स्वराज को अभी प्रतीक्षा करनी होगीं। ’आप’ की जीत का सच यही है। वह हार जाती तो भी, सच यही रहता।
अरुण तिवारी
श्री अरविंद केजरीवाल को मैंने सबसे पहले टाइम्स समूह की मुखिया इंदु जैन के घर ’नगर स्वराज’ के अवधारणा पत्र के साथ देखा और फिर 2007 के दिल्ली नगर निगम के चुनावों में ’स्वराज’ के सादे कियोस्क के रूप में।
फिर वह अन्ना के साथ दिखे; रामलीला मैदान से लेकर जंतर-मंतर तक जनलोकपाल पर जन को जगाते..सरकार को झुकाते। इसी बीच खबर आई कि एक निवासी के तौर पर वह चाहते हैं कि कौशाम्बी रेजिडेन्शियल वैलफेयर एसोसिएशन ’कारवा’ गाजियाबाद के मेयर को काम बताये और स्थानीय निकाय उसका क्रियान्वयन करे। यदि स्थानीय निकाय ऐसा करने में असमर्थ हो, तो वह ’कारवा’ को टैक्स वसूलकर उस पैसे से स्थानीय विकास करने का अधिकार दे। इसके बाद उन्होने टीम अन्ना से अलग होकर आम आदमी पार्टी ’आप’ बनाई। 2012 में ’स्वराज’ का उनका सपना एक पुस्तक के रूप नजर आया और फिर 2013 में ’आप’ के घोषणापत्र में। स्वराज का सपना दिखाते इसी घोषणापत्र को आगे रखकर आम आदमी पार्टी देश की राजधानी के चुनावी मैदान में उतरी और देखते ही देखते गजब हो गया। ’आप’ ने कहा कि वह जनता व सरकार का रिश्ता बदलना चाहती है, सत्ता की चाबी जनता को सौंपना चाहती है और नतीजे बदल गये। आज ’आप’ दिल्ली की सरकार है।
बदलाव का जनादेश कोई एकदम नई पार्टी पहली बार किसी राज्य स्तरीय चुनाव में उतरे और उस राज्य की जनता उसके लिए सत्ता के ताले खोलने को इस कदर बेताब दिखे; ऐसा शायद ही भारतीय चुनाव के इतिहास में पहले कभी हुआ हो। किसी मुख्यमंत्री को हराकर कोई खुद मुख्यमंत्री बन बैठे; भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसा भी पहली बार ही हुआ। 28 सीटों पर नंबर एक; 20 सीटों पर नंबर दो। दक्षिणी दिल्ली की ग्रेटर कैलााश जैसी पाॅश काॅलोनियों से लेकर 12 में से 9 सुरक्षित सीटों पर ’आप’ का कब्जा। दलित का दम बांधने वाली बसपा को एक भी सीट नहीं मिली। कांग्रेस के काम नहीं आया सरकारी कर्मचारी को दिया मंहगाई भत्ता में बढोत्तरी का बम्पर तोहफा।
भाजपा के व्यापारी वोट बैंक ने भी किया ’आप’ के पक्ष में क्रेडिट। जाति-धर्म का समीकरण भी हुआ फेल; सिवाय इसके कि मुसलिम उम्मीदवारों की जीत सिर्फ जनता दल ( यू ) और कांग्रेस के हिस्से में ही आई। मोदी की हुंकार के नतीजे भी हुए सीमित। वंशवाद को भी लगा झटका। पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिहं वर्मा के पुत्र प्रवेश वर्मा छोड़ सभी नेता संतानें हारीं। बड़े-बड़े दिग्गजों ने बच्चों के सामने धूल चाटी। इसी के साथ देश की सबसे युवा विधानसभा बन गई। सब कुछ अप्रत्याशित! जनता को कोई नहीं समझ पाया। कांग्रेस की युवा सांसद प्रिया दत्त ने इसे समझा और नतीजे आते ही सटीक टिप्पणी दी - ’’ यह बदलाव का समय है। हमें भी बदलना होगा।’’ क्या वाकई यह बदलाव का समय है ? क्या वाकई देश की राजनीति बदलेगी ?? यदि हां! तो किस दिशा में ? क्या कहती हैं दुनिया की हलचल और हिंदोस्तानी आसमां में तैर रही आशायें व आशकायें ??

