कैसे बचेगी धारती कैसे बचेगी दुनिया?
कैसे बचेगी धारती कैसे बचेगी दुनिया?
- संपादक
एक बार फिर गंगा
‘गंगा मेरे लिए भारत के स्मरणीय अतीत का प्रतीक है। वह अतीत जो वर्तमान तक बहता चला आया है और भविष्य के सागर की ओर जिसका बहना जारी है।’ - जवाहरलाल नेहरू
गंगा नदी की सफाई पर पिछले दो दशकों में 960 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। यह सरकारी आंकड़ा है। सरकारी से अलग भी कई संगठन और पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध लोग गंगा की सफाई के लिए प्रयास करते रहे हैं। भारत नदियों का धनी देश है। उन नदियों में यहां की सवर्ण आबादी के लिए गंगा का सबसे ज्यादा धार्मिक-आध्यात्मिक महत्व है। लोक और शास्त्र दोनों में ‘पतित पावनी’ गंगा की अनंत महिमा का गान है। स्वाभाविक है कि धार्मिक संगठन और लोग भी गंगा की सफाई के लिए चिंता और प्रयास करते हैं। गंगा नदी के प्रदूषण की समस्या पर कई अध्ययन हुए हैं। इन अध्ययनों में गंगा के बुरी तरह प्रदूषित होने की समस्या के निदान के साथ कुछ समाधान भी सुझाए जाते रहे हैं। लेकिन इतने खर्च, प्रयासों और सुझावों के बावजूद गंगा और ज्यादा प्रदूषित और विषाक्त होती गई है। यह सच्चाई सामने दिखाई भी देती है और सरकारी व गैर-सरकारी सूत्रों से भी पता चलती है। देश की बाकी नदियों का हाल भी कमोबेश गंगा जैसा ही है।
भारत सरकार ने पिछले महीने एक बार फिर गंगा की सफाई के लिए एक महत्वाकांक्षी परियोजना बनाए जाने की घोषणा की है। परियोजना ‘राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण’ (नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी) के तहत अंजाम दी जाएगी, जिसका गठन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में इस साल फरवरी में हुआ बताया गया है। परियोजना पर अगले 10 सालों में ‘मिशन क्लीन गंगा’ के लिए 15, 000 करोड़ रुपये खर्च होंगे। केंद्र और वे राज्य सरकारें मिल कर यह खर्च उठाएंगी जहां से गंगा बहती है। केंद्र 70 प्रतिशत और राज्य सरकारें 30 प्रतिशत। भारत में कोई छोटा या बड़ा काम हो और विश्व बैंक से कर्ज न लिया जाए, वैश्वीकरण के दौर में ऐसा संभव नहीं होता है। लिहाजा, विश्व बैंक से एक अरब डॉलर यानी 41, 474 करोड़ रुपये का कर्ज मांगा गया, जिसके लिए विश्व बैंक ने सैद्धांतिक सहमति दे दी है। उसमें से 30 लाख डॉलर की रकम परियोजना की तैयारी के लिए स्वीकृत भी हो गई है। कर्ज संबंधी बाकी का काम दिसंबर में हो जाएगा, जब विश्व बैंक के अध्यक्ष रॉबर्ट जौलिक भारत में होंगे।
यह सब सूचना पर्यावरण और वन मंत्री जयराम रमेश ने ‘राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण’ की 5 अक्तूबर 2009 को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक के बाद पत्रकारों को दी। जाहिर है, प्रधानमंत्री द्वारा ‘राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण’ के गठन और उसके तहत गंगा की सफाई के लिए चलाई जाने वाली परियोजना की घोषणा के पहले ही विश्व बैंक से सौदा हो चुका था। यानी यह परियोजना, जैसा कि जताया गया है, भारत के प्रधानमंत्री कार्यालय की नहीं है, विश्व बैंक की है। लेकिन हमारे प्रबुद्ध पत्रकारों में से किसी ने प्रधानमंत्री, मंत्री अथवा बैठक में उपस्थित मुख्यमंत्रियों से यह सवाल नहीं पूछा। इससे एक बार फिर पता चलता है, सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह मंडली के नेतृत्व में भारत का प्रधानमंत्री कार्यालय विश्व बैंक जैसी वैश्विक संस्थाओं का एक्सटेंशन कार्यालय बना हुआ है। वह ऐसा अड्डा है जहां भारत के कुछ अमीरों की समृद्धि बढ़ाते हुए एक तरफ देश के संसाधनों को लूटा जा रहा है और दूसरी तरफ देश की जनता पर कर्ज दर कर्ज पोता जा रहा है। भारत के हर क्षेत्र के ज्यादातर हैसियतमंदों को यह स्थिति स्वीकार्य होती जा रही है।
