कॉरपोरेट राजनीति के प्रचलित खेल में सबके अपने अपने अंबानी
कॉरपोरेट राजनीति के प्रचलित खेल में सबके अपने अपने अंबानी
राजनीति में आने के पहले केजरीवाल का अंबानी, फोर्ड फाउंडेशन था
‘समयांतर’ ने भी दिया अरविंद केजरीवाल को मंच
प्रेम सिंह
आज सुबह ‘समयांतर’ (मार्च 2014) खोला तो पाया कि पत्रिका ने ‘आप’ सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल के नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी को लिखे दो पत्रों को मंच स्तंभ से प्रकाशित किया है। अंक के संपादकीय और एक संवाददाता की रपट में भी अरविंद केजरीवाल की ‘वाजिब’ पड़ताल की सराहना की गई है। मुख्यधारा मीडिया में अरविंद केजरीवाल के लिए जगह ही जगह है। कहा ही जाता है कि वे मीडिया की मार्फत बने नेता हैं। इस अर्थ में उन्हें और नरेंद्र मोदी को सहोदर कहा जा सकता है। गैस घोटाले में मुकेश अंबानी के खिलाफ की गई केजरीवाल की एफआइआर और ‘समयांतर’ में प्रकाशित उनके दोनों पत्र मीडिया में खासी चर्चा का विषय रहे हैं। फिर भी ‘समयांतर’ को यह जरूरी लगा कि केजरीवाल के अंबानी विरोधी ‘संघर्ष’ को अपने खास पाठकों तक पहुंचाया जाए। जाहिर है, पत्रिका की समझ में यह जेनुइन संघर्ष है।
हमारा निवेदन है कि जब तक नवउदारवादी व्यवस्था के खिलाफ ‘एफआईआर’ दर्ज और उस पर निर्णायक कार्रवाई नहीं होती, तब तक उसके किसी एक या दूसरे खिलाड़ी के खिलाफ एफआइआर लिखाना न केवल सस्ती लोकप्रियता पाने की जानी-मानी कवायद है; इस व्यवस्था के खिलाफ जो थोड़ा-बहुत संघर्ष बचा है, उसे समाप्त करने की वृहद् योजना का हिस्सा है। हम सभी जानते हैं कॉरपोरेट राजनीति के प्रचलित खेल में सबके अपने अपने अंबानी हैं। राजनीति में आने के पहले केजरीवाल का अंबानी फोर्ड फाउंडेशन था। ‘कांग्रेस अंबानी की दुकान है’, इस बारे में हमारी जानकारी कम है। लेकिन यह सबकी जानकारी में है कि फोर्ड फाउंडेशन सीआईए की दुकान है और अमेरिका दुनिया में अपना वर्चस्व सीआईए की मार्फत कायम रखता है।
‘समयांतर’ से अपेक्षा यह थी कि वह अरविंद केजरीवाल से कहता कि क्राइम ब्यूरो के रिकार्ड में दर्ज लाखों किसानों की आत्महत्याएं नवउदारवाद के खिलाफ जान देकर लिखाई गईं प्राथमिकियां हैं। जानकारों के लिए इस बिंदु को और ज्यादा खोलने की जरूरत नहीं है। देश में अब बहस आत्महत्या के विरुद्ध नहीं, उनकी रफ्तार और संख्या पर होती है। जब आत्महत्याएं हमने स्वीकार ली हैं तो मंहगाई, बेरोजगारी, कुपोषण, बाल मजदूरी, विस्थापन आदि अपने आप स्वीकृत हो जाते हैं।
‘समयांतर’ यह भी कह सकता था कि केजरीवाल नरेंद्र मोदी को 1992 में हुए बाबरी मस्जिद ध्वंस और 2002 में गुजरात में मुस्लिम नागरिकों के राज्य प्रायोजित नरसंहार पर सवाल करते हुए पत्र लिखें। लेकिन शायद ‘समयांतर’ को भी पता है कि केजरीवाल ऐसा नहीं करेंगे। क्योंकि दोनों का समर्थन आधार एक है- कॉरपोरेट घराने और नवउदारवाद से लाभान्वित मध्यवर्ग, जो भारत में ज्यादातर अगड़ी सवर्ण जातियों से बना है। दोनों या उनमें से किसी एक को नाराज करके नेता नहीं बना जा सकता।
60 के दशक तक राजनीति और विचार की दुनिया में यह आग्रह बना रहा कि मध्यवर्गीय चरित्र का जनचरित्र में रूपांतरण हो। उसी से समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की सही दिशा और विकास संभव है। गांधी तो यह मानते ही थे, मार्क्सवाद को भी उपनिवेशवादी शोषण का शिकार रहे तीसरी दुनिया के देशों के क्रांतिकारी विचारकों और नेताओं की यह नई देन थी। लेकिन केजरीवाल मंडली द्वारा प्रस्तावित ‘नई राजनीति’ में मेहनतकश वर्ग पर मध्यवर्ग का अधिनायकत्व स्थापित हो गया है। उसे जमीनी संघर्ष तो करना ही नहीं है, आंतरिक संघर्ष से भी पूरी तरह निजात पा ली गई है। यह राजनीतिक नुस्खा गांधीवादियों, समाजवादियों और मार्क्सवादियों को एक साथ पसंद आया है।
