Is the market spoiling Hindi?

जो हिंदी भाषा के विकास पर शंका और क्षोभ जताते हैं, उनके ज्ञान के दयारे सीमित हैं। वे बंद आंखों से दुनिया और भाषा का आंकलन करते हैं। दुनिया में जितने और जहां-जहां भी परिवर्तन हो रहे हैं, उनके लिए वे सभी बेमानी हैं। वे दुनिया को बदलते इसलिए देखना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें पुरातन परंपराओं और यथास्थितिवाद के खतरे में पड़ जाने का डर रहता है। ठीक वैसे ही। वे आम जिंदगी में भाषा के विकास पर बात कम, भाषा के बिगड़ते स्तर पर उपदेश देना ज्यादा पसंद करते हैं।

हिंदी भाषा को लेकर परंपरावादियों की परेशानी क्या है?

यह तय है जब-तब दुनिया और समाज के बीच परिवर्तन का दौर चलेगा, तब-तब हमारी भाषा और उसके बोलचाल का रंग-ढंग भी बदलेगा। आम बोल-चाल की भाषा और शुद्ध साहित्यिक भाषा में अंतर होना स्वभाविक है। यह रहेगा भी।

हिंदी भाषा क्यों बिगड़ रही है ?

हमारे परंपरावादियों की परेशानी यह है कि वे हिंदी भाषा को भी साहित्य की शुद्धता से नाप-तोल कर देखना-परखना चाहते हैं। उनका कहना है कि हिंदी भाषा इसलिए बिगड़ रही है क्योंकि उसमें से साहित्य की शुद्धता और शालीनता खत्म हो रही है। उनका यह भी आरोप है कि बाजार का वर्चस्व हिंदी को मार रहा है। हिंदी कैसी होनी या रहनी चाहिए इसका एकाधिकार अब साहित्यिक पंडितों के पास नहीं, बाजार के हाथों में आ गया है। इसी कारण वे हर वक्त तिलमिलाए से रहते हैं। वे हिंदी को आरोपित दायरों से बाहर निकालकर नहीं देखना चाहते।

भाषा, चाहे वो हिंदी या कोई और हो, कभी और कहीं भी दायरों में सिमटकर नहीं रह सकती। भाषा का काम है निरंतर फैलते और समृद्ध होते रहना। भाषा व्यक्तियों, सभ्यताओं, संस्कृतियों, परंपराओं आदि को जोड़ने का काम करती है। भाषा में कभी कोई टकराव नहीं हो सकता। आज अगर हिंदी बाजार की सबसे बड़ी भाषा बनकर उभर रही है, तो इस पर किसी को क्यों और किसलिए आपत्ति होनी चाहिए! बाजार जनता के बीच गूंगा या बहरा बनकर तो नहीं जा सकता। उसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए भाषा की जुबान चाहिए।

यह ठीक है कि बाजार का केवल एक ही लक्ष्य होता है, लाभ और सिर्फ लाभ। लेकिन हम यह क्यों नहीं समझते कि बाजार का यह लाभ किसी न किसी स्तर पर हमारी भाषा को भी लाभ पहुंचा रहा है।

भाषा अगर बाजार को कुछ दे रही है, तो बाजार भी भाषा के साथ चल रहा है।

बाजार के उत्पाद को भाषा का साथ चाहिए होता है। बिना भाषा के बाजार अपने उत्पाद को किसी हालत नहीं बेच सकता। अगर हिंदी उसे यह सुविधा दे रही है, तो इसमें हर्ज ही क्या है? यह बात बाजार भी भलीभांति जानता-समझता है कि हिंदी के बिना वो आम आदमी से कभी नहीं जुड़ सकता। आम आदमी से अगर जुड़ना है तो हिंदी को अपनाना ही होगा।

