शमशाद इलाही शम्स
16 मार्च यूरोपीय राजनीतिक इतिहास के एक महत्वपूर्ण पृष्ठ के रूप में अंकित हो चुका है। क्रीमिया में इस दिन जनमत संग्रह हुआ, 80 प्रतिशत वोट पड़े जिसमें 96 प्रतिशत मतदाताओं ने उक्रेन से अलग होकर रूस के साथ विलय होने की मोहर लगा दी। दो दिन के भीतर रूसी राष्ट्रपति व्लादमिर पुतिन ने क्रीमियाई संसद के प्रस्ताव पर अपनी मंजूरी के दस्तखत कर दिए। इस घटनाक्रम पर अमेरिका, यूरोपीय समुदाय की तरफ से तीखी प्रतिक्रियाएं हुईं और रूस पर विभिन्न किस्म के प्रतिबन्ध लगाने की घोषणायें भी हुईं।
क्रीमियाई घटनाक्रम को समझने के लिए पिछले दो तीन महीनों से चल रही उक्रेन की राजनीतिक हलचल और उसके स्वरूप को समझना भी जरूरी है लेकिन उसके पूर्व यूरोपीय इतिहास की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना का जिक्र करना यहाँ बेहद प्रासंगिक है। सोवियत विखंडन के उपरांत पूर्वी यूरोपीय देश युगोस्लाविया को अपने आतंरिक सामुदायिक खूनी संघर्ष का सामना करना पड़ा और देश में गृह युद्ध छिड़ गया। इसी संघर्ष में नाटो-अमेरिका ने युद्धक कार्यवाही भी की थी, 78 दिनों के हवाई हमलो के बाद सर्बिया ने कोसोवो से अपनी सेनायें वापस बुलाई और कोसोवो नाम का एक नया देश बना दिया गया। कोसोवो की आवाम नाटो-अमेरिका यूरोपीय समुदाय के पक्षधर थे लिहाज़ा 11 जून 1999 को इन्ही शक्तियों के आह्वान पर सयुक्त राष्ट्र संघ ने एक प्रस्ताव पारित कर, एक नए राष्ट्र को अनुमोदित कर दिया। तब तत्कालीन रूसी हुकूमत ने इसका विरोध किया था और आगाह किया था ‘यह निर्णय भविष्य में तुम्हे जरूर दंश देगा’। क्रीमिया और कोसोवो की लगभग सामान आबादी है जो करीब 20 लाख है। कोसोवो की स्वतंत्रता के गुणगान करने वाली ताकतें आज क्रीमिया के जनमत संग्रह को जनतंत्र की हत्या का नाम देकर खुद अपने मुँह को काला कर रहे हैं। अमेरिका और पश्चिमी यूरोप की साम्राज्यवादी ताकतें राजनीतिक इतिहास में अपने दोहरे चरित्र और मापदंडो के ग्रसित क्रियाकलाप जग जाहिर है लेकिन कार्पोरेट प्रचार माध्यमों की भयावह मारक क्षमता के चलते वह अपने उजले रूप को दुनिया के समक्ष रखने में आज भी कामयाब हैं।
कोसोवो के पसेमंजर में अब उक्रेन के मौजूदा राजनीतिक हालात पर नज़र डालना और उसके चरित्र को समझना आसान है और जरुरी भी। उक्रेन के नाम से पाठको की स्मृति में ‘संतरा क्रांति’ का लफ्ज़ जरूर गर्दिश करना चाहिए। अमेरिकी साम्राज्यवादी प्रायोजित क्रांतियों की सबसे पहली कर्मभूमि यही देश था जिसके तहत साम्राज्यवादी शक्तियों का मंसूबा यह था कि इस क्षेत्र (रूस सहित) में अपने झोला पकडुओं द्वारा कठपुलती सरकारे जनसंघर्षों के माध्यम से बैठाई जा सकें ताकि अमेरिकी कार्पोरेट इन देशो में घुस कर जम कर लूटपाट कर सकें। रूसी प्रचार माधयमो के सूत्रों के अनुसार विक्टोरिया नुलैंड जैसे वरिष्ठ राजनायिकों ने ऐसे प्रोजेक्ट्स पर अरबों डालर खर्च किये हैं जिसका उद्देश्य कीव में अपनी मन मुताबिक़ सरकार का गठन कराना