क्या जरूरी है कि वो मुजरिम ही हों जिनके हक़ में फैसले नहीं होते
क्या जरूरी है कि वो मुजरिम ही हों जिनके हक़ में फैसले नहीं होते
मसीहुद्दीन संजरी
मोहन चन्द्र शर्मा की हत्या आदि आरोपों का दोषी मानते हुये दिल्ली साकेत न्यायालय ने 30 जुलाई को खालिसपुर, आज़मगढ़ निवासी शहजाद अहमद को आजीवन कारावास और 95000 हजार रूपये जुर्माना की सजा सुनाई। फैसला आते ही भा.ज.पा. प्रवक्ताओं ने कांग्रेस पर बटला हाउस मामले में राजनीति करने को लेकर हल्ला बोल दिया। दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्शीद को पहले इस एन्काउंटर पर सवाल उठाने के लिये न्यायालय के फैसले से सीख लेने और उसी आधार पर देश से माफी माँगने की माँग कर डाली। भा.ज.पा. प्रवक्ताओं ने उन मानवाधिकार संगठनों को भी निशाना बनाया जिन्होंने पहले एन्काउंटर को फर्जी कहा था। हालाँकि यह फैसला निचली अदालत का है। यदि मामला ऊपर की अदालतों में जायेगा तो फैसला इससे उलट भी आ सकता है।
25, जुलाई 2013 को बटला हाउस मुठभेड़ के समय पुलिस बल पर गोली चलाते हुये फरार होने और अपराधमुक्त करने के लिये अपराधियों के चुनाव लड़ने के खिलाफ सख्त फैसला सुनाता है तो सभी राजनैतिक दल उस फैसले के खिलाफ एक स्वर में बोलने लगते हैं। सरकार इस विषय पर सर्वदलीय बैठक बुलाती है और सर्वसम्मति से यह तय होता है कि इस फैसले के खिलाफ संसद प्रभावी कदम उठाये। भा.ज.पा. उच्चतम न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ मोर्चा खोलने में सबसे आगे दिखायी देती है। भा.ज.पा. के धर्मेन्द्र यादव टेलीवीज़न पर पूरे देश के सामने यह तर्क देते हैं कि सत्ता पक्ष विरोधियों के खिलाफ इसका दुरुपयोग कर सकता है। यही आशंका अन्य राजनैतिक दलों ने भी जाहिर की। दूसरे शब्दों में सत्ता पक्ष न सिर्फ फर्जी मुकदमे कायम करवा सकता है बल्कि अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिये न्यायालय के फैसलों को भी प्रभावित कर सकता है।
इन दोनों परस्पर विरोधी विचारों के बीच कुल एक सप्ताह का अन्तर यह बताने के लिये काफी है कि बटला हाउस मामले में न्यायालय के फैसले पर राजनैतिक रोटी सेंकने में अपने आपको सबसे आदर्शवादी पार्टी कहने वाली भा.ज.पा. भी अपने नेताओं के साथ होने वाली किसी नाइंसाफी की आशंका से वह तमाम मर्यादाएँ भूल गयी जिसका वह प्रचार कर रही थी। निचले स्तर पर न्यायपालिका में कितनी राजनैतिक दखलअंदाज़ी होती है यह तो सत्ता में रह चुके या उसकी दहलीज़ पर खड़ी पार्टियों के राजनेता ही बता सकते हैं जिन्हें इस तरह की आशंका सताती रहती है। परन्तु इससे यह अवश्य जाहिर होता है कि कुछ होता तो ज़रूर है। इससे भी ज़्यादा आश्चर्य मुख्य धारा की उस मीडिया के रवैये पर होता है जो न्यायालय के फैसले से असहमति जताने वाले समाचारों को अवमानना से जोड़कर देखने का पाखण्ड करता है और इस प्रकार मात्र एक ही तरह की प्रतिक्रियाओं का प्रकाशन एवम् प्रसारण कर दूसरे पक्ष के खिलाफ नकारात्मक वातावरण निर्मित करता है। जिस दिन शहज़ाद के मामले में फैसला सुनाया जाने वाला था, पूरे देश की मीडिया के लोग उसके गाँव खालिसपुर, आज़मगढ़ में मौजूद थे। वहाँ उपस्थित ग्राम प्रधान और गाँव के निवासियों समेत कई लोगों ने अपने विचार रखे। संजरपुर में भी प्रिन्ट और एलेक्ट्रानिक मीडिया से लोगों ने बात की। शाम को जब एन.