नई आर्थिक नीतियों के बाद शुरू आर्थिक और फिर राजनीतिक गुलामी के खिलाफ सच्चा संघर्ष करने वाले कतिपय लोग केजरीवाल के पूंजीवाद पर फिदा हो गए हैं। उनमें से कुछ ने लोकसभा चुनाव का टिकट भी ले लिया है। सुनने में आया कि छ्तीसगढ़ की ‘नक्सल’ सोनी सोरी और मणिपुर की ‘गांधीवादी’ इरोम शर्मीला को भी टिकट की पेशकश की गई। वे दोनों क्यों नहीं ‘आप’ की प्रत्याशी हैं, हमें पता नहीं। फर्जी जनांदोलनकारी भी ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ का जयकारा बोलते हुए टिकट पाने की होड़ में शामिल हैं। जिन्होंने टिकट मार लिया है उनके दांत अनार के दानों की तरह खिले हैं और जो नहीं मार पाए हैं वे सौ बीमारों के बीमार नजर आते हैं।
शुरुआत में दिखाने के लिए नवउदारवाद विरोधी चेहरे पूंजीवाद की सुरक्षा और आगे मजबूती के लिए काफी काम के हैं। काफी पहले से एनजीओ की मार्फत यह काम होता रहा है। अब राजनीति की मार्फत भी हो रहा है। कांग्रेसी राज में भी यह काम कुछ न कुछ होता था। 2004 के लोकसभा चुनाव में मेधा पाटकर को कांग्रेस की मदद से महाराष्ट्र से लड़ाने की बात चली थी। सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार समिति में कई धुंरंधर जनांदोलनकारी नवउदारवाद को मानवीय चेहरा प्रदान करने के काम में जुटे रहे हैं।
केजरीवाल में अगर कुछ सेंस ऑफ ह्यूमर होगा तो अकेले में मुस्कुराता जरूर होगा कि नवउदारवाद के बड़े विद्रोही बनते थे, एक टिकट के बदले में सारी फू-फां हवा हो गई! उद्योगपतियों के परिसंघ में केजरीवाल बाकायदा घोषणा भी कर चुके हैं कि उनका लक्ष्य ‘सच्चा’ पूंजीवाद कायम करना है। सच्चा बोले तो जैसा अमेरिका में! लेकिन गांधीवादी, समाजवादी और मार्क्सवादी उन्हें अपना काम करने वाला बता रहे हैं। महात्मा गांधी के पौत्र उन्हें महात्मा के बराबर और मेधा पाटकर प्रधानमंत्री पद का सबसे उम्दा शख्स बता रही हैं। साथ में हमें बताया जा रहा है कि राजनीति में यह चिंतन और नैतिकता का अभी तक का सबसे ऊंचा धरातल है!
ऐसे लोगों ने उन हजारों कार्यकर्ताओं के विश्वास को धोखा दिया है जो पिछले 20-25 सालों से वैकल्पिक राजनीति की जद्दोजहद में इनका साथ दे रहे थे। उनमें कई इस कदर साधनहीन रहे हैं कि पत्ते तक खाकर गुजारा किया है। कई मानसिक रोग का भी शिकार हुए हैं। नवउदारवाद द्वारा तेजी और निर्ममता से बाहर फेंकी जाने वाली विशाल आबादी के साथ तो यह अभी तक का बड़ा धोखा है ही।
बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद मुसलमानों का वोट लूटने के लिए जिस तरह की कवायद की जाती है, उसे देख कर हमने कुछ साल पहले कहा था कि धर्मनिरपेक्षता की फ्लॉपी करप्ट हो चुकी है। अब लगता है समाजवाद की फ्लॉपी को भी वायरस चट कर गया है। लोकतंत्र भीड़तंत्र में बदला जा रहा है। अगर इस लोकसभा चुनाव में ‘आप’ को आंशिक सफलता भी मिल जाती है तो अगला दौर जंगलों में छिप कर लड़ने वालों को ‘नई राजनीति’ में लाने का हो सकता है। सुना है उधर से ‘आप’ की कुछ आवाजें आने भी लगी हैं।
मनमोहन सिंह भरी-पूरी विरासत छोड़ कर जा रहे हैं। वे खुश होंगे कि जिस तरह खुले में काम करने वाले ‘विचारधारावादियों’ को समझ आ गई है; नवउदारवाद के लिए सबसे बड़ा खतरा नक्सलियों को भी एक दिन आ जाएगी!


