बीस ट्रिलियन डालर के हाई बुलेटस्पीड ख्वाब और
थकान....! दुकान मिली, केतली मिली, पर चाय नहीं....! चुल्हा ठंडा और चूल्हे वाली गयी घास लेने बल.....ग्राउंड जीरो से अर्थव्यवस्था का हाल हकीकत यही है। घोंघिया आंखि चियारने के लिए यही क्लिकवा काफी है बाकीर पूरा अर्थशास्त्र पिसकर पेट मां डालब त भी न समझा करै है कोय कि शुतुरमुर्ग रामजाद हो गइलन हमन वानी।
शांतता। रिफार्म मूसलाधार चालू आहे कि देश कि अर्थव्यवस्था बीस ट्रिलियन डालर की बनानी है और इस एजेंडा के खिलाफ जो बोले वे हिंदू राष्ट्र के घनघोर राष्ट्रद्रोही है। शूली वूली पुरानी सड़ियल तकनीक है। पलोनियम 210 किसी फाइव स्टार होटल मध्ये सुनंद
अपने प्रबल मित्र जिन्हें तारीफ से एलर्जी है,उनकी यह पंक्ति है और फोटोज भी उनकी यह साथ में हैं। उनकी इजाजत के बिना पहाड़ों के माली हालात बयां करती इस फिजां की परतों के साथ देश में स्त्री पक्ष की कुछ तस्वीरें नत्थी कर रहा हूं। कमल की तस्वीर और उसके लिखे शब्दों पर मेरा पुश्तैनी हक है।
माफ करना कमल भाई। रिलिवेंटफिजां बयां करती तुम्हारी तस्वीर की तारीफ किये बिना रहा वनहीं जात है हम तोके मसीहा बनाकर आपण दोस्त खोना ना चाहबै करै है। थोड़ बहुत तारीफ दीखे है तो मन में मत लेना यार। मन की बातें सुनत बाड़न कि नाही।
मैं, की धरती का पेड़, ......तुमसे बातें करना चाहता हूँ सूरज...!
कमल जोशी ने हमका तो टाइम मशीनवा मा बइठा दिहिस बाड़न के हमें तराई में गूलरभोज,बिंदू खत्ता,शक्ति फार्म और भाबर के तमाम पहाड़ी गांव याद आ गये।
भुला दिया गया चोरगलिया याद आ गइल।
1978 में जो हम देश व्यापी जलप्रलयमध्ये नैनीताल डीएसबी में एमए प्रथम वर्ष इंगलिश की परीक्षा देकर गिरदा और शेखर की गंगोत्री से वापसी के बाद उहां दौड़ पड़े और भूस्खलन मध्ये पैदल ही पैदल गढ़वाली गांवो को होकर पगडंडी होकर भटवाड़ी तक पहुंच गये गंगा की धार के साथ साथ,उसी बहाव में आ गये हम।
फिर जो उसके बाद नैनीताल लौटकर कुमायूं की पैदल यात्रा की,वे सारी यादें यकबयक ताजा हो गयी।
बाकी देश के विकास की चकाचौंध चाहे जो हो,अपनी देवभूमि हिंदुत्व के वसंत बहार मध्ये वहीं के वहीं है। बेदखल हो गइलन पहाड़ी सगरे।
रोजी रोजगार नइखे। पहाड़ी हुए जनमकर तो या तो बर्तन मांजो मैदान में जाकर जिसकी कथा शेखर जोशी ने दाज्यू में जीवंत कर दी रही।
या फिर कोसी केघटवार बनकर ख्वाब धेखत रहो कि जिंदगी की घाटी में कबहुं तो बहार अइहें। बाकीर थोड़ा पढ़लिखकर रोजगार मिलल तो साहब साहबन बनकर पहाड़ को अलविदा और नराई में ही बसा लियो हिमालय।
या फिर कुंमायूं गढ़वाल रेजीमेंट में दाखिला लेकर रंगरूट बनकर कदमताल करते रहो।
कुलै कामकाज हमारी इजाएं,वैणियां और भूलियां संभारे हैं।
एकदम मणिपुर का जैसा है हमार उत्तराखंड।
जहां काम धंधा के साथो मानीआर्डर इकोनामी में बेदखल एक एक इंच पहाड़,बेदखल ग्लेशियर,बेदखल नदी,बेदखल झील,बेदखल झरने,बेदखल नदी,बेदखल पर्यटन कारोबार के मध्य औरतें घासौ काटे हैं और रोजीरोटीका इंतजाम भी करें हैं।
नेपाल और सिकिकम मा भी यही किस्सा है। आदिवासी भूगोल की कथा भी यही है।
अब लगता है कि चैतू हम भी पेरुमल मुरुगन जैसा तोप बन रहिस है। जबहिं कुछधमाका करन चाहे तो तुरंते बिजली गुल या नेट कनेक्शन आफ।