डी. टी.वी. के लोग गाँव में आये तो पूरी भीड़ इकट्ठा हो गयी, हालाँकि मौसम की खराबी के कारण जीवन्त प्रसारण नहीं हो पाया। परन्तु अगले दिन समाचार पत्रों में यह भ्रामक खबर छपी कि खालिसपुर और संजरपुर में सन्नाटा पसरा रहा, गलियाँ सुनसान थीं, कोई रास्ता बताने वाला नहीं था, आदि। शायद मीडिया के लोग एक पक्ष की ऐसी तस्वीर पेश करना चाहते थे जिससे अपराध बोध झलकता हो। इस सन्दर्भ में जब एक हिन्दी समाचार पत्र के ब्यूरो चीफ से बात की गयी तो न्यायालय के फैसले से असहमति जताने वाले बयानों को अखबार में स्थान न मिल पाने का कारण पूछने पर उनका कहना था कि न्यायालय की अवमानना वाले समाचारों को नहीं छापा गया और यह नीति उच्चतम स्तर पर बनी थी। हालाँकि यह तर्क किसी भी हालत में स्वीकार्य नहीं हो सकता। यदि मीडिया ने वास्तव में जान-बूझकर ऐसी कोई नीति अपनाई थी तो इसे असंवैधानिक और सुनियोजित दुष्प्रचार ही माना जायेगा। संविधान हमें न्यायालय के फैसलों से असहमति का पूरा अधिकार देता है। यदि ऐसा न होता तो एक अदालत के फैसले के खिलाफ अगली अदालत में अपील करने या पुनर्विचार याचिका दाखिल करने का अधिकार कानून क्यों देता? अदालती फैसलों के खिलाफ असहमति को अवमानना की चादर उढ़ाना लोकतांत्रिक मूल्यों, मर्यादाओं और उसकी मूल भावनाओं के विरुद्ध है। यदि यह निर्णय उच्चतम स्तर पर लिया गया है तो मीडिया का यह व्यवहार धार्मिक समुदायों के बीच भय और सन्देह उत्पन्न करने वाले सुनियोजित कदम के तौर पर ही देखा जायेगा जो साम्प्रदायिक सौहार्द और स्वस्थ समाज के ताने-बाने को गहरा आघात पहुँचा सकता है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर सर्वदलीय बैठक में सत्ता के दुरुपयोग के मामले में जो सवाल उठाये गये हैं वह स्वतः स्पष्ट करते हैं कि फैसलो को प्रभावित करने की मात्र आशंका ही नहीं होती बल्कि वास्तव में ऐसा होता भी है। उसका कारण भ्रष्टाचार भी हो सकता है, साम्प्रदायिकता या राजनैतिक सत्ता का दाँवपेच भी।
शहज़ाद के मामले में जो निर्णय आया है उसकी भूमिका में विद्वान न्यायाधीश ने पुलिस बल की सेवाओं के प्रति जो टिप्पणी की है कि ’पुलिस के कारण ही हम सुरक्षित हैं। पुलिस का हमारे जीवन में काफी महत्व है और वह जब जागती है तब हम सोते हैं’ सिद्धान्त रूप में बिल्कुल सही है। यदि ऐसा न होता तो पुलिस विभाग के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो जाता।
कोई यह नहीं कहता कि देश को पुलिस बल की आवश्यकता नहीं है या कानून व्यवस्था बनाये रखने में उसकी भूमिका नहीं है। न इस बात से इनकार किया जा सकता है कि हमारे जवानों को बहुत ही विषम परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। परन्तु इसका एक और पहलू भी है। उसी पुलिस बल में ऐसे तत्व भी रहे हैं जिन्होंने वर्दी को शर्मसार किया है। सत्ता के इशारे पर राजनैतिक विरोधियों को झूठे मामलों में फँसाना, उनके साथ दुर्व्यवहार, महिलाओं के साथ बलात्कार, दलितों और आदिवासियों के साथ अत्याचार और रिश्वत, लालच और साम्प्रदायिक सोच के चलते दोषियों को