क्या वाकई प्रधानमंत्री विकास चाहते हैं? और जनांदोलन विकास के विरोधी हैं?
क्या वाकई प्रधानमंत्री विकास चाहते हैं? और जनांदोलन विकास के विरोधी हैं?
विकास का डंडा
हर वो कार्यकर्त्ता, जो पर्यावरण के आधार पर सरकार की योजना पर सवाल उठाता है और संसाधन पर आदिवासी के हक़ की बात करते हुए, विकास के वर्तमान मॉडल पर सवालिया निशान लगाता है; वो कभी ना कभी, सरकार द्वारा: विकास विरोधी; नक्सलवादी और; देशद्रोही करार दे दिया जाता है। इतना ही नहीं, सरकार उसके सांप्रदायिकता जैसे अन्य छुपे एजेंडे के खिलाफ़ आवाज उठाने वालों को भी नहीं बख्शा जाता है। सरकार के पास इस काम के लिए पूरा तन्त्र है। इस बहाने उन कार्यकताओं पर दर्जनों झूठे अपराधिक प्रकरण लाद दिए जाते हैं। यह लम्बे समय से चला रहा है; हर सामाजिक कार्यकर्त्ता इससे दो चार होता है। ऐसे समय में, देश की सवैधानिक अदालतों- उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय, से थोड़ी बहुत राहत की उम्मीद होती है। लेकिन, जब देश के प्रधानमंत्री को यह ना-गवार गुजरे और वो न्याय व्यवस्था के सर्वोच्च पद पर बैठे लोगों को इस विषय में खुले-आम ताकीद करे, तो यह गंभीर बात है। अगर सरकार से असहमति रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं की आवाज़ दबाई जाने पर देश की सवैधानिक अदालते चुप रहेंगी; तो इसका मतलब होगा, व्यवस्था में सत्ता के दमन से बचने के जो थोड़े बहुत सुराख़ है, सरकार उन्हें भी बंद कर देना चाहती है।
पर्यावरण के मुद्दे पर कार्यरत अन्तर्राष्ट्रीय एन. जी. ओ. ग्रीन-पीस के बैंक खातों को सील करने और उनकी कार्यकर्त्ता प्रिया पिल्लई को विदेश जाने से रोकने की मामले दिल्ली हाईकोर्ट ने सरकार के तर्कों को नाकारा; और सरकार के नजरिए से नाइत्तिफ़की रखने के अधिकार को बचाए रखा। लेकिन गृह मंत्रालय ने, एक बार फिर ग्रीनपीस के सारे बैंक खातों – देशी विदेशी सभी- को सील कर दिया है। यहाँ तक की उसके ऑन लाइन चंदा जमा करने की सुविधा भी रद्द कर दी है। उसी तरह, गुजरात में सांप्रदायिकता के खिलाफ पिछले दस साल से लड़ाई लड़ रही सामाजिक कार्यकर्त्ता तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी, तो अब गृह मंत्रालय ने उनके आर्थिक स्रोत बंद करने के लिए, फोर्ड फाउंडेशन पर नकेल कसना शुरू कर दिया।
भारत में संस्थाओं को विदेशी आर्थिक मदद पर पूरी और खुली बहस की जरूरत है; मगर इस तरह से सरकार की एकतरफा दमनात्मक कार्यवाही से सरकार यह संदेश देना चाहती है - अगर अदालतें हमारी नहीं सुनेगी, तो हम विकास के नाम पर समाजिक कार्यकर्ताओं और संस्थाओं पर प्रच्छन्न आपातकाल का नया दौर लाद देंगे!
यह साबित करता है, आने वाले समय में सरकार लोगों को कभी धर्म और कभी विकास के नारे में उलझाकर रखेगी और संसाधनों की लूट जारी रहेगी। और, इसे खिलाफ उठने वाली हर आवाज़ को कुचलेगी; औद्योगिक विकास अपने क्रूरतम रूप में सामने आएगा। लेकिन क्या वाकई ऐसा है; प्रधानमंत्री विकास चाहते हैं? और सामाजिक कार्यकर्त्ता और जनांदोलन विकास के विरोधी हैं?
