(एक)-हम लिखेंगे

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हम लिखेंगे अपने समय के अँधेरे

जिन्हें अपने सीने में दबा कर रखा हुआ है हमने

अपने हिस्से की रौशनी के निमित्त

जीवित रखेंगे हम अँधेरी कोठरी की ताख पर वे

अपने भविष्य के दुर्दमनीय स्वप्न

हमारी जीवित उम्मीद कोई कौने में दुबका हुआ

कचरा बिल्कुल नहीं है जिसे कि

बुहार फेंकने का अपराध करें हम जानते-बूझते

हमारी उम्मीद वह सदाबहार है जो

हरेक मौसम में खिला रहता है भरपूर ताज़गी लिये

उसे निग़ाहों से सहलाते रहेंगे सदैव

कि अगली बारिश तक बिखर जायेंगे सैकड़ों बीज

हमारी पीढ़ियों की उपजाऊ मिट्टी में हमारी उम्मीद

सदाबहार की तरह खिलती रहेगी

हम अपना समय लिखेंगे साथी

सत्ता की हज़ारों हज़ार पाबन्दियों के बावज़ूद

और हमारे ही बीच छिपे कपटी

सत्ता-समर्थक लेखकों की लिप्सा के बावज़ूद

हम अपना समय ज़रूर लिखेंगे

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(दो)-सीख रहा हूँ

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सीख रहा हूँ इस रात से

कि मत करो किसी को इस प्रकार भी निढ़ाल

कि निष्क्रिय हो जाये वह ज्ञानेन्द्रियों से

और समझ ही न सके तमिस्रा का छल-छद्म

और फंसा रहे उम्र भर

सीख रहा हूँ इस रात से

कि सन्नाटे में मत डुबाओ तमाम जन-जीवन

चोर-लुटेरों के लिये मत बनाओ माहौल

कि बुझा दें लोग अपने घरों के जलते चिराग़

अँधेरे में खोने को स्वयं

सीख रहा हूँ इस रात से

कि हत्यारों के लिये बहुत मददगार होती है

घोर कालिमा भरी भयानक रात सदैव

जबकि स्वप्न देखते हैं क्रान्तिचेत्ता नागरिक

लालिमायुक्त सुबह का

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(तीन)-प्रेम स्मृति

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हमेशा टोकती थी दादी

कि बड़े महीने की मझ दोपहर में

खुले केशों बाहर मत निकला कर

लेकिन उसने नहीं सुनी

ऐसे ही तो किसी तपते हुये जेठ की दुपहर थी

कि वह खुले बालों निकल पड़ी

इमली के पेड़ की तरफ़ कच्ची इमलियाँ खाने

उस दिन जो

लगी वह ऊपरी पराई हवा

अब बुढ़ापे तक सालती है

उसकी पीड़ा

वह ऊपरी पराई हवा क्या

सालती होगी उसको भी इस उम्र में

या भूल गया होगा निर्मोही

या कि टोह रहा होगा मुझे

इधर उधर भटकता गाँव की राहों-गलियों में

नयन छलछला आये क्यों

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(चार)-तोड़ डालूँ छद्म सारा

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है अँधेरी रात और मैं गीत गाऊँ ?

हाँ अँधेरी रात में मैं रौशनी के गीत गाऊँ

ज़ुल्म बढ़ता जाये और कविता लिखूँ मैं ?

हाँ करूँ प्रतिरोध और साहस भरी कविता लिखूँ मैं

बात है बेबात और बातें करूँ मैं ?

हाँ अभी इंसाफ़ और आज़ादी की बातें करूँ मैं

दु:ख इतना और फिर भी ख़्वाब देखूँ ?

हाँ जरूरी है कि देखूँ ख़्वाब अब भी मुक्ति के मैं

हर तरफ़ सन्नाटा तारी है तो क्या सोऊँ नहीं मैं ?

हाँ अभी सन्नाटे में सोऊँ नहीं

और चीख कर

मैं तोड़ डालूँ इस अँधेरी रात का यह छद्म सारा

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(पाँच)-जीवन

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चुभ रहे हैं रात के ये शूल

अंगारे

दहकते हैं हृदय में तमिस्रा के

हो रहे हैं

आक्रमण चारों तरफ़ से

झेलता हूँ

विवश मैं बिल्कुल अकेला

है बचे रहना

मुझे अंतिम प्रहर तक

पास मेरे धैर्य का है धन

ओ मेरे मन!

दु:ख है पर

बहुत प्रिय लगता है जीवन

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-कैलाश मनहर

मनोहरपुर(जयपुर-राज.)

पिनकोड-303104