बचाने और निर्दोषों को फँसाने का दुष्चक्र, ऐसे हजारों मामलों से आँखें बन्द नहीं की जा सकतीं। पुरस्कार, नकद और पदोन्नति के लिये बेगुनाहों को सलाखों के पीछे पहुँचा देने और फर्जी मुठभेड़ों में मासूमों की हत्या तक कर देने के अनेक उदाहरण मौजूद हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। साम्प्रदायिक दंगों में सत्ता के इशारे और अपनी साम्प्रदायिक मानसिकता की तृप्ति के लिये सामूहिक हत्या और महिलाओं एवम् दूध पीते बच्चों को कत्ल करने जैसी वारदातों को अंजाम देने और और ऐसी घटनाओं के होने पर मूक दर्शक बने देखते रहने की मिसालें भी मौजूद हैं। ऐसी काली भेड़ें भी हमारे पुलिस बल में मौजूद हैं और निष्चित रूप से उनके कारण आम जनता आराम से सोती नहीं बल्कि उसकी नींद हराम हो जाती है। शायद यही कारण रहा होगा कि विधि निर्माताओं ने पुलिस के सामने दिये गये बयान को न्याय की कसौटी नहीं माना था। प्रस्तुत मामले में बटला हाउस एन्काउंटर की घटना को अंजाम देने वाली दिल्ली स्पेशल सेल की भूमिका आतंकवाद से सम्बंधित कई मामलों में बहुत ही संदिग्ध रही है। पत्रकार काज़मी से लेकर लियाकत अली शाह के मामले अभी ताज़ा हैं। स्वयं बटला हाउस मुठभेड़ के छापा मार दस्ते में शामिल स्पेशल सेल के कई अधिकारियों की इससे पहले के मामलों में अदालतों ने आलोचना की है। कुछ एक मामलों में तो फर्जी छापामारी एवम् बरामदगी, सुबूत गढ़ने और बेकसूरों को फँसाने के लिये न्यायालय ने फटकार भी लगायी है। इस सम्बंध में जामिया टीचर्स सालिडैरिटी एसोसिएशन ने आतंकवाद से जुड़े मामलों में दिल्ली स्पेशल सेल की कार्रवाई और उसके द्वारा कायम किये गये 16 मुकदमों और उनके अदालती फैसलों का अध्ययन करने के बाद ’आरोपित, अभिशप्त और बरी’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है जो स्पेशल सेल के कई अधिकारियों के गैरकानूनी एवम् आपराधिक कारनामों की पोल खोलने के लिये काफी है। संक्षिप्त में रिपोर्ट से कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
राज्य बनाम गुलज़ार अहमद गने और मो0 अमीन हजाम एफ0आई0आर0 संख्या 95/06 तथा सेशन केस संख्या 13/2007 का फैसला 13 नवम्बर 2009 में आया। दिल्ली स्पेशल सेल की कहानी के मुताबिक पाक निवासी लश्कर का आतंकी, जम्मू कश्मीर के पट्टन क्षेत्र में काम कर रहा जिला कमाण्डर मो0 अकमल उर्फ अबू ताहिर, हथियार, गोला बारूद और फण्ड इकट्ठा करने के लिये अपने साथियों को दिल्ली व भारत के अन्य शहरों में भेज रहा है। ए.सी.पी. संजीव कुमार यादव और इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा द्वारा एक दल का गठन किया गया, जिसमें इंस्पेक्टर संजय दत्त, मोहन चंद शर्मा, एस.आई. राहुल कुमार, कैलाश बिष्ट, पवन कुमार, राकेश मलिक, हरिन्दर, अशोक शर्मा, हेड कांस्टेबल सुषील, सतिन्दर कृष्ण राव, कांस्टेबल नरेन्दर, रन सिंह शामिल थे। स्पेशल सेल के छापामार दस्ते ने गुलज़ार अहमद गने उर्फ मुस्तफा और मो0 अमीन हजाम को महिपालपुर के बस स्टैंड से गिरफ्तार किया दिखाया। इस केस में स्पेशल सेल के अधिकारियों ने आर.डी.एक्स., रिवाल्वर, डेटोनेटर और ग्यारह लाख रूपये की बरामदगी दिखायी थी। इस मामले की विवेचना ए.सी.