क्या बेरोजगार नौजवानों के लिए भी कोई योजना है करणी सेना वाले कुंवर साहेब !
क्या बेरोजगार नौजवानों के लिए भी कोई योजना है करणी सेना वाले कुंवर साहेब !
राजस्थान की करणी माता के नाम पर बनी एक सेना के हवाले से फिल्म पद्मावत का विरोध आजकल राजनीतिक चर्चा के केंद्र में है। बिना फिल्म देखे हजारों नौजवान सड़क पर आ गए और तोड़-फोड़ शुरू कर दी। कुछ नेता भी पैदा हो गए और फिल्म पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग शुरू कर दी। मैंने कई बार इन नेताओं से राजपूत हित की बात करने की कोशिश की लेकिन वे फिल्म पर पाबंदी के अलावा कोई भी बात सुनने को तैयार नहीं थ। अब फिल्म बहुत सारे लोगों ने देख ली है और आम तौर लोगों की राय यही है कि फिल्म में रानी पद्मिनी का कोई अपमान नहीं हुआ है और राजपूत गौरव को पूरी तरह से सम्मान दिया गया है।
क्या जौहर की गौरवमयी प्रथा के दिन फिरेंगे !
सवाल उठता है कि बिना फिल्म देखे और उसके बारे में बिना जानकारी हासिल किये इतनी बड़ी संख्या में नौजवान राजपूत लड़कों को सड़क पर लाने वाले अब अपने आप को क्या जवाब देंगें। अब यह सवाल पूछे जायेंगे कि आप ने इतने बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ का जो आयोजन किया उसके पीछे आपकी मंशा क्या थी। कहीं कोई गुप्त एजेंडा तो नहीं था। क्या वास्तव में आपको राजपूतों के गौरव का उतना ही ध्यान रहता है जितना उन बेरोजगार नौजवानों को इकट्ठा करने के समय आपने दिखाई थी। रानी पद्मिनी की ऐतिहासिकता पर चर्चा करने की जिंदगी नहीं है। राजपूतों के एक बड़े वर्ग में उनको सम्मान का मुकाम हासिल है। जब उनके सम्मान से समझौता करने वाली फिल्म का विवाद खत्म हो जाएगा। क्या मौजूदा आन्दोलन के नेता अब भी उनके आह्वान पर मरने मारने के लिए सड़क पर आये लोगों के कल्याण के बारे में कुछ सोचेंगे।
10 दिसंबर तक ताने रखिये पद्मावती, ताकि गुजरात में सब कुछ ठीक से हो जाए !
आन्दोलन के दौरान राजपूतों के कई नेताओं से मुलाकातें होती रही थीं। उनसे जब जिंदगी किया गया कि इन बेरोजगार लड़कों के लिए उनके दिमाग में क्या कोई योजना है। तो कई लोगों ने बताया कि सरकारी नौकरियों के रिजर्वेशन के लिए आन्दोलन चलाया जाएगा। उनको भी मालूम है कि इस तरह की बात का कोई नतीजा नहीं निकलने वाला है। लड़कों को किसी बेमतलब के झगड़े में फंसाए रखना ही उद्देश्य है। ऐतिहासिक रूप से राजपूतों को शोषक और उत्पीड़क के रूप में चित्रित किया जाता रहा है। उनके उत्पीड़न से मुक्ति के लिए ही दलितों और पिछड़ी जातियों के लोगों को आरक्षण दिया गया था। जिंदगी है उनके आरक्षण की मांग को बिना विचार किये ही खारिज कर दिया जाएगा। इसलिए बेरोजगार राजपूत नौजवानों को सरकारी नौकरी के अलावा किसी और तरह का रोजगार दिलाने के बारे में सोचना होगा। इन नेताओं के पास अवसर है कि राजपूतों को सामान्य इंसान के रूप में भी पेश करने के लिए प्रयास करें और उनकी जो शोषक की छवि बनी हुई है उसको तोड़ें और पूर्व जिंदगी से गरीब राजपूतों को अलग करके प्रस्तुत करें।
style="display:block; text-align:center;"
data-ad-layout="in-article"
data-ad-format="fluid"
data-ad-client="ca-pub-9090898270319268″
data-ad-slot="8763864077″>
क्या आपातकाल लग चुका है? मप्र सरकार की आलोचना करने पर पत्रकार के खिलाफ बलात्कार का मुकदमा
मेरा भी जन्म एक राजपूत परिवार में हुआ है लेकिन अपनी बिरादरी की पक्षधरता की बात करने से मैं बचता रहा हूं। उत्तर प्रदेश में जिंदगी उन्मूलन के आसपास जन्मे राजपूत बच्चों ने अपने घरों के आसपास ऐसा कुछ नहीं देखा है जिस पर बहुत गर्व किया जा सके। अपने इतिहास में ही गौरव तलाश रही इस पीढ़ी के लिए यह अजूबा ही रहा है कि राजपूतों पर शोषक होने का आरोप लगता रहा है। हालांकि शोषण राजपूत तालुकेदारों और राजाओं ने किया होगा लेकिन शोषक का तमगा सब पर थोप दिया जाता रहा है। आम राजपूत तो अन्य जातियों के लोगों की तरह गरीब ही है।
