कोटा तो सिर्फ एक नमूना भर है इस त्रासदी का, अगर हम इसे एक त्रासदी मानें तो।
लोकेश मालती प्रकाश
“नदियों को बहते हुए देखो...गिलहरियों और रंग-बिरंगी तितलियों को देखो और चिड़ियों का चहचहाना सुनो...”, “...तनाव की स्थिति में आसपास के लोगों को कार्टून के पात्रों की तरह देखो (और) तुम मुस्कराने और हंसने लगोगे...” कोटा जिले के कलेक्टर ने शहर में मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे बच्चों को हाल ही में चिट्ठियां लिख कर ये बातें कहीं।
पिछले महीने ही कोटा प्रशासन ने सभी कोचिंग संस्थानों के लिए एक दिन की साप्ताहिक छुट्टी अनिवार्य कर दी। कोटा कलेक्टर ने ये कदम पिछले साल शहर में कोचिंग पढ़ने आए छात्रों द्वारा की गई लगातार आत्महत्याओं के बाद उठाया। कोटा में कोचिंग करने आए विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्याओं का मामला गए साल थोड़े समय के लिए उछला जरूर लेकिन, जैसा कि अपेक्षित है, ये व्यापक बहस का मुद्दा नहीं बन पाया। शायद देश कोटा में पढ़ने आए विद्यार्थियों को कार्टून के किसी पात्र की तरह ही देखता है जिनका जीना-मरना क्षणिक आवेग का जरिया ही होता है किसी विमर्श का प्रेरक नही।
वैसे ये बात सिर्फ कोटा की हो ऐसा नहीं है। राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2013 में पूरे देश में लगभग 2500 आत्महत्याओं की वजह “परीक्षा में असफलता” थी। कोटा तो सिर्फ एक नमूना भर है इस त्रासदी का, अगर हम इसे एक त्रासदी मानें तो।
हो सकता है आप विद्यार्थियों पर परीक्षा के दबाव को कम करने के लिए कोटा कलेक्टर द्वारा किए गए उपायों की तारीफ करें। बेशक कीजिए। कलेक्टर की संवेदनशीलता की तारीफ होनी चाहिए मगर संवेदनशीलता का तकाज़ा क्या ये भी नहीं है कि समस्या के बारे में कम-से-कम सही सवाल तो उठाए जाएं? अगर हां, तो कोटा के संदर्भ में सही सवाल क्या हैं?
सवाल ये है कि परीक्षा या कैरियर के दबाव में बच्चे आत्महत्या जैसा कदम क्यों उठाते हैं? सनद रहे कि आमतौर पर आत्महत्या अचानक नहीं की जाती बल्कि व्यक्ति निराशा, भय, कुंठा, अवसाद जैसी मानसिक परेशानियों की अनेक पायदानों पर चढ़ता हुआ विकल्पहीनता की इस अंतिम कड़ी तक तक धकेल दिया जाता है। आत्महत्याओं की खबरें तो फिर भी अखबारों में जगह पा जाती हैं मगर दूसरे प्रकार के मानसिक प्रभावों को तो गंभीर विमर्श का मुद्दा भी नहीं माना जाता है जबकि इनका दूरगामी असर न सिर्फ व्यक्ति पर बल्कि पूरे समाज पर पड़ रहा है।
परीक्षा या कैरियर का दबाव असल में शिक्षा और नौकरी के बाज़ार की निर्मम चक्की से उपजता है जिसका सीधा संबंध अर्थव्यवस्था और उसके अनुकूल बने सामाजिक मूल्यों से हैं जिसके जाल को समझे बिना मौत के फंदे में फंसे बच्चों व युवाओं को नहीं बचाया जा सकता चाहे कितनी भी संवेदनशीलता क्यों न दिखाई जाए।

शिक्षा व्यवस्था और परीक्षा प्रणाली को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए
मिसाल के लिए, कोटा में हर साल लगभग एक लाख से भी ज्यादा बच्चे जिन मेडिकल व इंजीनियरिंग की परीक्षाओं की तैयारी के लिए आते हैं उनके लिए अधिकतम शैक्षणिक योग्यता 12वीं तक की पढ़ाई ही है। अगर बारहवीं तक की पढ़ाई बच्चों में इनसे जुड़े विषयों की अवधारणात्मक समझ का निर्माण किया जाए तो अलग से कोचिंग जैसी जानलेवा ‘साइड-एफ़ेक्ट’ वाली गोलियों की जरूरत पड़नी ही नहीं चाहिए। लेकिन ऐसा हो रहा है तो शिक्षा व्यवस्था और परीक्षा प्रणाली को कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए। देश के ज्यादातर स्कूलों की हालत (निजी व सरकारी समेत) इतनी लचर है कि बच्चे जैसे-तैसे केवल पास होते हैं विषय की अवधारणात्मक समझ तो बड़े दूर की कौड़ी है। इस पर सोने पे सुहागा की तरह हमारी लचर शैक्षणिक पद्धतियां जिनमें आलोचनात्मक व तार्किक सोच, प्रश्नाकुलता और अवधारणात्मक स्पष्टता की बजाय सारा जोर तथ्यों को रट कर सही जवाब देने पर होता है।
