कुलदीप कुमार

हड़प्पा संस्कृति और वैदिक संस्कृति को एक ही मानने वाले भगवान सिंह ने प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोसंबी पर एक पुस्तक लिखी है ‘कोसंबी: कल्पना से यथार्थ तक’। 401 पृष्ठों की इस पुस्तक को आर्यन बुक्स इन्टरनेशनल, पूजा अपार्टमेंट्स, 4 बी, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-2 ने इसी वर्ष छापा है और इसका मूल्य 795 रु॰ है।

पुस्तक के ब्लर्ब में कहा गया है: “कोसंबी का नाम दुहराने वालों की कमी नही, उन्हें समझने का पहला प्रयत्न भगवान सिंह ने किया। वह कोसंबी के शिष्य हैं परंतु वैसे शिष्य जैसे ग्रीक परंपरा में पाए जाते थे।” इन दो वाक्यों में दो दावे किए गए हैं। पहला यह कि भगवान सिंह से पहले किसी ने भी कोसंबी को समझने का प्रयास नहीं किया, और दूसरा यह कि वह कोसंबी के शिष्य हैं, वैसे ही जैसे ग्रीक परंपरा में हुआ करते थे। कोसंबी के इस स्वघोषित शिष्य के अपने “गुरु” के बारे में क्या विचार हैं, यह जानना दिलचस्प होगा। भगवान सिंह कोसंबी के बारे में अपने उद्गार कुछ यूं व्यक्त करते हैं: “...वह आत्मरति के शिकार थे, उन्हें अपने सिवाय किसी से प्रेम न था, न अपने देश से, न समाज से, न भाषा से, न परिवार से। उनका कुत्ता अवश्य अपवाद रहा हो सकता है। इसीलिए लोग उनसे डरते भले रहे हों, उन्हें कोई भी प्यार नहीं करता था। उनके अपने छात्र, पत्नी और बच्चे तक नहीं।” (पृ॰ 120)

कोई भगवान सिंह से पूछे कि जिस व्यक्ति को न अपने देश से प्यार था, न समाज से, न भाषा से और न परिवार से, आप ऐसे विलेन सरीखे व्यक्ति के चेले क्यों और कैसे बन गए जो अगर किसी को प्यार करता भी था तो शायद अपने कुत्ते को! ज़रा सोचिए, क्या ऐसा व्यक्ति किसी का भी गुरु बनने लायक है? संदेह का लाभ देते हुए कहा जा सकता है कि भगवान सिंह कोसंबी के ज्ञान, इतिहासलेखन और प्रतिभा के प्रशंसक हैं और इसलिए उन्हें अपना “गुरु” मानते हैं। लेकिन इस अनुमान को भी इसी पृष्ठ पर ध्वस्त करते हुए कहा गया है (और ऐसे लालबुझक्कड़ी निष्कर्ष इस किताब के लगभग हर पृष्ठ पर मिल जाएंगे): “कोसंबी अपनी यशोलिप्सा के लिए इतिहास लेखन कर रहे थे, इतिहास में न तो स्वतः उनकी रुचि थी, न इतिहास की समझ।” चलिये मान लिया कि कोसंबी तो यशोलिप्सा के कारण इतिहास लेखन कर रहे थे पर आपने किस लिप्सा के कारण ऐसे व्यक्ति पर चार सौ पृष्ठों की पुस्तक लिख मारी जिसे न इतिहास में रुचि थी और न उसकी समझ? और, आपने ऐसे व्यक्ति को अपना ‘गुरु’ क्यों घोषित कर दिया?

