सुन्दर लोहिया
महाराष्ट्र और हरियाणा की विधानसभाओं के चुनाव में देश की राजनीति में कुछ मूलगामी किस्म के बदलाव सम्भावना दिख रही है। एक पक्ष यह है कि अब स्थानीय की अपेक्षा केन्द्रीय राजनीति राज्य पर हावी हो रही है। इसका प्रमाण है केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा को क्षेत्रीय शिवसेना से अधिक सीटें मिली जो राज्य के चुनावी इतिहास में पच्चीस वर्ष बाद किसी एक दल को सौ से अधिक सीटें मिली हैं। हरियाणा में राष्ट्रीय लोकदल इसके बुजुर्ग नेता ओमप्रकाश को बेल की अवधि में जेल भेजने पर सहानुभूति लहर की जो उम्मीद थी उसके कारण दूसरे स्थान पर और जनहित कांग्रेस जैसी क्षेत्रीय पार्टी तीसरे स्थान पर लुढ़क गई। केन्द्रीय राजनीति की धुरी जो पिछले चुनावों में वाम रुझान वाली दक्षिणपंथी पार्टी की तरफ झुकी हुई थी इस बार धुर दक्षिण की ओर मुड़ गई है। दोनों राज्यों में जाति आधारित पार्टियों को मतदाताओं ने नकार दिया है। इसका मतलब यह नहीं कि अब देश में क्षेत्रवाद या जातिवाद समाप्त हो जायेगा और राजनीति मुद्दों पर आधारित हो जायेगी। ऐसा कोई स्पष्ट संकेत इन चुनावों में नहीं मिलता। मुद्दे तो अभी दूर के ढोल की तरह सुहावने ही लगते हैं। हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों राज्यों भ्रष्टाचार के विरुद्ध किसी हद तक जनाक्रोश देखा गया लेकिन अन्य मुद्दों में धर्मनिरपेक्षता उलटे पांव मुड़ती दिख रही है। महाराष्ट्र में एमआइएम नामक मुस्लिम पार्टी ने अपना स्वतन्त्र खाता खोल कर कांग्रेस की छद्म धर्मनिपेक्षता के खिलाफ अपना गुस्सा प्रकट किया है। राकांपा द्वारा बिना शर्त बाहर से समर्थन देने के कारण भाजपा शिवसेना से मोलभाव करने की स्थिति में है क्योंकि दोनों पार्टियों के सदस्यों की संख्या मिलाकर स्पष्ट बहुमत से ज़्यादा ही बनती है। इसमें किसी तीसरी पार्टी के साथ सहयोग की आवश्यकता नहीं रहती है। वास्तव में सेना और भाजपा की खींचतान अब तो सिर्फ राजनीतिक नौटंकी बनती जा रही है। दोनों दल अच्छी तरह जानते हैं कि अंत में उन्हें एक दूसरे से मिल कर ही काम करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है।
इस चुनाव ने राष्ट्रीय स्तर पर भी कुछ प्रभावशाली परिणाम पेश किये हैं। चुनाव आयोग की विज्ञप्ति द्वारा देश की मान्यता प्राप्त राजनीतिक पार्टियों की संख्या केवल तीन रह गई। कांग्रेस और भाजपा के अलावा वामपंथी पार्टियों में केवल माकपा ही अपना वजूद बचा पाई है। इस तरह यदि सोलहवीं लोकसभा के चुनाव ने भारतीय राजनीति का भावी स्वरूप काफी हद तक स्पष्ट कर दिया है। इस नतीजे का विवेकसम्मत विश्लेषण से साफ हो जाता है कि आने वाले दिनों देश की राजनति में वाम और दक्षिण ध्रुव के तौर पर माकपा और भाजपा के बीच संघर्ष होगा और वह धीरे धीरे वर्ग संघर्ष का रूप लेता जायेगा। इसमें कांग्रेस एक कैटेलिक एजेण्ट की तरह काम करेगी। लोकसभा चुनाव के बाद कुछ राज्यों में कांग्रेस ने वापसी की उम्मीद पैदा की थी जो हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों में विलुप्त हो गई। इसके अलावा वित्त मन्त्री द्वारा विदेशी बैंक में संप्रग सरकार के पूर्वमन्त्री के होने को उछाल कर उसे फिर रक्षात्मक मुद्रा में पंहुचा दिया है। इतना ही नहीं मोदी सरकार कांग्रेस के नेहरू गान्धी परिवार को जवाहर लाल नेहरु की 125वीं जयन्ती के आयोजन समिति में स्थान न देकर अपनी नेहरु विरोधी मानसिकता को ही अभिव्यक्त किया है। इस सारे घटनाक्रम का समग्र प्रभाव