था। निवर्तमान उक्रेन के राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच ने ‘यूरोपीय समुदाय सहयोग’ के साथ संधि पर दस्तखत करने के बजाये रूसी सरकार से अपने आर्थिक संकट से निपटने के लिए कर्ज लेने पर सहमति प्रकट की थी। इस सवाल पर कीव में प्रदर्शन हुए और दंगाईयो से निपटने के लिए सरकार ने गोली चलाई, कुछ लोग मारे गए। फिर उसके बाद लाशों पर राजनीति कर पूरे देश की आवाम को उद्वेलित किया गया (लोगो में गुस्से का कारण पिछले 15 सालों राजनीतिज्ञों द्वारा किया गया व्यापक भ्रष्टाचार भी प्रमुख था) परिणामस्वरूप विक्टर यानुकोविच को देश छोड़ना पड़ा। देश की संसद ने उन्हें पदच्युत किया और नए चुनाव मई तक कराने का ऐलान किया।
युक्रेन की आवाम के इस रूस विरोधी उत्तेजना का असर क्रीमिया में होना स्वाभाविक था जहाँ रूसी मूल की आबादी 58 प्रतिशत है (24% उक्रेनी, 12% तातारी मुस्लिम)। क्रीमिया 1783 से अधिकांश समय रूसी साम्राज्य का हिस्सा रहा है। बोल्शेविक क्रांति के बाद 1921 में इसे सोवियत संघ का हिस्सा बनाया गया और 1954 में निकिता ख्रुशचेव ने इसे उक्रेन को दे दिया। अभी तक क्रीमिया के पास अपनी स्वायत्त संसद भी है। क्रीमिया के एक बड़े शहर काला सागर तट पर बसे सेवास्टोपोल में रूस का एक सौसैनिक अड्डा सोवियत संघ के ज़माने से कायम है। उक्रेन के अलग होने पर रूस इस नौसेनिक अड्डे की लीज का भाड़ा 94 मिलियन डालर प्रतिवर्ष अदा करता है। उक्रेन में तख्ता पलट के दौरान रूस को अपने फ़ौजी ठिकाने की सुरक्षा सुनिश्चित करना तकर्संगत और व्यावहारिक कदम था जिसे पश्चिमी प्रचार माध्यमों ने फ़ौजी अतिक्रमण की संज्ञा के साथ कुप्रचारित किया। गाँव के प्रधान पर हमला होने पर वह भी सबसे पहले अपने हथियारों की चिंता करता है, रूस का अपने नौसैनिक अड्डे और हथियारों की हिफाज़त करना उसकी चिंता करना सर्वथा जायज है जबकि उसे यह स्पष्ट दिख रहा था कि आन्दोलनकारियों का रुख दक्षिण पंथी रूस विरोधी है। ऐसे में अपने सबसे उन्नत हथियारों को अपने ही विरोधियों के हाथ सौंप देना कम से कम पुतिन का काम नहीं था। खासकर तब जब उन्हें यह सब खेल समझ में आ रहा हो कि उक्रेन का कथित विद्रोह अपनी अंतरवस्तु में शुद्ध रूप से रूस विरोधी हो।
पश्चिमी देशों का यह कुत्सित प्रचार कि जनमत संग्रह रूसी सेना की उपस्थिति में गैर कानूनी है, यह तथ्यगत रूप से सफ़ेद झूठ है रूसी नौसेना का बेड़ा क्रीमिया में सोवियत संघ के ज़माने से है तब क्या जनमत संग्रह कराने से पहले रूसी फ़ौजी अड्डे को पहले बंद करा दिया जाना चाहिए था? अमेरिका अपने प्रचार माध्यमों की धुआंधार ताकत के बलबूते झूठ का प्रचार-प्रसार पहली बार कर रहा हो ऐसा नहीं है। वियतनाम युद्ध से लेकर इराक, अफ़ग़ानिस्तान, लीबिया तक हमेशा उसके असत्य, फरेबी और दगाबाज चालों से विश्व जनमत वाकिफ है, क्योंकि अभी तक कोई व्यवस्था ऐसी नहीं बनी कि अमेरिकी झूठों पर जुर्म आयद करके उसे सजा मिले इसी ‘न्याय शून्यता’ का फायदा वह हर बार उठाता आया है।