पी. संजीव कुमार यादव ने की थी। इस केस में जिस बस पर आरोपियों को सवार दिखाया गया था उस बस के कंडक्टर सोनू दहिया ने अदालत को बताया कि उस दिन बताये गये स्थान पर बस की सेवा ही नहीं थी। विवेचक एसीपी संजीव कुमार यादव ने अदालत को बरामदगी का जो विवरण दिया वह चार्जशीट में दर्ज कहानी का उलटा था। सबसे बड़ी बात तो यह कि बरामदगियों के बारे में श्री शर्मा ने विवेचक को पहले ही बता दिया था। दरअसल अभियुक्तों ने अदालत को बताया कि उन्हें पुलिस के कहने के अनुसार 10 दिसम्बर को नहीं बल्कि 27 नवम्बर को ही गिरफ्तार किया गया था। इस केस का फैसला सुनाते हुये अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, उत्तरी दिल्ली धर्मेश शर्मा ने यह टिप्पणी की ‘तो क्या मैं यह मान लूँ कि यह एक मानवीय गलती थी या कुछ और! मूल बात यह थी कि क्या उपरोक्त गलतियाँ वास्तविक थीं या जान-बूझकर पूरी कहानी को गढ़ने की कोशिश में हो गयी थीं‘।
राज्य बनाम मुख्तार अहमद खान एफ.आई.आर. व सेशन केस संख्या 48/07, फैसला 21, अप्रैल 2012 में आया। अभियोजन की कहानी के अनुसार अबू मुसाब उर्फ ताहिर और अबू हमज़ा पाक निवासी तथा कुपवाड़ा और बारामुला के लश्कर के जिला कमाण्डर दिल्ली में आतंकी घटनाओं को अंजाम देने की योजना बना रहे हैं। गुप्त सूचना के अनुसार कुपवाड़ा निवासी मुख्तार के हाथों घटना अंजाम दी जानी थी। एसीपी संजीव कुमार यादव के निरीक्षण और इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा के नेतृत्व में एक टीम गठित की गयी। इस टीम में इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा, एस.आई. राहुल कुमार, रमेष लांबा, दिलीप कुमार, रवीन्दर त्यागी, धर्मेंद्र कुमार, ए.एस.आई. चरन सिंह, संजीव कुमार, हरिद्वारी, अनिल त्यागी, प्रहलाद, हेड कांस्टेबल उदयवीर, कृष्ण राम, संजीव, कांस्टेबल राजिंदर, राजीव, बलवंत, अमर सिंह और राम सिंह शामिल थे। खबरी से एस.आई. धर्मेन्द्र को सूचना मिली कि मुख्तार हथियारों का एक बड़ा कंसाइनमेन्ट अपने साथियों को सौंपने आज़ादपुर मंडी आ रहा है। चार सदस्यीय टीम को सीमा लाज जहाँ वह ठहरा हुआ था, की निगरानी के लिये भेज दिया गया, बाकी को हथियारों और गोला-बारूद, बुलेट प्रूफ जैकेटों और आई.ओ. किट से लैस करके निजी वाहनों में आज़ादपुर फल मंडी रवाना कर दिया गया। पुलिस बल ने उसे दबोच लिया। तलाषी लेने पर डेढ़ किलो आर.डी.एक्स., डेटोनेटर और टाइमर बरामद हुआ। ए.सी.पी. संजीव कुमार ने इस केस की तफतीश की। हकीकत यह थी कि मुख्तार को 7, जून 2007 को गिरफ्तार किया गया था और पाँच दिन गैर कानूनी हिरासत में रखने के बाद फर्जी तरीके से उसकी गिरफ्तारी व बरामदगी दिखायी गयी थी।
स्पेशल सेल की सारी कहानी फर्जी साबित हुयी। यह रहस्य भी खुला कि फर्जी विस्फोटक विशेषज्ञ से बरामद वस्तुओं की जाँच करवा कर नियमों के विरुद्ध रिपोर्ट प्राप्त की गयी थी। फोरेंसिक विशेषज्ञ ने भी माना कि आई.ओ. द्वारा निर्देषित पैरामीटरों पर ही उसने रिपोर्ट तैयार की थी। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश-02, तीस हज़ारी कोर्ट, नई दिल्ली सुरेन्दर एस राठी ने मुख्तार को बरी कर दिया। अदालत ने यह टिप्पणी भी की ’स्पेशल सेल को मिलने वाली गुप्त सूचनाओं के दावों अथवा उसके काम करने के तरीकों में कुछ तो गम्भीर रूप से गड़बड़ है’।
