क्या काँग्रेस की बड़ी सर्जरी सम्भव है? सर्जरी देह की हो सकती है आत्मा की नहीं!
क्या काँग्रेस की बड़ी सर्जरी सम्भव है? सर्जरी देह की हो सकती है आत्मा की नहीं!
वीरेन्द्र जैन
हाल ही में हुए पाँच राज्यों के प्रत्याशित चुनाव परिणामों के बाद काँग्रेस के प्रमुख नेताओं ने पार्टी में बड़ी सर्जरी की जरूरत महसूस कर ली और इस आशय का सार्वजनिक बयान देना भी जरूरी मान लिया। इन चुनावों में भले ही दो राज्यों में उसकी सरकार चली गयी हो किंतु उसके वोट बैंक में ऐसा कुछ भी भयानक परिवर्तन नहीं घटा था कि वह अपने विरोधी के प्रचार के प्रभाव में खुद को मरणासन्न मानने लगें। उक्त राज्यों के विधानसभा चुनावों व उ,प्र, झारखण्ड, गुजरात, तेलंगाना जैसे राज्यों में हुए उपचुनावों में शामिल प्रमुख दलों को प्राप्त कुल मतों का क्रम निम्नानुसार था।
1- तृणमूल काँग्रेस 24564253
2- काँग्रेस 19931627
3- एआईडीएमके 17617060
4- सीपीएम 16586893
5-बीजेपी 14252549
6-डीएमके 13670511
इन्हीं चुनावों में जीती हुयी सीटों की संख्या का सम्मलित चार्ट भी देख कर समझने लायक है।
1- तृणमूल काँग्रेस 211
2- एआईडीएमके 138
3- काँग्रेस 116
4- डीएमके 91
5- सीपीएम 84
6- भाजपा 66
7- सीपीआई 20
इसके साथ ही सबसे ज्यादा सीटों पर भाजपा इतनी बुरी तरह नकारी गई है कि उसकी 500 से अधिक सीटों पर जमानत जब्त हुयी है, व दूसरी कोई प्रमुख पार्टी उसके मुकाबले में नहीं ठहरती।
वैचारिक दृष्टि से भी मतों से प्रकट कुल माहौल उस भाजपा का विरोधी है, जो काँग्रेस के समाप्त हो जाने की घोषणा करते हुए काँग्रेस मुक्त भारत के सफल होने का तुमुल नाद कर रही थी। काँग्रेस की हालत देख कर तो पंचतंत्र की वह कथा याद आती है जिसमें चार ठगों ने रास्ते के विभिन्न पड़ावों पर खड़े हो कर, एक ब्राम्हण को दान में मिली बछिया को कुत्ता बता बता कर उसे ऐसा भ्रमित कर दिया था कि अंततः वह खुद भी उस बछिया को कुत्ता मान कर जंगल में फेंक कर भाग गया था।
उपरोक्त आंकड़ों को देख कर ऐसा भी लग सकता है कि काँग्रेस के कुछ नियतवादी संतुष्ट नेताओं के बयानों की तरह उस पार्टी में सब कुछ ठीकठाक है और यह केवल समय का चक्र है, जब अच्छा समय आयेगा तो काँग्रेस खुद ही उठ कर खड़ी हो जायेगी। यह भी एक दूसरा बड़ा भ्रम है।
सबसे पहले पहचानना पड़ेगा कि काँग्रेस है क्या! यह देह है या आत्मा?
अगर सर्जरी के प्रतीक के सहारे ही आगे बढ़ें तो सबसे पहले पहचानना पड़ेगा कि काँग्रेस है क्या! यह देह है या आत्मा? सर्जरी देह की हो सकती है आत्मा की नहीं। यदि देह है तो किसकी देह है, चार या चार से अधिक हाथ वाले पंचमुखी देवताओं की देह है, नरसिंह अवतार जैसी देह है, या उस देवता जैसी देह है जिसकी सर्जरी की प्रशंसा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक कार्पोरेट घराने के एलोपैथिक अस्पताल के उद्घाटन के समय की थी। अगर यह किसी पशु प्राणी की देह है तो यह हिरन जैसे गतिमान की देह है, चीते जैसे शक्तिशाली प्राणी की देह है। हाथी जैसे मन्द गति वाले की देह है या अज़गर की तरह आलसी की देह है जो कोई काम नहीं करता सिर्फ पड़ा रहता है। यदि यह आत्मा है तो अजर अमर है, उसकी चिंता व्यर्थ है, उसका कुछ नहीं बिगड़ने वाला क्योंकि वह सिर्फ देह बदलेगी। कभी ओल्ड काँग्रेस, न्यू काँग्रेस हो जायेगी तो कभी तृणमूल काँग्रेस या राष्ट्रवादी काँग्रेस हो जायेगी। बाल रूप में वह केरल काँग्रेस, मध्य प्रदेश काँग्रेस या वायएसआर काँग्रेस या ऐसा ही कुछ और रूप ले सकती है। वह पानी की तरह जिस देह में रहेगी, उसी का रूप ले लेगी, जिस बर्तन में रहेगी उसी जैसा रंग दिखेगा।
क्या काँग्रेस निराकार ईश्वर की तरह है?