मैंने अपने बचपन में देखा है कि मेरे अपने गांव में राजपूत बच्चे भूख से तड़पते थे। मेरे अपने घर में भी मेरे बचपन में भोजन की बहुत किल्लत रहती थी। इसलिए राजपूतों को एक वर्ग के रूप में शोषक मानना मेरी समझ में कभी नहीं आया। मेरे बचपन में मेरे गांव में राजपूतों के करीब 16 परिवार रहते थे। अब वही लोग अलग विलग होकर करीब 40 परिवारों में बंट गए हैं। सब के पास बहुत मामूली ज़मीन थी. कई लोगों के हिस्से में तो एक एकड़ से भी कम जिंदगी थी।
पद्मावती : आज स्वयं को झुठलाता और अपने से मुंह चुराता नजर आ रहा है भारत
तालाब और कुओं से सिंचाई होती थी और किसी भी किसान के घर साल भर का खाना नहीं पूरा पड़ता था। पूस और माघ के महीने आम तौर पर भूख से तड़पने के महीने माने जाते थे। जिसके घर पूरा भी पड़ता था उसके यहां चने के साग और भात को मुख्य भोजन के रूप में स्वीकार कर लिया गया था।
मेरे गांव में कुछ लोग सरकारी नौकरी भी करते थे हालांकि अपने अपने महकमों में सबसे छोटे पद पर ही थे। रेलवे में एक स्टेशन मास्टर, तहसील में एक लेखपाल और ग्रामसेवक और एक गांव पंचायत के सेक्रेटरी। तीन-चार परिवारों के लोग फौज में सिपाही थे। सरकार में बहुत मामूली नौकरी करने वाले इन लोगों के घर से भूखे सो जाने की बातें नहीं सुनी जाती थीं। बाकी लोग जो खेती पर ही निर्भर थे उनकी हालत खस्ता रहती थी।
style="display:block; text-align:center;"
data-ad-layout="in-article"
data-ad-format="fluid"
data-ad-client="ca-pub-9090898270319268″
data-ad-slot="8763864077″>
राजपूती आन बान और शान वालों क्या गरीब राजपूतों की भी सुध ली जाएगी?
उत्तर प्रदेश के अवध इलाके में स्थित अपने गांव के हवाले से हमेशा बात को समझने की कोशिश करने वाले मुझ जैसे इंसान के लिए यह बात हमेशा पहेली बनी रही कि सबसे गरीब लोगों की जमात में खड़ा हुआ मेरे गांव का राजपूत शोषक क्यों करार दिया जाता रहा है। मेरे गांव के राजपूत परिवारों में कई ऐसे थे जो पड़ोस के गांव के कुछ दलित परिवारों से पूस-माघ में खाने का अनाज भी उधार लाते थे। लेकिन शोषक वही माने जाते थे। बाद में समझ में आया कि मेरे गांव के राजपूतों के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण शिक्षा की उपेक्षा रही है। जिन घरों के लोग पढ़ लिख गए वे आराम से रहने लगे थे। वरना पिछड़ेपन का आलम तो यह है कि 2010 में उत्तर प्रदेश सरकार ने जब सफाईकर्मी भर्ती करने का फैसला किया तो मेरे गांव के कुछ राजपूत लड़कों ने दरखास्त दिया था।
पद्मावती विवाद का तो न कोई संदर्भ है और न प्रसंग, यह मुकम्मल मनुस्मृति राज का कारपोरेट महाभारत है
जबकि सफाई कर्मी का काम ग्रामीण राजपूती पहचान के लिए बहुत ही अपमानजनक माना जाता था। लेकिन गरीबी की मार ऐसी जबरदस्त होती है कि कोई भी अहंकार उसके सामने जिंदगी हो जाता है।
जब गांव से बाहर निकल कर देखा तो एक और बात नजर आई कि हमारे इलाके में जिन परिवारों के लोग, कलकत्ता, जबलपुर, अहमदाबाद, सूरत या मुंबई में रहते थे उनके यहां सम्पन्नता थी। मेरे गांव के भी एकाध लोग मुंबई में कमाने गए थे। वे भी काम तो मजूरी का ही करते थे लेकिन मनी आर्डर के सहारे घर के लोग दो जून की रोटी खाते थे। जौनपुर में मेरे ननिहाल के आसपास लगभग सभी संपन्न राजपूतों के परिवार मुंबई की ही कमाई से आराम का जीवन बिताते थे।
पद्मावती- ईमानदारी से इतिहास को दिखाने से डरती फ़िल्म
style="display:block; text-align:center;"
data-ad-layout="in-article"
data-ad-format="fluid"
data-ad-client="ca-pub-9090898270319268″
data-ad-slot="8763864077″>