जनता बदलना चाहती है राजनीति
यदि दिल्ली के चुनावी नतीजों के उक्त विश्लेषण को सामने रखें, तो आप कह सकते हैं कि राजनीति बदलने की संभावना अभी मरी नहीं है। देश की जनता राजनीति बदलना चाहती है। विकल्प बेहतर व पारदर्शी हो, तो भारत की जनता राजनीति बदलने का अवसर दे सकती है। छत्तीसगढ में ’छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच’ और मध्य प्रदेश में ’गोंडवाना गणतंत्र पार्टी’ का उभार संकेत है, कि परंपरागत वोट बैंक भी अब नये विकल्प तलाश रहा है।
राजस्थान में भाजपा और कांग्रेस की बीच सीटों का इतना अंतर पहले कभी नहीं हुआ। इसका कारण कोई अन्य नहीं है। सब जानते हैं कि ’आप’ ने दिल्ली का चुनाव किसी धनबल या बाहुबल के बूते नहीं जीता। जनता से जुटाये पैसे, कम खर्चीले और अधिक पहुंच वाले सोशल मीडिया व घर-घर प्रचार का सादा तरीका तथा सादी प्रचार सामग्री।
अपरिचित से चेहरे, ज्यादातर उम्मीदवार स्नातक से कम शिक्षा प्राप्त, युवा व साधारण आय समूह व परिवारांे की संतानें। यदि इस चित्र को सामने रखें, तो आप संभावना व्यक्त कर सकते हैं कि राजनीति का जाति, धर्म, वर्ग व धनबल से ऊपर उठ पाना अभी भी संभव है।

राजनीति बदलने से नौकरशाही बदलने की बंधी उम्मीद
चुनावी नतीजे की तारीख - 8 दिसंबर से लेकर आज 29 दिसंबर तक के इन 22 दिनों के अपने संकेत हैं। इस बीच ’आप’ की अगवानी की आशंका मात्र से दिल्ली की नौकरशाही के माथे पर पड़े बल की खबरें छपी। ’आप’ के सत्ता में आने से पहले ही उसके घोषणापत्र की दिशा में कदम उठते दिखाई दिए। बिना पंजीकरण पानी के टैंकरों के लाइसेंस रद्द करने का सरकारी इश्तहार सामने आया। पूर्वी दिल्ली नगर निगम ने भी व्यापार लाईसेंस आसान बनाने की पेशकश कर दी। दिल्ली की बिजली कंपनियों ने अपनी आय-व्यय रिपोर्ट तो समय सेे पेश की; घाटा भी दिखाया, लेकिन हर बार की तरह इस बार दरें बढाने या स्लैब घटाने की मांग करने की हिम्मत उनकी नहीं हुई। घाटा पूर्ति के नाम पर डीईआरसी हर बार फ्युल चार्ज बढा देता था। इस बार वह चुप ही रहा। अलबत्ता सौर ऊर्जा के पैनलों को लेकर विज्ञापन जरूर अखबारों में दिखे। छोटी कक्षाओं के प्रवेश में प्रबंधन कोटा खत्म करने का आदेश भी इसी बीच आया। अगले स्कूली सत्र हेतु कहीं बिना ’डोनेशन’ प्रवेश की बाध्यता न हो जाये; इसे लेकर स्कूलों के प्रबंधन अभी से परेशान हैं, तो अभिभावकों की उम्मीदें बढ गई हैं। ये संकेत कहते हैं कि यदि नेता एक बार दुरुस्त हो जाये तो, अफसरों को लाइन पर आते वक्त नहीं लगेगा।

बढ़ेगा जनसंवाद: खुलेगी राजनीति
राजनीति खुलेगी। जिस कांग्रेस के समर्थन से ’आप’ 23 दिसंबर को सरकार बनाने का निर्णय लेने जा रही थी, 22 दिसंबर को केजरीवाल उसी कांग्रेस को शातिर बता रहे थे और कह रहे थे कि यदि सरकार बनी तो, कांग्रेस व भाजपा के भ्रष्ट नेताओं का स्थान जेल में होगा। ऐसा कर केजरीवाल ने राजनीति को उसके पुराने खोल से बाहर लाने का संदेश दिया, तो ऐसा ही खुला संदेश जनता की ओर से ’आप’ के लिए भी आया। जनता ने जहां एक ओर गोल डाकखाना सभा में केजरीवाल से हाथ मिलाने की होड़ दिखाई, वहीं उसी दिन जीत के बाद कुमार विश्वास सरीखे ’आप’ नेताओं में बढ आये अंहकार व बेलगाम हुई जुबान पर लगाम लगाने की राय देकर उसने अपने जागते रहने का संदेश भी दिया।
