क्या अल्पसंख्यक वोट बैंक बुरबक है, हैं तो फिर बहुसंख्यक क्या हैं?
क्या अल्पसंख्यक वोट बैंक बुरबक है, हैं तो फिर बहुसंख्यक क्या हैं?
संसदीय राजनीति के तिलिस्म में फंसे अल्पसंख्यकों को लेकर वोटबैंक की राजनीति बंगाल में मुसलमानों और हिंदुओं को बुरबक बनाकर धर्मोन्मादी ध्रुवीकरण है और आज हमने मोदी ममता बंधुत्व के मधुर परिवेश पर इसी मुद्दे पर फोकस करना चाहते थे।
सत्ता समीकरण में अल्पसंख्यकों की निर्णायक भूमिका होती है और कारपोरेट राजनीति के लिए, जनविरोधी नीतियों और जनसंहारी सत्ता के लिए हम इन्हीं अल्पसंख्यकों को जिम्मेदार मानते हैं।
फिर हम लोकतांत्रिक बंदोबस्त में अपना अपना हिस्सा मांगने जब खड़े होते हैं तो फिर वही सत्ता समीकरण साधने की गरज से अल्पसंख्यकों के वोट दखल करने के गृहयुद्ध का महाभारत सजाते हैं।
फिर भी हम कभी भी राज्यतंत्र को बदलने के बारे में सोचेंगे नहीं।
सोचेंगे नहीं कि कैसे अस्मिताओं की इन चहारदीवारियों को तोड़ा जाये।
हम जनमजात अल्पसंख्यकों में शामिल हैं। देश भर में छितरा दिये गये सारे शरणार्थी अल्पसंख्यक ही हैं। बंगाल के भूगोल इतिहास से बाहर हम पूर्वी बंगाल से विभाजन की त्रासदी का बोझ ढो रहे पीढ़ी दर पीढ़ी तमाम बंगाली शरणार्थी देश भर में अपनी मातृभाषा सहेजते हुए अल्पसंख्यक ही हैं।
बगाल में तो दलित और आदिवासी भी मुसलमानों की तीस फीसद आबादी के मुकाबले अल्पसंख्यक ही ठहरे।
खुशवंत सिंह ने सिखों के बारे में जितना बिंदास लिखा है, वैसा किसी दूसरे ने अब तक न लिखा है।
आपरेशन ब्लू स्टार के बाद सिखों को लेकर संता बंता से बाहर अलग कोई चुटकुला कभी नहीं सुनाई पड़ा।
बारह बजे सरदारों के बारह बजने वाला चुटकुला भी अब कोई दोहराने की हिम्मत नहीं कर सकते क्योंकि सिखों ने 1984 के नरसंहार के खिलाफ लगातार लगातार अपना संघर्ष जारी रखते हुए लाखों लोगों की कुर्बानियों से साबित किया है कि सिख बेवकूफ नहीं होते।
फिर भी सिखों के नरसंहार में जो हिंदू साम्राज्यवादी सबसे बड़ा अपराधी है, सिखों की राजनीति उसके साथ सत्ता शेयर कर रही है।
मेरे पिता से बहुत लड़ाई होती थी कि वे राजनेताओं से क्यों संवाद करते हैं, क्यों प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों और मुख्यमंत्रियों, नारायण दत्त तिवारी और केसी पंत के भरोसे रहते हैं।
देश भर में छितरी शरणार्थी आबादी देखने के बाद ही हम समझ सके हैं कि एक गांव, दो गांव दस या चालीस गांवों की आबादियों में बसे अपने स्वजनों की सुरक्षा की गारंटी चूंकि सत्ता ही दे सकती है, इसलिए सत्ताविरोधी होने के बावजूद उऩकी मजबूरी रही है कि अपने लोगों की जान माल की सुरक्षा के लिए वे केंद्र और राज्यों के सत्तादल के संपर्क में रहे।
देश भर में शरणार्थी आंदोलन का यही किस्सा है और अब भी इस सत्ता समर्थक शरणार्थी आंदोलन का हम उतना ही विरोध करते हैं। लेकिन हम अपने लोगों की मजबूरी बेहतर समझते हैं और उनके साथ सत्ता समर्थक बने जाने से परहेज करते हुए भी उनके खिलाफ बोल नहीं सकता।