अमेरिका ने रूस द्वारा क्रेमियाई विलय के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक प्रतिबंधों का ऐलान किया है जिसमे रूस की आंशिक संपत्ति को फ्रीज करने से लेकर कुछ व्यापारिक प्रतिबन्ध और वीसा संबंधित प्रतिबंध शामिल है। इन प्रतिबंधों पर नज़र डालने से पहले यहाँ रूसी अर्थव्यवस्था और उसके वैश्विक चरित्र को समझ लेना जरुरी है। गोर्बोचोव द्वारा सोवियत संघ को तोड़ने के बाद रूस लगभग कंगाल अवस्था में था। विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से येल्तसिन के ज़माने में भारी कर्ज लिए गए। 2000 के दशक में आते-आते रूस कर्जो से मुक्त हुआ और आज उसके पास 515 अरब डालर का विदेशी मुद्रा भण्डार है। 2.55 ख़रब डालर की विश्व की सातवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जिसका सालाना निर्यात 515 अरब डालर के साथ प्रतिवर्ष व्यापारिक मुनाफा 74.8 अरब डालर का है। 2008 तक रूसी अर्थव्यवस्था में 264 अरब डालर का विदेशी पूंजी निवेश हो चुका है जिसमे अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, होलैंड, लक्सम्बर्ग आदि प्रमुख निवेशक है।
2013 में दुनिया भर में विदेशी निवेश आकृष्ट करने वाले देशो की सूची में रूस तीसरे स्थान पर आ गया है। 2012 में वह नौवें स्थान पर था। 2013 में अमेरिका, चीन में क्रमश: 159, 157 अरब डालर का निवेश हुआ जबकि रूस में 94 अरब डालर का विनेश हुआ।(2013 में पूरी दुनिया में विदेशी निवेश की रकम आर्थिक मंदी के बाद पहली बार मंदी पूर्व स्तर पर पहुँची जो 1.5 खरब डालर है)।
ओटावा (कनाडा) में रूसी राजदूत गेओर्गीय ममेदोव द्वारा इन प्रतिबधों पर खिल्ली उड़ाने से यह साफ हो जाता है कि रूसी अर्थव्यवस्था में पश्चिमी ताकतों के पाँव इस कदर धंसे हुए है कि उनके पास विरोध के ज्यादा विकल्प नहीं है। क्रीमिया में जनमत संग्रह होने वाले दिन ही रूसी और जर्मनी की तेल की दो बड़ी कंपनियों के मध्य 7 अरब डालर का हुआ व्यापारिक समझौता इस बात की सनद है राजनीतिक-कूटनीतिक धमाल मचाने वाली खबरों के पीछे आर्थिक संबंध और परस्पर मुनाफे के क़ारोबार चलते ही रहते हैं। जर्मनी की 6000 से अधिक कम्पनियां रूस में कार्यरत हैं जिनमें करीब 20 अरब डालर का निवेश है। ठीक उसी तरह लगभग 1000 से अधिक रूसी कम्पनियां जर्मनी में कारोबार कर रही है। रूसी पूंजी का एक बड़ा हिस्सा (8.6 अरब यूरो) जर्मन में निवेश किया गया है। 2011 में जर्मनी ने 522 अरब डालर का तेल, गैस, उर्जा का आयत किया जिसमे 70% से अधिक रूसी भागीदारी है। ठीक इसी तरह फ़्रांस भी रूसी उर्जा पर निर्भर है। इसके अतिरिक्त फ्रांस की बड़ी बड़ी कम्पनियां रूस के आटोमोबाईल क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश कर चुकी है। ब्रिटेन की तेल कंपनी बी पी और रूसी कंपनी रोजनेट के मध्य 15 अरब डालर का समझौता पिछले साल ही हुआ है, ब्रिटेन की 50% कानून चलाने वाली कम्पनियों को काम रूसी दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त अरबों डालर का ब्रिटेन का निवेश रूस में लगा हुआ है।