ऐसे माहौल में परीक्षाएं दरअसल अर्जित ज्ञान से ज्यादा रटे हुए तथ्यों को सही समय में सही तरीके से उपयोग करने के कौशल की जांच से ज्यादा कुछ नहीं करती। यहीं पर परिदृश्य में कोचिंग संस्थानों का प्रवेश होता है जो परीक्षा में पास होने के कौशल सिखाते हैं! कैरियर की चूहा-दौड़ में ये बड़ी चीज है। एक रपट के अनुसार अकेले कोटा में कोचिंग उद्योग सालाना 2000 करोड़ रुपए से ज्यादा का है।
अब इस बाज़ार के दूसरे पहलू पर आते हैं। एक रपट के अनुसार गए साल अखिल भारत स्तर के प्री-मेडिकल परीक्षा की 3700 सीटों के लिए छः लाख से ज्यादा विद्यार्थियों ने परीक्षा दिया! यही हाल इंजीनियर-कलेक्टर से लेकर क्लर्क तक की परीक्षाओं का है। आखिर ‘प्रतियोगी परीक्षाओं’ में ‘प्रतियोगिता’ इतनी तीखी क्यों है? क्योंकि नौकरियों या शिक्षा संस्थानों में सीटों की एक कृत्रिम कमी बना कर रखी गई है। उदाहरण के लिए, पूरे देश में मेडिकल संस्थानों में लगभग पचास हजार सीटें सालाना दाखिले के लिए उपलब्ध हैं। इनमें से लगभग आधी ही सरकारी मेडिकल कॉलेजों की हैं जहां कम फ़ीस पर बेहतर पढ़ाई के मौके होते हैं शेष निजी कॉलेजों की सीटे हैं जहां कीमते बेहद महंगी हैं और गुणवत्ता भी कमतर है। ऐसा क्यों नहीं है कि ये सारी पचास हजार सीटें सरकारी कॉलेजों की हों जिनमें अच्छी पढ़ाई व शोध की सुविधाएं समान रूप से उपलब्ध हो और जरूरत के अनुसार ये सीटें बढ़ाई क्यों न जाएं जबकि देश में डॉक्टरों की भारी कमी है? मेडिकल या इंजीनियरिंग की पढ़ाई कठिन व चुनौतीपूर्ण हो ये तर्कसम्मत है मगर उनके दाखिले की प्रतियोगिता का कठिन होना एक कृत्रिम व गैरतार्किक बाधा है जिसका उद्देश्य अधिक से अधिक प्रतियोगियों की छंटनी करना भर है।
ये बात दूसरी जगहों पर भी लागू होती है। एक अनुमान के अनुसार, भारत में प्रति एक लाख जनसंख्या पर 1622 सरकारी कर्मचारी उपलब्ध हैं जबकि अमेरिका में ये आंकड़ा 7681 का है। विभिन्न सेवाओं में कर्मचारियों की कमी का सीधा असर सेवाओं की गुणवत्ता पर पड़ता है, लेकिन इसके बावजूद ये मिथक खड़ा किया गया है कि भारत के सार्वजनिक क्षेत्र में जरूरत से ज्यादा कर्मचारी हैं। अगर सभी सेवाओं में उतने लोग हों जिनकी वास्तव में जरूरत है तो नौकरियों के लिए मची होड़ की हवा निकल जाएगी। लेकिन देश के कर्णधारों को ये मंजूर नहीं आत्महत्याएं मंजूर हैं।
ये हमें समस्या के तीसरे पहलू की तरफ ले जाती है। रोज़गारों की ये कृत्रिम कमी आर्थिक विकास के उस मॉडल की देन है जिसमें निजी क्षेत्र के मुनाफ़े के लिए सार्वजनिक क्षेत्र को लगातार कमजोर किया गया है। ‘होड़’ इसी आर्थिक मॉडल की केंद्रीय मान्यता है जिसे बनाए रखने के लिए वास्तविक या आभासी ‘कमी’ हमेशा बनाए रखी जाती है और समाज की वास्तविक जरूरतों से आंख मूंद लिया जाता है।
चूंकि समाज की जरूरतों से अर्थव्यवस्था का मुंह मोड़ कर रखा गया है ज़ाहिर है कि सफलता के मापदंड भी इसी अनुरूप होंगे। यानी जीवन में सफलता या असफलता का भी कोई वास्तविक संबंध इससे नहीं है कि व्यक्ति ने समाज के हित में क्या किया बल्कि इससे है कि इस असमान प्रतियोगिता में व्यक्ति अपने हित-लाभ कितना साध पाया। ये ‘प्रतियोगिता’ का दूसरा चेहरा बल्कि कहें तो असल चेहरा है जिसका सीधा संबंध सामाजिक व आर्थिक गैरबराबरी से है।
कोटा के बच्चों को खुश व तनावमुक्त रहने की सलाह दी जाए, अच्छी बात है। मगर जब तक इन मूलभूत सवालों से टकराने का साहस हम नहीं करेंगे तब तक ये दिखावे की नेकनीयती से ज्यादा कुछ नही होगा जबकि हमारे बच्चे व युवा कार्टून पात्रों की तरह असंभव करतबों की कोशिश में जान देते रहेंगे।
लोकेश मालती प्रकाश, "शिक्षा का अधिकार" कार्यकर्ता हैं।
(published in Subah-savere newspaper_13jan2016)

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