गौरतलब है कि चुनाव से पहले अपनी रणनीति, घोषणापत्र निर्माण प्रक्रिया, प्रचार और बाद में सरकार बनाने के बारे में निर्णय हेतु जनमत कराकर ’आप’ ने इस खुलेपन का रास्ता खुद जनता के लिए खोला था। जनता से जरूरी संवाद व खुलेपन के इस अंदाज से कुछ-कुछ सीखने की तैयारी इन्हीं 22 दिनों के भीतर कांग्रेस व भाजपा दोनों में दिखी। कांग्रेस ने जनसुनवाई के जरिए लोकसभा चुनाव घोषणापत्र निर्माण की योजना पर बाकायदा काम शुरू कर दिया है। भाजपा की दिल्ली प्रदेश इकाई ने भी ’आप’ के रास्ते पर चलने का ऐलान किया; कहा कि वह लोकसभा चुनाव प्रचार के लिए घर-घर जायेगी। नतीजों के बाद जनता की राय जानने को लेकर भाजपा भी सोशल मीडिया पर ज्यादा सक्रिय दिखी। घोषणापत्र निर्माण प्रक्रिया में खुलेपन को लेकर वह अपनी वेबसाइट को पहले ही खोल चुकी थी। ये संकेत है कि कुछ तो बदलेगा।

बदलेगा सत्ता समीकरण?
इसी बीच ऑनलाइन चंदे के लिए वेबसाइट खुलने के पहले ही दिन जिस तरह ’आप’ को 20 लाख रुपये का चंदा मिला। ’चुनावी ट्रस्ट स्कीम’ के अनुसार चुनावी ट्रस्ट बनाकर राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए पंजीकरण कराने के इच्छुक कारपोरेट घरानों की संख्या एकाएक बढ गई। इसी के साथ ’आप’ की सदस्यता बढी; लोग सीधे केजरीवाल का मोबाइल नंबर तलाशते नजर आये; उत्साहित ’आप’ ने आगामी लोकसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक सभी सीटों पर ताल ठोकने का ऐलान किया; हरियाणा, गुजरात, प. बंगाल आदि कई राज्यों में ’आप’ की इकाइयों को भारी जनसमर्थन खबरें आईं; झारखण्ड समेत कई राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं ने ’आप’ की पीठ ठोकीं; इन सभी के सकेंत को लोकसभा चुनाव के नतीजों का संकेत माने तो, हो सकता है कि समीकरण बदल जायें। हो सकता है कि आगामी लोकसभा भी एकबारगी त्रिशंकु होकर लटक जाये। हो सकता है कि पांच राज्यों के चुनाव नतीजों से पूर्व तक प्रधानमंत्री की कुर्सी तक आसान दिख रही मोदी की राह अब हर पल कठिन होती जाये। ’गुजरात के विकास पुरूष’ का वाराणसी की सभा में विकास से वापस ’गंगा’ व ’राम’ के मुद्दे पर दहाड़ना और फिर अगले ही दिन ’वोट फॉर इंडिया’ का नारा देने की भटकन के संदेश भी यही हैं।

मुश्किल है व्यापक बदलाव
