वही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है जो कल तक जंतर-मंतर पर जन लोकपाल आन्दोलन की पल-पल की कहानी को इस तरह दिखाता था कि बस अब अन्ना और केजरीवाल के नेतृत्व में देश में बदलाव होने वाला है। मीडिया कवरेज ने सरकार को पूरी तरह खौफजदा कर अपनी ताकत का एहसास दिलाया कि देखी मीडिया की ताकत। उसके बाद लगा कि कॉरपोरेट मीडिया का मकसद पूरा हो गया। हो गयी क्रान्ति। बदल गयी व्यवस्था। जाओ अपने घर जाओ। फिर कॉरपोरेट मीडिया और व्यवस्था के बीच जो डील हुयी तो अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल को लेकर मीडिया एंगल बदल गया। नयी डील के बाद शुरू हुआ अन्ना और टीम केजरीवाल की चारित्रिक हत्या का प्रयास। यह बात सही है कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं हो सकता। हर एक में कोई न कोई खामी है। यही मानवीय स्वभाव है। समाज हर व्यक्ति का गहनता से सूक्ष्म मूल्याँकन करता है। यह अलग बात है कि समाज की अपनी बुराइयाँ और कमजोरी है, जो राजनीति ने अपने मुनाफे के लिए वोट के प्रतिदान के रूप में दी हैं। सामान्य समझ का शिक्षित व्यक्ति लालच की चपेट में जल्दी आता है। व्यक्ति सामाजिक प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ने की महत्वाकाँक्षा शॉर्टकट के रूप में लालच और समझौतों को कामयाबी के पथ बना लेता है। इस तरह के कामयाब लोग समाज को पथभ्रष्ट करने का काम करते हैं। मीडिया में इस वक्त इसी तरह की सोच के लोगों की भरमार है। कॉरपोरेट मीडिया संस्थानों को यह समझना होगा कि सोशल मीडिया प्रभावी विकल्प के रूप में तेजी से उभर रहा है। जंतर-मंतर का जन लोकपाल आन्दोलन हो या दामिनी काण्ड को लेकर विजय चौक पर जनता का आक्रोश हो उसमें सोशल मीडिया की भूमिका निर्णायक रही। आज मीडिया व्यवस्था का सेफ्टी वॉल्व बन कर रह गया है, यह बात लोगों को समझ में आने लगी है। दिल्ली में बिजली पानी के मुद्दे को लेकर केजरीवाल के आन्दोलन की मीडिया की अनदेखी के पीछे 2014 के लोकसभा चुनावों के विज्ञापनों का लालच बुनियादी वजह मानी जा रही है। याद रहे भारतीय पत्रकारिता का जन्म ब्रिटिश साम्राज्यवाद के जन प्रतिरोध के रूप में हुआ। पर आज बाजी पलट चुकी है। आज मीडिया नवसाम्राज्यवाद का मजबूत हथियार बन चुका है। आज मीडिया के सामने साख संकट है, जिससे बचने की जरूरत है।