आज जितने भी विदेशी उत्पाद हमारे देश में आ रहे हैं, वे अपने बलबूते पर नहीं सिर्फ और सिर्फ हिंदी भाषा के रास्ते ही आ रहे हैं। वे यह खूब जानते हैं कि अंग्रेजी में न वे पिज्जा बेच सकते हैं न बर्गर। न फेयरनेस क्रीम बेच सकते हैं न ठंडा पेय। इस सब और आम आदमी के बीच जाने के लिए उन्हें देसी हिंदी भाषा का सहारा ही चाहिए। यह सही है कि वे हिंदी भाषा के सहारे अपना माल बेच रहे हैं, लेकिन हम यह क्यों नहीं समझते कि इस बहाने हिंदी की जरूरत और दायरा भी तो बढ़ रहा है।

यह सवाल सिर्फ भाषाई बाजार तक ही सीमित नहीं है। हिंदी की प्रसांगिकता अखबारों में ही नहीं इंटरनेट और ब्लॉग-लेखन के माध्यम से भी निरंतर बढ़ रही है। इस बात में अब कोई दम नहीं रहा कि हिंदी अखबारों और चंद तथाकथित साहित्यिक पत्रिकाओं के सहारे ही बची हुई है। शायद कथित हिंदी-रक्षक इस बात को स्वीकार न करें, पर यह सच है कि हिंदी का साम्राज्य नेट और ब्लॉग-लेखन के माध्यम से काफी हद तक विकसित होता जा रहा है। जो साहित्यिक पत्रिकाएं हिंदी की शुद्धता का दावा ठोकती हैं, क्या आपने उनके यहां छपने वाले वाद-विवाद की भाषा का स्तर देखा-पढ़ा है? उसको पढ़कर अक्सर यह महसूस होता है कि क्या यही स्तर है हमारी हिंदी की ऊंची साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का? क्या वहां भाषा नहीं बिगड़ रही? क्या उस अस्तरीय भाषा पर हमारे महान साहित्यकारों को एतराज नहीं जताना चाहिए? लेकिन हमारे हिंदी के साहित्यिक समाज की समस्या यही है कि यहां बोलता कोई कुछ नहीं। सब खामोशी से बैठे तमाशा देखते हैं। वे केवल मंच पर जाकर ही हिंदी का रोना रोते हैं। यह है इनका हिंदी भाषा-प्रेम।

यह कहने में कम से कम मुझे कोई एतराज नहीं कि बाजार ने हिंदी का साथ दिया है। यह बाजार हिंदी के सहारे ही चल रहा है। बाजार से होती हुई हिंदी नेट और ब्लॉग पर जब से आई है, तब से इससे भारी तादाद में लोग जुड़े हैं, जुड़ रहे हैं। देखिए, आम आदमी के बीच अगर आपको जाना है, तो हिंदी के सहारे ही जाना पड़ेगा। यह भी एक सच है कि अंग्रेजी के अखबारों और पत्रिकाओं से अधिक आज हिंदी में अखबार और पत्र-पत्रिकाएं हैं। लगातार आ रहे हैं। तो क्या इस विस्तार के सहारे हिंदी का समाज समृद्ध नहीं हो रहा?

कम से कम अब हमें इस रोवा-राट से छूटकारा पा लेना चाहिए कि हिंदी को बाजार निगल रहा है। दरअसल, बाजार नहीं कुछ पढ़े-लिखे हिंदी-रक्षक (?) ही अपनी भाषा को निगल रहे हैं। ये पुरानी पीढ़ी और सोच के लोग हैं। इन्हें किसी परिवर्तन से कोई मतलब नहीं। इनकी दुनिया अलग है। अंधेरे में डूबी हुई।

यह नई सदी की हिंदी है। बाजार की हिंदी है। इसे यूंही समृद्ध होने दें। क्या समाज, क्या देश, क्या आम आदमी के बीच हिंदी का दबदबा न कम हुआ है, न ही कम होगा।

अंशुमाली रस्तोगी

लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।