देश की सीमाओं में असीम है, सर्वत्र है, हवा की तरह बहती है या प्राकृतिक रोशनी की तरह समय होते ही फैल जाती है और शाम होते ही सिमिट जाती है। यह काँग्रेस 1967 में लोहिया के गैरकाँग्रेसवाद के प्रभाव में कई राज्यों में संविद सरकारों से घायल होने के बाद फिर से खड़ी हो गई थी। 1977 में पहली बार केन्द्रीय सत्ता से वंचित होकर 1980 में फिर से सत्ता में आ चुकी थी। 1989 में कमजोर नेतृत्व के कारण दूसरे नाम से सत्ता में आयी थी पर 1991 में फिर से अपने नाम से सत्ता में लौट आयी थी। देवगौड़ा की सन्युक्त मोर्चा सरकार को गुजराल की सरकार में काँग्रेस ने ही बदला था। 1998 से भले ही अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार 2004 तक रही हो किंतु मोदी की भाजपा उस काल को भाजपा शासन के रूप में याद भी नहीं करना चाहती। इसके बाद लगातार दस वर्षों तक किसी अदृश्य का काँग्रेसी शासन रहा।
क्या अमित शाह जिससे भारत को मुक्त करना चाहते हैं, उसके स्वरूप को उन्होंने भी समझ लिया है। कोई ओझा जब भूत या भुतनी को भगाता है तो सबसे पहले उसकी पहचान करता है कि कौन से पीपल या बावड़ी का भूत है। क्या काँग्रेस के जो नेता देह मान कर उसकी सर्जरी कराना चाहते हैं उन्होंने उसकी बीमारी और उस बीमारी से प्रभावित अंग की पहचान कर ली है जिसकी शल्य चिकित्सा करनी है।
एक विचार यह भी हो सकता है कि गाँधी जी को नेता मान कर जिन लोगों ने स्वतंत्रता आन्दोलन में काँग्रेस के नाम से भाग लिया था यह उनके नाकारा वंशजों का समूह है जिन्हें आज़ादी के बाद सरकार में रहने की लत लग चुकी है। इससे अर्जित विशिष्टता के लिए वे नेहरू के योजनाबद्ध विकास, इन्दिरागाँधी का समाजवाद, या नरसिंहाराव मनमोहन सिंह की नई आर्थिक नीतियों तक कुछ भी ओढ़ सकते हैं। किसी भी विचार का बैनर लगा हो किंतु वे अन्दर से वैसे के वैसे रहते हैं -‘पंचों की राय सर माथे पर पनाला वहीं गिरेगा’। 1969 को छोड़ कर काँग्रेस के विभाजन का कोई भी दिखावा सैद्धांतिक मतभेदों पर नहीं हुआ। सच तो यह है कि 1969 में भी सत्ता संघर्ष में सफल होने के लिए सिद्धांत ओढ़ने पड़े थे।
आज़ादी के बाद जिन राज परिवारों ने मन मार कर लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्वीकार कर अपने घर बैठ गये थे, वे भी प्रिवी पर्स और विशेषाधिकारों की समाप्ति से छटपटा कर राजनीति में सक्रिय हो अपनी विशिष्टता को फिर से अर्जित करने के लिए खड़े हो गये। जल्दी ही ज्यादातर ने सत्तारूढ़ दल की सदस्यता ले ली। कश्मीर को छोड़ कर कहीं भी जनता ने राजाओं के खिलाफ विद्रोह नहीं किया था इसलिए उनका प्रभाव शेष था। वे वोट खींचने वाले बन कर उभरे। कभी स्वतंत्रता संग्राम की विरासत के आधार पर जनप्रिय हुयी काँग्रेस के पास बाद में दलित, संघ परिवार से भयभीत एकजुट मुस्लिम और राजपरिवारों के वंशजों के रूप में जनप्रतिनिधि बड़ी ताकत थे। ये लोग काँग्रेस को निरंतर सत्ता दिलाते रहे। यही कारण रहा कि काँग्रेस ने लम्बे समय तक बिना किसी राजनीतिक चुनौती या जन आन्दोलन के राज्य किया। नेतृत्व के विवादों को हल करने के लिए सबने नेहरू-गाँधी परिवार के परिवारियों के नेतृत्व को निर्विवाद रूप से स्वीकार कर लिया।