बार बार एइसा होइबे करें।
ड्रोन की नजर भौते कड़क हुईबे करैं दिखे। लिखना शुरु किया ही था बाकीर किस्सा ब्लागवा मा तान तुनकर तानपुरा बनाकर कि सुर भांजेकै चाहे कि बिजली गुल। बिजली आइल कि नेयवा बंद।
डीएक्टिव सेंसर तो करत रहे चैतू।
काम को इन बना दिहस कि पाठक ससुरे खोजर रहबे लिंक।
अबही नयकी मुसीबत हो गयो रे।
कथे कथे गढ़वा खोदत रहबै तू,चैतू।
अबही समझ लो कि हम सगरे लोकां जो शांतता आहे,उकर खून एकही बा। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तलक।
कछु रंगकर्म एइसा तान रे भइया के ये ससुरे हमरे सारे जो जुड़वां भाई मालन मा बिछुड़ल हो,एक दूसरक का तिलवा दिखिके घोंघिया आंखि चियाकर गोलबंद हो जाई।
शायद गांजा उंजा पी लिब तो का कुछ करिश्मा हो जाई।
पण सविता रानी का राज ह।
बड़ा कड़ा पहरा बा।
खैनी भी चुरा चुरा कर खावै ह।
समझ मा न आवत कि का नशा करैं कि कछु करुश्मा हो जाई त हम समझा सकें अपन खून को तुहार हमार खूनो एकच आहे।
एकल वक्ता आमि।
एकल लिहिला व्यथा कथा।
जो बांचै सो तर जइहैं जो न बांचें सीधे नरकवास हो उनर,शास्त्रों में एइसा लिखकर का गजब ढा दीन्हीं कि ऊ सब अबहूं बेस्टसेलर बा।
कल शाम सविता बाबू ने एक पुरानी फिल्म चालू कर दिहिस।
संघर्ष वो दिलीपकुमार और बैजंती वाली संजीव कुमारौ आउर बलराज साहनी भी बाड़न। पांव में घुंघरु बांधे के वास्ते का मचल मचल कर दिलीपवा नाचै है।
जो हिरोइन बैजंती रहिस,वो तो मस्त कयामते है। हमारे बाप और उनर तमाम दोस्त भी उनर फैन रहे। हमारी तो महतारी लागै दीखे।
पण का करै,हम तो मधुबाला के फेनवा रहे। हिरिइनो का भाव शायद इसीलिए इतना ऊंच बा कि जिनगा मा मोहब्बत ससुरी होइबे ना करै। ना कोई हिरोइनवा मिलबे दीखे है। हम त बूढ़ा गइलन। जवानी मा नैनीताल मध्ये हिमपात बिच दरव्जाजा खिड़कियां खोलकर बइठे रहे किसी की आहट के लिए। आहटो न हुओ चैतू।
फिल्म का मजा य कि हर हिरोइन हमारी लागै है और सगरा ख्वाब साकार हो जइहैं धकाधक। पीपली लाइव बा।
सिल्वर स्करीनवा मा चुकुर टुकुर झांकके ख्वाब मा जिनरी गुजर दें किसी के साथ। कुल जमा किस्सा यहीच।
तो असल वो ख्वाब है और रंगकर्म तो दिलीप का होइबे करैं कि आहिस्ते आहिस्ते बोले हैं और पर्दा कांप जाये,करेजा चीरके लहूलुहान।
तनिको अमिताभो जैसा चीखे ना।
क्रांति व्रांति करैके चाहि तो धर्मेंदर की तरह चुन चुनकर कुतवा मारेकै ऐलान ना चाहि। दिलीपवा जैसी मजबूत इरादा जाहिर करैके चाहि।
त चैतू,ई करतब कइसे हो।
राजकपूर सौदागर रहे सपनो का। साबूत एकचड्रीम ग्रल जन गयो सो अब हिंदुत्व बैचो ह।
फिर राजकपूर का बापो निकला य हमार कल्कि अवतार। मस्त शोमैन। सुभाष घई आउर हम तो दिल दे चुकै सनम वाले तेल बेचै है उनर मुकाबले।
ससुरी अर्थव्यवस्था मैटिनी शो में तब्दील कर दिहिस। सपना सपना सपना। बाकी काम तमामो है। खबर ही न हुई कि कहां कहां बै कयामत घात लगाये बैठो हो। कयामत बी बैजंती लागै ह। के ऩईकी हिरोइन का नाव लै लो भइये कोय कि कोई फर्क न पंदै।
बीस ट्रिलियन कतो रकम।
बा गिनबो सकै का।
मिलबो सकै का।
सब भइया मोदी के कहे मुताबिक बीस ट्रिलियन डालर का मालिक मलकियन बन गइलन। का रंगकर्म दिखाइस ह।
पलाश विश्वास