राज्य बनाम खोंगबेन्तबम ब्रोजेन सिंह एफ.आई.आर. संख्या 93/02 का फैसला 12, मई 2009 को सुनाया गया। ए.सी.पी. राजबीर सिंह को आई.बी. से सूचना मिली कि पी.एल.ए. के आतंकवादी ब्रोजेन सिंह व उसका साथी पी.एल.ए. के लिये हथियार जुटाने दिल्ली आये हैं। स्पेशल सेल की एक टीम गठित की गयी जिसमें ए.सी.पी. राजबीर सिंह, इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा, एस.आई. हृदय भूषण, बद्रीशदत्त, शरद कोहली और माहताब सिंह शामिल थे। उसके पास से रिवाल्वर, सी.पी.यू. और लैपटाप बरामद दिखाया गया। मुकदमे के दौरान यह पाया गया कि 15, मार्च 2002 को ए.सी.पी. राजबीर द्वारा गिरफ्तारी के समय लिया गया ब्रोजेन का खुलासा बयान और उपायुक्त उज्ज्वल मिश्रा द्वारा 23, अप्रैल 2002 को पोटा की धारा 32 के तहत दर्ज किया गया हलफनामा एक ही था। अदालत ने कहा कि ’कामा और पूर्ण विराम सहित पूरा का पूरा बयान ज्यों का त्यों है इससे पता चलता है कि इंसानी तौर पर ऐसा हलफनामा देने वाले और दर्ज करने वाले दोनों व्यक्तियों के लिये एक जैसा हूबहू शब्द दर शब्द हलफिया बयान दर्ज करना असंभव है’। यह भी पाया गया कि कंप्यूटर में कई फाइलें ऐसी भी थीं जो जब्त किये जाने के महीनो बाद का समय दर्शाती थीं और ऐसी फाइलों को आपत्तिजनक सबूतों के तौर पर दिखाया गया था।
वास्तविकता यह है कि ब्रोजेन सिंह ने अफसपा के खिलाफ आन्दोलनों मे हिस्सा लिया था जिससे रुष्ट होकर मणिपुर पुलिस ने उसे फर्जी मुकदमों मे फँसाया था, जिसे उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था। उसके बावजूद उसे गैर कानूनी तौर पर बन्द रखा गया। उसने सरकार के खिलाफ अवमानना का मुकदमा कायम किया जिसमें अधिकारियों को सजा और जुर्माना हुआ। दिल्ली में वह अपना इलाज करवाने के लिये आया तो खुफिया एजेंसी की साजिश के तहत उसे यहाँ फँसा दिया गया। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, दिल्ली जे0आर0 आर्यन ने उसे मुक्त करने का फैसला सुनाते समय यह टिप्पणी की ’राज्य अधिकारियों को आतंकी होने का शक था और वह पहले से ही अवमानना के मामले में राज्य अधिकारियों को सजा दिलवाकर क्रोधित कर चुका था। पुलिस ने उसे इस अपराध के लिये टार्गेट बनाया’।
ऐसे कई और मामले सामने आ चुके हैं जब न्यायालय ने दिल्ली स्पेशल सेल के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणियाँ की हैं और ए.सी.पी. संजीव कुमार यादव समेत बटला हाउस छापामार दस्ते में शामिल शायद ही ऐसा कोई पुलिस अधिकारी हो जो इन टिप्पणियों की परिधि में पहले न आ चुका हो। राज्य बनाम साकिब रहमान, बशीर अहमद शाह, नज़ीर अहमद सोफी आदि एफ.आई.आर. संख्या 146/05 सेशन केस नम्बर 24/10 में 2, फरवरी 2011 को फैसला सुनाते हुये अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, द्वारका कोर्ट, नई दिल्ली वीरेन्द्र भट्ट ने न सिर्फ स्पेशल सेल के पुलिस अधिकारियों को कड़ी फटकार लगायी बल्कि एस.आई. विरेन्दर, एस.आई. निराकार, एस.आई. चरन सिंह एस.आई. महेन्दर सिंह के खिलाफ कानूनी कार्रवाई सुनिश्चित करने की संस्तुति भी की। उ