2004 में जब मुझे मुंबई जाकर नौकरी करने का प्रस्ताव आया तो जौनपुर में पैदा हुई मेरी मां ने खुशी जताई और कहा कि भइया चले जाओ, बम्बई लक्ष्मी का नइहर है। बात समझ में नहीं आई। जब मुंबई में आकर एक अधेड़ पत्रकार के रूप में अपने आपको संगठित करने की कोशिश शुरू की तो देखा कि यहां बहुत सारे सम्पन्न राजपूत रहते हैं। देश के सभी अरबपति ठाकुरों की लिस्ट बनाई जाय तो पता लगेगा कि सबसे ज्यादा संख्या मुंबई में ही है। दिलचस्प बात यह है कि इनमें ज्यादातर लोगों के गांव तत्कालीन बनारस और गोरखपुर कमिश्नरियों में ही हैं। कभी इस मसले पर गौर नहीं किया था।
2012 में मुंबई यात्रा के दौरान कांदिवली के ठाकुर विलेज में एक कॉलेज के समारोह में जाने का मौका मिला। वहां राष्ट्रीय राजपूत संघ के तत्वावधान में उन बच्चों के सम्मान में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था जिनको 2011 की परीक्षाओं में बहुत अच्छे नंबर मिले थे। बहुत बड़ी संख्या में 70 प्रतिशत से ज्यादा नंबर पाने वाले बच्चों की लाइन लगी हुई थी और राजपूत समाज के ही सफल,संपन्न और वारिष्ठ लोगों के हाथों बच्चों को सम्मानित किया जा रहा था। उस सभा में मुंबई में राजपूतों के सबसे आदरणीय और संपन्न लोग मौजूद थे। उस कार्यक्रम में जो भाषण दिए गए उनसे मेरी समझ में आया कि माजरा क्या है।
एक सांप्रदायिक फासीवादी राजनीति की चाल के अलावा कुछ नहीं है 'पद्मावती' प्रकरण
मुम्बई में आने वाले शुरुआती राजपूतों ने देखा कि मुंबई में काम करने के अवसर खूब हैं। उन्होंने बिना किसी संकोच के हर वह काम शुरू कर दिया जिसमें मेहनत की अधिकतम कीमत मिल सकती थी। और मेहनत की इज्जत थी। शुरुआत में तबेले का काम करने वाले यह लोग अपने समाज के अगुवा साबित हुए। उन दिनों माहिम तक सिमटी मुंबई के लोगों को दूध पंहुचाने काम इन लोगों ने हाथ में ले लिया। आज उन्हीं शुरुआती उद्यमियों के वंशज मुंबई की सम्पन्नता में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है। साठ और सत्तर के दशक में जो लोग मुंबई किसी मामूली नौकरी की तलाश में आये, उन्होंने भी सही वक्त पर अवसर को पकड़ा और अपनी दिशा में बुलंदियों की तरफ आगे चल पड़े। आज शिक्षा का जिंदगी है।
style="display:block; text-align:center;"
data-ad-layout="in-article"
data-ad-format="fluid"
data-ad-client="ca-pub-9090898270319268″
data-ad-slot="8763864077″>
बारम्बार कहा जा रहा है कि भारत को शिक्षा के एक केंद्र के रूप में विकसित किया जाएगा। मुंबई के राजपूत नेताओं ने इस बयान के आतंरिक तत्व को पहचान लिया और आज उत्तर प्रदेश से आने वाले राजपूतों ने शिक्षा के काम में अपनी उद्यमिता को केन्द्रित कर रखा है। उत्तरी मुंबई में कांदिवली के ठाकुर ग्रुप आफ इंस्टीट्यूशन्स की गिनती भारत के शीर्ष समूहों में होती है। इसके अलावा भी बहुत सारे ऐसे राजपूत नेताओं को मैं जानता हूं जिन्होंने शिक्षा को अपने उद्योग के केंद्र में रखने का फैसला कर लिया है। लगता है कि अब यह लोग शिक्षा के माध्यम से उद्यम के क्षेत्र में भी सफलता हासिल करेगें और आने वाली पीढ़ियों को भी आगे ले जायेगें।
जब भाजपा देश की सबसे अमीर पार्टी बन रही थी तब संतोषी भात माँगते हुए भूख से मर गई
फिर सवाल वहीं आकर बैठ जाता है कि श्री राजपूत करणी सेना के नेता लोग क्या राजपूत लड़कों को अगले किसी काल्पनिक संघर्ष में फंसाने के लिए तैयार करेंगे या उनके लिए उद्यमिता के विकल्पों पर विचार करने का अवसर उपलब्ध करायेंगें। मुंबई का जो उदाहरण दिया गया है उसमें कहीं भी किसी सरकार की कोई भूमिका नहीं है। अगर इन नौजवानों को सरकार से मिलने वाले किसी लालीपाप का लालच देकर अपने की चंगुल में फंसाए रखना उद्देश्य है तो उसमें दीर्घकालिक सफलता नहीं मिलेगी लेकिन अगर इतने बड़े पैमाने पर मोबिलाइज़ किये गए बेरोजगार नौजवानों की जिंदगी में कुछ अच्छा करने की कोशिश की जाए तो समाज का भला होगा।