जब राजीव गाँधी की हत्या के बाद दस वर्षों तक सोनिया गाँधी ने काँग्रेस का नेतृत्व करना स्वीकार नहीं किया तो काँग्रेस बिखराव की ओर बढ़ने लगी। मजबूरन सोनिया गाँधी को अपनी पूरी अरुचि और अक्षमता के बाद भी काँग्रेसियों के अस्तित्व को बचाने का अनुरोध स्वीकारना पड़ा। यह काँग्रेस के पुनरोद्धार का समय कहा जाता है किंतु असल में यही उसके समाप्ति की घोषणा का समय भी था। यह नेतृत्वहीनता के प्रकट होने का समय था। भले ही उनके अध्यक्ष बनने के बाद केन्द्र में काँग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार बन गयी हो किंतु उसकी कमजोरी प्रकट हो गयी थी। भाजपा के दबाव में सोनिया गाँधी को प्रधानमंत्री के रूप में अपने चुने जाने के बाद भी सेहरा राजनीतिक नेतृत्व से बाहर के मनमोहन सिंह के सिर पर बांधना पड़ा था। उनकी सरकार गठबन्धन के साथियों के दबाव में चली। इसी कमजोरी का फायदा उठाते हुए भाजपा ने संसद में यूपीए के दोनों कार्यकालों को अपनी मर्जी के अनुसार चलने दिया और खुद को उस स्थिति में स्थापित कर लिया कि काँग्रेस से असंतुष्ट होने पर सारे मतदाता उसमें ही विकल्प देखें। इस दौरान सत्ता के नशे में रहते हुए काँग्रेस ने भाजपा की गलत बयानियों का भी राजनीतिक विरोध करने की जरूरत नहीं समझी व अपना अस्तित्व कमजोर होने दिया।
सामान्य काँग्रेसी नहीं बता सकता कि वह काँग्रेसी क्यों है, और कैसे है।
आजादी के बाद काँग्रेस ने कोई बड़ा सामाजिक आन्दोलन भी नहीं किया। काँग्रेसी होने की कोई पहचान नहीं बनी। सामान्य काँग्रेसी नहीं बता सकता कि वह काँग्रेसी क्यों है, और कैसे है। वह सत्ता से लाभ उठाने वालों की जमात है इसलिए सब सत्तामुखी के फूल हैं , कोई ठेकेदार है, सरकारी सप्लायर है, कुछ के पास पैट्रोल पम्प से लेकर गैस एजेंसी समेत एकाधिकारवादी सामग्री की एजेंसी है, बिल्डर हैं, या राशन के दुकानदार हैं। सब पर किसी नेता के अहसान हैं। अनेक लोग किसी न किसी आर्थिक अपराध से जुड़े हुए हैं। कुछ टैक्स बचाना चाहते हैं तो कुछ श्रम और व्यावसायिक कानूनों से बचना चाहते हैं। सांसदों, विधायकों के अपने अपने सुरक्षित चुनाव क्षेत्र हैं जिनमें मतों के ठेकेदारों को साधने के अलावा वे कोई राजनीतिक काम नहीं करते। वर्षों हो गये काँग्रेस ने विपक्ष में आने के बाद भी कोई बड़ा आन्दोलन नहीं किया। जब वे रैलियों का आवाहन करते हैं तो किराये पर ‘जनता’ बुलवानी पड़ती है। वे केवल मीडिया के कैमरों के आने पर ही अपना सिर आगे की ओर करने का श्रम करते हैं।
ऐसी काँग्रेस जिससे निकले 116 सदस्य वर्तमान में सत्तारूढ़ पार्टी का बहुमत बना रहे हों, जिसके केबिनेट मंत्री सत्ता की सम्भावनाएं देख कर दल बदल लेते हों, जिसका टिकिट मिल जाने पर भी उसे ठुकरा कर कोई सदस्य प्रतिपक्ष का टिकिट ले आता हो, जिसके सदस्य निर्वाचन का फार्म भर जाने के बाद नाम वापिस ले लेते हों अर्थात जिसके स्वरूप को न तो कहीं से समझा जा सकता हो न जिसे किसी रूप में बांधा जा सकता हो उसे मारा कैसे जा सकता है, उसकी शल्य चिकित्सा कैसे की जा सकती है?
चिड़ियाघर के चीते की शल्य क्रिया करने से पहले उसे ट्रेंकुलाइजर से बेहोश किया जाता है, फिर बांधा जाता है तब शल्य क्रिया की जाती है। शल्य क्रिया की सलाह देने वालों से अनुरोध है कि पहले कांग्रेस को एक रूप दीजिये, फिर उसे अनुशासन में बांधिए तब शल्य क्रिया कीजिए। यह काम कठिन जरूर है पर इसके बिना शल्य क्रिया सम्भव नहीं।