दरअसल हकीकत यह है कि अपने को कोसंबी का शिष्य कहना भगवान सिंह की मार्क्सवाद-विरोधी रणनीति का अंग है। इसी रणनीति के तहत भगवान सिंह मार्क्सवादी होने का दावा करते हैं और अजय तिवारी जैसे उनके प्रशंसक ‘नया ज्ञानोदय’ में लंबी पुस्तक समीक्षा लिखकर उन्हें मार्क्सवादी होने का प्रमाणपत्र भी देते हैं। यह सब ढोंग रचने के बाद कोसंबी का यह स्वघोषित “मार्क्सवादी शिष्य” उनके बारे में नितांत घृणा से भरी हुई एक ऐसी पुस्तक लिखकर अपनी भड़ास निकालता है जिसके प्रत्येक पृष्ठ पर उसके पूर्वाग्रह और दुर्भावना के प्रमाण बिखरे हुए हैं। कोसंबी के चरित्रहनन का यह प्रयास इसलिए भी अत्यधिक घिनौना है क्योंकि उनकी मृत्यु 1966 में हुई थी और तब से अब तक लगभग आधी सदी बीत चुकी है। भगवान सिंह बताते हैं कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के गणित विभाग में शिक्षक के रूप में कार्य करते समय कोसंबी की मित्रता नूर-उल-हसन के साथ हो गई। “लेकिन कोसंबी तब तक एक इतिहासकार के रूप में मृत या उपेक्षित थे जब तक नूर-उल-हसन शिक्षामंत्री नहीं बने और उसके बाद सभी सरकारी संस्थाओं और विश्वविद्यालयों में कोसंबी को प्राचीन भारत का इतिहास और प्राचीन भारत को कोसंबी बनाने का अभियान-सा आरंभ हो गया।” (पृ॰12)

29 जून, 1966 को जब दामोदर धर्मानंद कोसंबी की मृत्यु हुई, तब वे पूरे साठ साल के भी नहीं हुए थे। उन्हें एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के गणितज्ञ, इतिहासकार और संस्कृतज्ञ के रूप में ख्याति प्राप्त थी। 9 जुलाई, 1966 को पूना के फर्ग्यूसन कॉलेज में उनकी श्रद्धांजलि सभा आयोजित की गई जिसकी अध्यक्षता पूना विश्वविद्यालय के कुलपति ड़ी॰ आर॰ गाडगिल ने की॰ इसके कुछ समय बाद उनकी स्मृति में एक ग्रंथ निकालने की योजना बनी और इसके लिए गठित समिति की पहली बैठक 14 मार्च, 1968 को दिल्ली में वी॰वी॰ गिरि की अध्यक्षता में हुई। उस समय तक गिरि भारत के उपराष्ट्रपति बन चुके थे। हालांकि यह ग्रंथ 1974 में प्रकाशित हुआ लेकिन गिरि द्वारा लिखी गई इसकी भूमिका पर 28 मई, 1970 की तिथि छपी हुई है। तब तक नूर-उल-हसन शिक्षामंत्री नहीं बने थे। यह कहना कि कोसंबी नूर-उल-हसन के शिक्षामंत्री बनने के कारण इतिहासकार माने गए, भगवान सिंह की दुर्भावना ही प्रदर्शित करता है। यहाँ यह याद दिला दें कि न तो गाडगिल मार्क्सवादी थे और न ही गिरि।

ज़रा यह भी देखते चलें कि ग्रीक परंपरा में शिष्य कैसे होते थे। जहां तक इस लेखक की जानकारी है, वे वैसे ही होते थे जैसे हमारे उपनिषदों में पाये जाते हैं। वे गुरु के प्रति असीम श्रद्धा रखते हुए भी उसके विचारों को बिना सोचे-समझे स्वीकार नहीं करते थे। यदि कोई असहमति हुई तो उसे खुलकर व्यक्त करते थे, गुरु से प्रश्न करते थे, गुरु के विचार का खंडन करते थे और इस प्रक्रिया में ज्ञान का संवर्धन और विस्तार भी करते जाते थे। प्लेटो और उनके शिष्य अरस्तू के विचार परस्पर विरोधी हैं। लेकिन अरस्तू ने कभी भी प्लेटो के प्रति किसी प्रकार का अनादर प्रदर्शित नहीं किया। प्राप्त प्रमाणों के अनुसार अरस्तू ने हमेशा प्लेटो के प्रति अगाध श्रद्धा प्रकट की। हाँ, यह ज़रूर कहा: “मुझे प्लेटो बहुत प्रिय हैं, लेकिन सत्य उनसे भी अधिक प्रिय है।” और प्लेटो अपने इस विद्रोही शिष्य के बारे में क्या कहते थे? वे बहुत स्नेह के साथ कहा करते थे: “अरस्तू मुझे लात मार रहा है, वैसे ही जैसे नवजात घोड़ा अपनी माँ को मारता है।” अरस्तू 18 वर्ष की उम्र में प्लेटो की अकादेमी में भर्ती हुए थे जब प्लेटो साठ साल के थे। उनके बीच स्नेह संबंध इतना प्रगाढ़ था कि अरस्तू ने अकादेमी तभी छोड़ी जब प्लेटो का निधन हो गया। क्या भगवान सिंह वाकई इसी परंपरा वाले शिष्य हैं?