हम इस शरणार्थी अस्मिता को ही तोड़ने के फिराक में हैं और हम चाहते हैं कि किरचों में बिखर जायें तमाम अस्मिताएं ताकि हम फिर इस विभाजित देश को, इस विभाजित महादेश, विभाजित मनुष्यता को नये सिरे से जोड़ सकें और इसीलिए प्रकृति और पर्यावरण के मुद्दे हमारे लिए अहम हैं।
सच्चर कमेटी की रपट से साफ हुआ कि वामदलों ने मुसलमानों को गुलाम वोट बैंक बनाये हुए है और ऐसा अहसास होते ही मुसलमानों ने एकमुश्त वोट करके वाम शासन का अंत कर दिया। फिर मां माटी की सरकार यही खेल उनके साथ कर रही है।
ममता बनर्जी सिर्फ मुसलमानों का वोट बैंक को नजर में रखकर खुल्ले में संघ परिवार के साथ नहीं है, वरना वे कदम कदम पर संघ परिवार के साथ हैं।
इस सच को छुपाने के लिए वे लगातार मोदी पर प्रहार करती रहीं और मौका आने पर फिर संसद और संसद के बाहर वे मोदी के साथ हैं और अब बहाना विकास का है।
मुसलमानों के साथ धोखा हो रहा है, जमीन अधिग्रहण कानून के खिलाफ नये सिरे से जिहाद रचकर पीपीपी माडल में बंगाल को गुजरात बनाने वाली ममता बनर्जी इस सच को हरगिज छुपा नहीं सकती।
सवाल यह है कि क्या बंगाल के मुसलमान इतने ही बुरबक है कि वे दीदी का खेल समझते नहीं हैं। वे जैसे वामदलों का खेल शुरु से ही समझ रहे ते वैसे ही वे दीदी का खेल समझ रहे हैं।
मौका मिलते ही मुसलमानों ने वामदलों की गद्दी जैसे उलट दी, वैसे ही वे दीदी का सिंहासन भी उलट सकते हैं।
मुसलमानों के लिए बुनियादी मुद्दा उनके विकास का नहीं है, इसे समझिये।
अस्सी के दशक में सिखों ने जो भोगा और अपनी और अपने सगों की जान बचाने के लिए इस आजाद देश में जो हालत उनकी हुई थी, उसको भी समझिये।
बाबरी विध्वंस और गुजरात में नरसंहार और देश भर में दंगे, फर्जी मुठभेडों का अनंत सिलसिला और आंतकवाद और अपराध के तमाम मामले जिनके खिलाफ हो, तेजी से बन रहे हिंदू राष्ट्र में बहुसंख्यकों की तरह विकास और लोकतंत्र के बारे में जाहिर है वे सोचने की हालत में नहीं है।
उन्हें भी अपने और सगों की जान माल की सुरक्षा की चिंता सताती है और सत्ता के संरक्षण के लिए वे अपने हक हकूक कुर्बान कर दें, तो इसे उनकी वेवकूफी समझने की भूल न करें।
मान लिया कि सारे अल्पसंख्यक बुरबक वोट बैंक हैं तो कृपया बहुजनों और बहुसंख्यकों की वह मजबूरी बताइये, जिसके तहत विनाशकारी सत्ता, मनुष्य और प्रकृति विरोधी मिलियनर बिलियनर सत्तावर्ग के खिलाफ वे गोलबंद नहीं होते।
जब तक विध्वंसक हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ तमाम अस्मिताओं की दीवारें तोड़कर राज्यतंत्र पर वर्गीय कारपोरेट केसरिया राजकाज के खिलाफ बहुसंख्य जनता को मोर्चाबंद करने की पहलकदमी नहीं होती तब तक अल्पसंख्यकों को कृपया उनकी मजबूरी के लिए बेवकूफ और मौकापरस्त न कहें।
आप पहले खुद मजबूती के साथ सत्ता के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत तो कर लें।
पलाश विश्वास