‘वैकल्पिक विकास’ का यह झगड़ा आजादी के समय से चल रहा है । गांधी जी ने 1909 में लिखी हिन्द स्वराज्य में कहा: हम अंग्रेजों को भगाना तो चाहते हैं, लेकिन उनकी व्यवस्था रखना चाहते हैं। यह उसी तरह हुआ: जैसे शेर को भगाकर उसका स्वभाव रखना। इसलिए आज़ादी के आन्दोलन के दौरान उन्होंने सिर्फ अंग्रेजों के शासन की खिलाफत नहीं की, बल्कि अंग्रेजों से जुदा विकास और शासन संचालन की दिशा में लगातार प्रयास किए। वो जानते थे, इसे अपनाने की राजनैतिक इच्छा शक्ति कांग्रेस में नहीं थी, इसलिए उन्होंने इस बारे में 5 अक्टूबर 1945 को नेहरु को एक लम्बा पत्र लिखा था। लेकिन, नेहरु ने एक-दो मेल-मिलाप के बाद इस बहस को आगे बढ़ने नही दिया।
अगर हम इसे कुछ महत्वपूर्ण आंकड़ों के आलोक में देखेंगे तो हमें इस विकास की हकीगत पता चलेगी। हालात ऐसे हो गए हैं कि इस कृषि प्रधान देश में 1995 से 2013 के बीच 2,96,438 किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए हैं। एशिया विकास बैंक के आंकड़े के अनुसार भारत में पिछले बीस सालों में लोगों की कमाई में असामनता दुगनी हुई है। एक चौथाई बच्चे कुपोषण का शिकार हैं; यूनिसेफ के अनुसार आदिवासी में तो हर दूसरा बच्चा अवरुद्ध विकास का शिकार है। नेशनल सेम्पल सर्वे के अनुसार: देश की आधी आबादी या तो नाममात्र पढ़ी है, या अनपढ़ है और; 7.3 प्रतिश्त लोग ही स्नातक की डिग्री हासिल कर पाए हैं, दलित, आदिवासी, ग्रामीण महिला और मुस्लिम में तो यह प्रतिश्त 2 है। आज भी 50% विद्यार्थी पढ़ाई करने रोज स्कूल नहीं जाते हैं। देश के गाँवों में परंपरागत चिकित्सा पद्धति मर गई है और डॉक्टर की 75% कमी है। वहीं न्याय व्यवस्था के हालात यह हैं: तीन करोड़ मामले देश की विभिन्न अदालतों में लम्बित हैं; और निचली अदालत से लेकर उच्चतम न्यायालय तक इन्हें निपटाने के लिए लोक अदालतों का सहारा ले रही है। श्रम मंत्रालय के अनुसार जहाँ 2.89 करोड़ लोग संगठित रोजगार में लगे है; तो, 3.99 करोड़ लोग बेरोजगार है। यानि विकास का यह मॉडल जितने लोगों को रोजगार देता है, उससे डेढ़ गुना लोगों को बेरोजगार रखता है। वहीं ग्लोबल फाइनेंसियल इंटीग्रिटी की रिपोर्ट के अनुसार: 1948 से लेकर 2008, इन 60 सालों में, भारत से 28 हजार 736 अरब करोड़ रुपए का काला धन विदेशों गया है।
और जहाँ दो तिहाई जनता विकास से महरूम है, वहीं विश्व बैंक द्वारा पर्यावरण के दुष्परिणाम पर 2013 में जारी रिपोर्ट के अनुसार- भारत में हर साल पर्यावरण गिरावट के कारण लगभग 5 लाख करोड़ रुपए – याने सकल घरेलू उत्पाद का 6% - का आर्थिक नुकसान होता है।
जैसा गांधीजी ने कहा था: प्रकृति के हर एक की जरूरत तो पूरी कर सकती है; मगर, किसी एक का भी लालच नहीं। गांधी अव्यवहारिक नहीं थे; वो जानते थे, हमारे देश में विभिन्न समुदायों के पास अटूट परम्परागत ज्ञान और प्रकृति के साथ सहवास की समझ है। लेकिन, आज व्यवस्था ने इन्हें पिछड़ा; दलित, चोर और विद्रोही बना दिया है ।
हमारे प्रधानमंत्रीजी को यह समझना होगा गांधी की बात भर करने से कुछ नहीं होगा; उनकी विकास की सोच पर चर्चा करने और उसे अमल में लाने की हिम्मत दिखाना होगी। आज जरूरत है, अपना केरियर झोड़ ग्रामीण ईलाके में अपनी जिन्दगी झोकने वाले इन ‘छोटे-छोटे’ गांधी और भगतसिंह की बात को सरकार समझे, ना कि उन्हें देशद्रोही करार देकर कुचले। और ‘वैकल्पिक विकास’ की सोच पर देशव्यापी बहस चलाए। और एक ऐसी व्यवस्था कायम हो जहाँ आधुनिकता के उपयोग से किसान समृद्ध हो ना कि कर्ज में डूब आत्महत्या करने को मजबूर। आमजनता के कौशल को निखारा जाए, ना कि नाकारा जाए। ऐसा होगा, तभी ‘ सबका विकास और सबका साथ ’ का नारा सार्थक होगा। वर्ना, इन वर्गों की आवाज उठाने वाले कार्यकर्ताओं पर विकास का डंडा चला प्रच्छन्न आपातकाल लाद कर, तो देश बर्बादी की तरफ ही बढ़ेगा।
अनुराग मोदी