भगवान सिंह की यह पुस्तक अजूबों से भरी है। पुस्तक के शीर्षक में भी और पुस्तक के भीतर भी कोसंबी का पूरा नाम तक नहीं दिया गया है। तेरहवें पृष्ठ पर जब अचानक आचार्य कोसंबी का ज़िक्र आता है तो पाठक चौंक जाता है। कुछ वाक्यों के बाद धर्मानंद का उल्लेख होता है और अगले पृष्ठ पर यह कि “आचार्य जी अपने साथ दामोदर धर्मानंद को भी” अमेरिका ले गए थे। अब यह समझना पाठक की ज़िम्मेदारी है कि आचार्य कोसंबी ही धर्मानंद हैं और उनके पुत्र दामोदर धर्मानंद ही वह व्यक्ति हैं जिनके बारे में यह पुस्तक लिखी गई है। इसके बाद पूरी पुस्तक में सिर्फ कोसंबी कहकर ही काम चलाया गया है।

दरअसल भगवान सिंह को इतिहास पर कलम चलाने की प्रेरणा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए पुरातत्वविद एवं इतिहासकार स्वराज प्रकाश गुप्त से मिली और उन्हीं के मार्गदर्शन में उन्होंने तथाकथित ‘शोध’ किया। इसलिए आश्चर्य नहीं कि अपने को मार्क्सवादी कहने वाले भगवान सिंह मार्क्सवादी इतिहासलेखन को साम्राज्यवादी इतिहासलेखन की धारा के अंतर्गत रखते हैं और रामशरण शर्मा, इरफान हबीब और रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों को साम्राज्यवादी इतिहासलेखन का प्रतिनिधि मानते हैं।

क्या आपने कभी किसी विद्वतापूर्ण किताब में उद्धरण का स्रोत-संदर्भ ‘इन्टरनेट’ और ‘विकीपीडिया’ पढ़ा है? यदि नहीं पढ़ा तो इस पुस्तक में पढ़ लीजिये। शोध की दुनिया में यह एक ऐसा कीर्तिमान है जिसे कभी ध्वस्त नहीं किया जा सकेगा। भगवान सिंह भले ही न जानते हों, पर इन्टरनेट का इस्तेमाल करने वाला बच्चा भी जानता है कि विकीपीडिया जानकारी का विश्वसनीय स्रोत नहीं है। लेकिन दामोदर धर्मानंद कोसंबी पर प्रहार करने के लिए जहां से भी हथियार मिले, भगवान सिंह लेने को तैयार हैं। इसी क्रम में उन्होंने इन्टरनेट से एक संस्मरण उठा लिया। यह संस्मरण आर॰ पी॰ नेने का है जो उन्होंने अरविंद गुप्ता को सुनाया और गुप्ता ने सुने हुए के आधार पर उसे लिपिबद्ध किया। भगवान सिंह यह बताने की ज़रूरत नहीं समझते कि आर॰ पी॰ नेने और अरविंद गुप्ता कौन हैं, और नेने का संस्मरण सर्वाधिक प्रामाणिक कैसे है क्योंकि संस्मरण तो कोसंबी की पुत्री मीरा, प्रसिद्ध इतिहासकार ए एल बैशम, कोसंबी के मित्र संस्कृतज्ञ डैनियल एच॰ एच॰ इंगैल्ल्स और वी॰ वी॰ गोखले, भारतीय पुरातत्वशास्त्र के भीष्मपितामह एच॰ ड़ी॰ सांकलिया, प्रसिद्ध वैज्ञानिक जे॰ ड़ी॰ बर्नाल और पाकिस्तान के प्रसिद्ध गणितज्ञ एम॰ रियाजुद्दीन सिद्दीकी (1931 से 1950 तक हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय के कुलपति) ने भी लिखे हैं।