एक महत्वपूर्ण और आवश्यक तथ्य का हवाला यहाँ देना जरुरी है। 1994 में अमेरिका ने उक्रेन के साथ एक संधि पर दस्तखत किये हैं जिसमें उक्रेन को अपने परमाणु शस्त्रों के बदले अमेरिका ने उक्रेन की क्षेत्रीय संप्रभुता की रक्षा करने का वायदा किया है। अब क्रीमिया द्वारा रूस में विलय हो जाने पर उक्रेन निश्चय ही अपनी क्षेत्रीय अखंडता की गुहार अमेरिका और नाटो से लगा सकता है। अमेरिकी प्रतिबद्धताओ और मित्र राष्ट्रों से किये गए वायदों को पूरी दुनिया के देश टकटकी लगाए देख रहे हैं। खासकर मध्य एशियाई देशों की निगाह मौजूदा यूरोपीय संकट पर टिकी है। हाल ही में इरान के परमाणु परमाणु कार्यक्रम को बंद कराने में जर्मनी और फ्रांस ने महत्वपूर्ण रोल अदा किया। इरान की इस घटनाक्रम पर नज़र है और वह यह देखना चाहेगा कि जर्मन, फ्रांस मिलकर उक्रेन संकट पर क्या रुख लेते है? क्रीमिया को रूस में मिलते देख इरान अपने परमाणु हथियारों का कार्यक्रम या तो पुन: शुरू कर सकता है या ‘अपने हिस्से का गोश्त’ इन देशों से खींचने की कोशिश करेगा।
रूसी अर्थव्यस्था में जर्मनी और फ़्रांस की लिप्तता उपरोक्त दिए गए आंकड़ों के द्वारा आसानी से समझी जा सकती है उनकी व्यापारिक विवशता उनके राजनीतिक कदमो को तय करेगी। अमेरिकी दबाव के चलते यूरोपीय देशों ने अगर कुछ कड़े आर्थिक प्रतिबंधो पर अमल किया तब निश्चय ही रूसी अर्थव्यवस्था और उसके ‘स्टाक’ को नुकसान होगा ही लेकिन रूस ने प्रतिक्रिया स्वरूप जर्मन, फ्रांस को सिर्फ तेल,गैस की सप्लाई बंद कर दी तब विकास दर को तड़पती हुई सबसे बड़ी यूरोपीय जर्मन अर्थव्यवस्था मंदी का शिकार होने से नहीं बचेगी। हजारों लोगों की नौकरियां एक झटके में चली जायेंगी और मुद्रा स्फीति दर बढ़ेगी। जिसका दुष्प्रभाव पूरे यूरोप को झेलना पड़ेगा। जाहिर है ऐसी स्थिति एंजेला मर्किल बिलकुल पंसद नहीं करेंगी। बाल्टिक राष्ट्र कोसोवा का भूत पूरे यूरोप को अपनी गिरफ्त में ले चुका है। इस संकट का राजनीतिक अर्थशास्त्र अपने आप में एक रोचक अध्याय है।
रूसी–क्रीमियाई और उक्रेन, नाटो, अमेरिकी संकट के मद्देनज़र पाठकों को यह निष्कर्ष बिलकुल नहीं निकलना चाहिए कि रूस दुनिया की कोई ‘मुक्तिकामी’ शक्ति बन गया है, उसका राजनीतिक व्यवहार पूर्व सोवियत संघ के दिनों जैसा भले ही हो लेकिन उसकी राजनीतिक, आर्थिक नीति कमोबेश बोल्शेविक क्रांति पूर्व जार शासकों जैसी ही है। उसकी सत्ता की बुनावट आर्थिक माफिया, ओइल्गार्की और भ्रष्ट्र नव पूंजीपतियों द्वारा ही बुनी गयी है जिसे अपने विस्तार और प्रभुत्व का स्वर पुतिन द्वारा मिल रहा है। पुतिन की नीतियों के चलते यदि उनके हितों पर चोट हुई तब वह भी को ‘संतरा’ अथवा ‘केला क्रांति’ मास्को में रच सकते हैं। विश्व राजनीतिक पटल पर अभी कोई ऐसा नमूना खोजना मुश्किल है जिसमें कॉर्पोरेट ताकत शामिल न हो।
शमशाद इलाही शम्स, लेखक "हस्तक्षेप" के टोरंटो (कनाडा) स्थित स्तंभकार हैं।