बताया गया है कि इस बार प्रधानमंत्री गंगा की सफाई को लेकर काफी गंभीर हैं। वे बैठकों के लिए ज्यादा समय नहीं दे पाएंगे इसलिए ‘राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण’ के साथ केंद्रीय वित्तमंत्री की अध्यक्षता में अलग से एक स्टैंडिंग कमेटी का गठन किया जाएगा जो जल्दी-जल्दी ‘मिशन’ के कार्यान्वयन की समीक्षा करेगी। एक स्टीयरिंग कमेटी का भी गठन किया जाएगा जो ‘मिशन’ जल्दी पूरा करने के लिए जरूरी विभिन्न परियोजनाओं को जल्दमजल्द स्वीकृति दिलाने का काम करेगी। आजकल देश में जनांदोलन शब्द काफी चल निकला है। उसकी धमक सरकार तक भी पहुंचती है। समस्त सरकारी इंतजाम का बयान करने के बाद मंत्री महोदय ने बताया है कि सरकार का इरादा ‘मिशन क्लीन गंगा’ को ‘पीपल्स मिशन’ यानी जन-अभियान बनाने का है। इसके लिए प्राधिकरण में आठ गैर-सरकारी लोग रखे गए हैं। ये जन, अभियान की सामाजिक ऑडिटिंग सहित मूल्यांकन करने और नजर रखने का दायित्व निभाएंगे। उपर्युक्त बैठक की ‘दि हिंदू’ में प्रकाशित खबर में प्राधिकरण में नामित 8 गैर-सरकारी लोगों में से 7 उपस्थित बताए गए हैं। हालांकि उनके नामों और बैठक में व्यक्त विचारों का उल्लेख खबर में नहीं है।
पर्यावरण मंत्री का कहना है कि इस बार गंगा की सफाई का काम पहले से ज्यादा व्यवस्थित और गंभीर रूप में किया जाएगा। वे पहले से अलग नए तरीके अपनाने की भी बात करते हैं। हालांकि फिलहाल करने के नाम पर बताया गया है कि गंगा किनारे के शहरों की गंदगी और कचरा, जो अभी बड़ी मात्रा में अशोधित रूप में गंगा में गिरता है, उसे शोधित करके गिरने दिया जाएगा। इसके लिए चालू मल-परिशोधन संयंत्रों को और तेज किया जाएगा और गहन प्रदूषण के स्थलों पर नए संयत्र लगाए जाएंगे। कहने वाले कहने के लिए कह सकते हैं कि शहरों की गंदगी और कारखानों का कचरा अगले दस सालों में परिशोधित होकर गंगा में गिरने लगेगा तो क्या उससे गंगा (या कोई दूसरी नदी) साफ मान ली जाएगी? गंगाजल की पवित्रता में युगों से आस्था रखती चली आ रही भारत की सवर्ण हिंदू आबादी को उस रूप में कम से कम गंगा को साफ मानने में अभी काफी समय लगेगा। हालांकि इस आबादी ने सदियों से अपने पाप धोते वक्त गंगा के गंदा होने की कभी चिंता नहीं की। शायद वह मानती रही है कि गंगा में धुले पाप उसके पवित्र जल में मिल कर पवित्र हो जाते हैं। चिंता उसे गंदगी और कचरे का भी नहीं है। शायद वह भी सब गंगा में गिर कर पवित्र हो जाता है! तभी न गंगा मैया के प्रदूषण में कमी होती है, न जैकारों में। इस पवित्रतावादी तर्क को हम आगे नहीं बढ़ाना चाहते। वैसे भी लोक में कहावत है, ‘ज्यादा छना पीने की बात करने वाला अंत में गंदा पीता है’। पवित्रता और विशुद्धता के दावे हमेशा से होते हैं और धरे रह जाते हैं। गंगा को पवित्र मानने वाली हिंदू आबादी का हाल सामने है। वह अपनी समस्त धार्मिक विभूतियों और आश्रमों समेत अभी भी गंगा की पवित्रता के नशे में जीती है और गंदा पानी पीती है!
................... जारी
O - प्रेम सिंह