सोनिया गांधी और उसकी सन्तान को राजनीतिक तौर पर अपमानित करके उनके मनोबल को तोड़ने की चाल के तौर पर देखा जा रहा है। कांग्रेस के भीतर भी अब राहुल और सोनिया के विरुद्ध दबी जबान में और कई जगह खुलकर विरोध प्रकट किया जा रहा है। खासकर दामाद राबर्ट वाड्रा और मुख्यमन्त्री हुड्डा को हरियाणा में अपमानजनक हार का जिम्मेवार माना जा रहा है। कुल मिलाकर कांग्रेस जो अपने वजूद को नेहरु परिवार के साथ जोड़ कर चल रही थी अब संकट के दौर में है। इसलिए फिलवक्त जो राजनीतिक परिदृश्य बन रहा है उसमें देश की राजनीति अब स्पष्ट रूप में दक्षिण बनाम वामपंथ के दो ध्रुवों में बंट सकती है। जनता भी इस बदलाव का स्वागत करेगी क्योंकि लम्बे समय तक कांग्रेस के शासन में देश की अर्थव्यवस्था को घड़ी के पैण्डुलम की तरह कभी दांए कभी बांए मोड़ती रही और आम आदमी के सपने जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान संजोये थे सब टूटते चले गये। कांग्रेस एक अवसरवादी पार्टी की तरह जनता के रुख को देख कर कभी दाएं और कभी कभार बाएं मुड़ कर जनाक्रोश को शांत करने की कला में निपुण होती गई। एक हाथ से राजाओं के प्रीविपर्स खत्म करके बैंकों का राष्ट्रीय करण किया तो दूसरे हाथ से संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए देश पर आपतकाल लाद कर अपनी गद्दी सुरक्षित करने में भी गुरेज़ नहीं किया। ऐसी राजनीतिक जड़ता को तोड़ते हुए जनता ने 2014 के लोकसभा चुनाव में एकदम धुर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी पार्टी को सत्ता सौंप कर दाएं-बाएं के ढुलमुलपन से मुक्ति पाने के प्रयास में भाजपा के कांग्रेसमुक्त भारत के नारे का समर्थन किया है। पर इसका मतलब यह नहीं कि मोदी सरकार बहुमत के नशे में संविधान के लोकतान्त्रिक सारतत्व को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को लादने के लिए स्वतन्त्र हो गई। वास्तव में देश ने अभी तक अटलबिहारी वाजपेयी की भाजपा नीत गठबन्न्धन सरकार ही देखी थी जिसे उदार दक्षिणपंथ का चेहरा माना गया लेकिन इसे संघ परिवार ने मुखौटा घोषित करके अपनी असहमति व्यक्त कर दी थी। नरेन्द्र मोदी में उसे अपना असल प्रचारक नज़र आ रहा है। यह गठबन्धन के दबाव से मुक्त है और प्रचारक की आक्रात्मक मुद्रा बनाये रखने का साहस भी इसमें है। इसलिए संघ को बार-बार हिन्दुत्व की रक्षा के लिए सलाह के नाम पर हस्तक्षेप करने के अवसर मिल रहे हैं। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए अब संघ के प्रमुख राजभवन के सहभोज में शामिल हो कर गौरव अनुभव कर रहे हैं।
जनता भाजपा सरकार के अर्द्धसत्यों को डिकोड करना सीख गई है इसलिए अब इसका काम उतना आसान नहीं है जितना वे मान कर चल रहे हैं। चाहे श्रम कानूनों की बात हो या काश्मीर में बाढ़ के प्रकोप को लेकर मोदी की दरियादिल्ली हो उनके परोक्ष सत्त्य को आसानी से प्रकट कर लेने में जनता दक्षता प्राप्त कर चुकी है। इसलिए श्रम कानून में पगार को सीधे बैंक खाते में डालने की प्रक्रिया या काश्मीर के बाढ़ पीडि़तों की मदद में उदारता का दिखावा उसके पीछे मालिक को छंटनी की सहूलियत और काश्मीर में राज्य विधान सभा में चवालीस का आंकड़ा पाने की चाल जनता समझ रही है। लेकिन धुर दक्षिण को अवसर दिये बिना जिस बदलाव की जनता उम्मीद कर रही है उसे हासिल करना सम्भव नहीं है अतः मोदी सरकार का यह दौर दक्षिण का वाम में परिवर्तन का संधिकाल है। यदि वामपंथी इस अवसर पर चूक गये तो इतिहास उन्हें फिर कभी मौका नहीं देगा।