किंतु सत्ता में पार्टी का बदलना निश्चित ही राजनीति का बदलना नहीं है। पिछले दो दशक में आंदोलनों के कितने ही अगुवा जेल की कैद से निकलकर अपने-अपने देश की राजनीति में छाते और सत्ता कब्जाते दिखे; इससे राजनीति में मुद्दों के बदलने के उदाहरण कई हैं, लेकिन लंबे समय तकराजनीति के साफ-सुथरे होने की गारंटी कोई नहीं दे सका। जय प्रकाश नारायण के ’सम्पूर्ण क्रांति’ आंदोलन की आंधी ’आप’ की आंधी से ज्यादा व्यापक थी, लेकिन वह भी ढाई साल के सत्ता परिवर्तन तक सीमित होकर रह गई। एक समय में श्री ए पी जे अब्दुल कलाम को खुद बुलाकर जिस तरह राष्ट्रपति पद की कुर्सी सौंपी गई थी, उससे उम्मीद जगी थी कि अब आगे देश के सर्वोच्च पद पर सिर्फ राजनीतिज्ञों का कब्जा नहीं रह जायेगा। लेकिन क्या हुआ ? कुल जमा ढाई लाख की चल-अचल संपत्ति के साथ देश के सबसे गरीब मुख्यमंत्री का तमगा टांगे माणिक सरकार जब डेढ़ दशक पहले त्रिपुरा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे, उम्मीद की गई थी कि कम से कम उत्तर-पूर्व की धनबल की राजनीति औंधे मुंह गिरेगी। माणिक सरकार तब से लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री हैं, लेकिन अन्यत्र कहीं गरीब का मुख्यमंत्री बनना तो दूर, मंत्री बनना भी आज तक सुनिश्चित नहीं हुआ।
दिल्ली की जनता देश नहीं है। जाति, धर्म, आस्था, लोभ और भय अभी भी इस देश के निर्णयों को प्रभावित करने बड़े औजार हैं। अभी भी देश की बहुत बड़ा तबका इंटरनेट की केबल की बजाय उत्सवों, त्यौहारों, अफवाहों व चैराहा चकल्लसों के जरिए जुड़ता और टूटता है। ऐसे में ’आप’ के आने से राजनीति में वह व्यापक बदलाव होगा, जिसकी देश को सबसे ज्यादा जरूरत है; यह कहना अभी जल्दबाजी होगी।

सत्ता से सेवा की ओर मुड़ना अभी मुश्किल
यदि ’आप’ द्वारा 18 बिंदुओं पर राय जानने पर भाजपा की प्रतिक्रिया आपने सुनी हो या फिर चारा घोटाले का दोषी करार दिए जाने के बावजूद लालू की पार्टी के साथ बिहार के चुनाव में उतरने की कांग्रेस के युवराज की मंशा को पकड़ा हो, गुडागर्दी और अपराध भरे कुशासन के बावजूद अपनी पीठ ठोकते अखिलेश यादव को सुना हो, सदन में लोकपाल का विरोध करते सपा सांसदों के तेवर निहारे हांे, तो आप कह सकते हैं कि भारत की राजनीति इतनी जल्दी भी बदलने नहीं जा रही। हां! इतना अवश्य होगा कि ’आप’ के उदय से उत्साहित हो देश के राजनीतिक पटल पर हलचल बढ जायेगी। दलगत स्तर पर तीसरी शक्तियों के धु्रवीकरण के प्रयास बढ जायेंगे। जो अच्छे उम्मीदवार धनबल व छलबल के अभाव में पहले कभी चुनाव के मैदान में उतरने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, संभवतः अब वे हिम्मत करें। हो सकता है कि उनमें से कई की जमानत जब्त होने से बच जाये और कई जीत भी जायें किंतु अभी बहुत दिनों तक भारतीय राजनीति व राजनीति में प्रवेश करने वालों का लक्ष्य चुनाव जीतना, मंत्री बनना व येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करना ही रहने वाला है। स्वराज को अभी प्रतीक्षा करनी होगीं। ’आप’ की जीत का सच यही है। वह हार जाती तो भी, सच यही रहता।
अरुण तिवारी, लेखक प्रकृति एवम् लोकतांत्रिक मसलों से संबद्ध वरिष्ठ पत्रकार एवम् सामाजिक कार्यकर्ता हैं।