क्या हम आशा भोंसले मंगेशकर की भी नहीं सुनेंगे?
क्या हम आशा भोंसले मंगेशकर की भी नहीं सुनेंगे?
हम सिरे से असामाजिक असांस्कृतिक हैं और अराजक भी हैं।
पलाश विश्वास
लता मंगेशकर की बहन आशा भोंसले ने कहा हैः
सुनिये, जबसे इस यंत्र(कंप्यूटर) का प्रवेश हुआ है हमारे आपके जीवन में, तब से मनुष्य की भावना, उसकी सृजन की इच्छा की मौत हो गयी है। न कोई कविता लिखी जा रही है और न कोई अच्छा गीत तैयार हो रहा है। कलम से शब्दों का झरना बंद है। भावी पीढ़ियां अब कुछ भी नहीं करेंगी। आप मेरी चेतावनी याद रखें और उसे भविष्य में परख भी लें। अगली पीढ़ियां सिर्फ कंप्यूटर के साथ जीवन बिता देंगी। आपसे मैं आपका फोन नंबर मांग लूं तो आप दुविधा में पड़ जायेंगे। क्योंकि वह आपको याद है ही नहीं, वह तो आपके फोन में दर्ज है। हमारे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया है। हम सिर्फ कंप्यूटर के इशारे पर उठ बैठ करते रहते हैं। बच्चे खुले मैदान की गंध से अनजान हैं। हमने उनकी कल्पनाशक्ति की हत्या कर दी है।
साभार आनंद बाजार पत्रिका
अखबार तो खूब पढ़ना होता है, लेकिन आजकल टीवी देखना नहीं होता। सविता को खास तरह की एलर्जी है। जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने थे, तो राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक संक्रमणकाल के उस संक्रामक दौर में वह प्रधानमंत्री का चेहरा देखना नहीं चाहती थीं और चूंकि किराये के घर में अलग अलग टीवी सेट रखना संभव होता नहीं है, तब हम समाचार नहीं देखते थे। लोकसभा चुनावों में नमोमय भारत निर्माण के मध्य ही आक्रामक धर्मोन्मादी कॉरपोरेट सरकार के जनादेश सुनिश्चित बताकर सविता ने फिर चेतावनी दे दी थी कि अब फिर समाचार चैनलों का बायकाट है।
गनीमत है कि इस वक्त हम ऑनलाइन हैं और समाचार देखने जानने के लिए टीवी पर निर्भर नहीं हैं। रियल टाइम मीडिया, फेसबुक, ट्विटर से हर पल समाचार ब्रेक होता रहता है किसी भी टीवी अखबार से ज्यादा तेजी से।
सविता मजे में एनीमल प्लानेट, डिस्कवरी देखती रहती है। लेकिन घटनाओं और दुर्घटनाओं, सामाजिक सांस्कृतिक संक्रमण, अर्थव्यवस्था, राजनीति और इतिहास के शिकंजे में हम फंसे हैं तो मुंह चुराकर उनके सर्वव्यापी असर से बच नहीं सकते हम।
अखबार पढ़े या नहीं, दसों दिशाओं में जो लबालब खून की नदियां हैं, जो ज्वालामुखी जमीन के अंदर दफन है और जो जल सुनामियां हमारे इंतजार में हैं, घात लगाये मौत की तरह हमें घेरे हुए हैं।
बंगाल में दीदी ने पर्वतारोही छंदा गायेन को लाने के लिए नेपाल तक जाने का वायदा किया था, दरअसल बिना ऑक्सीजन, बिना भोजन आठ हजार मीटर के उस तुषार आंधी मध्य जीवित बचने की कोई चामत्कारिक संभावना भी नहीं बचती।
नेपाल सरकार ने तीन दिन बीतते न बीतते मृत्यु प्रमामपत्र परिजनों को थमा दिया लेकिन सारा बंगाल छंदा की वापसी के इंतजार में है, ठीक उसी तरह जैसे धर्मोन्मादी हिन्दू कॉरपोरेट राज का सिलसिलेवार समर्थन धर्मनिरपेक्षता के नाम करते हुए जनविश्वासघाती पाखंडी वाम अब भी विचारधारा की जुगाली करते हुए जनांदोलनों की हत्या करने के बाद खोये हुए जनाधार की वापसी में लगा है।
हम आत्मवंचना के चकाचौंधी कार्निवाल में कबंधों के जुलूस में शामिल विष्णु खरे जी के शब्दों में आत्ममुग्ध अमानवीय जंबो हैं जो मानवीय संवेदना से कोई रिश्ता रखता ही नहीं है।
बांग्ला के बड़े अखबार में आज देश में सबसे बड़ी सेलिब्रिटी मोदी समर्थक जीवित किंवदंती सुरसाम्राज्ञी आशा भोंसले जी का साक्षात्कार पढ़कर लहूलुहान हूँ। जो उन्होंने बताया है,वह हमारे रोजमर्रे का अनुभव है। चालीस सालों की पत्रकारिता में हम सूचनाओं को शायद ही कभी भूले हों। बिना नोट लिये, बिना रिकॉर्ड किये हमने बेहद तकनीकी, बेहद जटिल दो-दो पेज के साक्षात्कार कंप्यूटर विप्लव से पहले यूं ही करते रहे हैं और वीपी जैसे धुरंधरों को बिना कलम दिखाये परेशान करते रहे हैं कि आखिर हम लिख क्या रहे हैं। कभी गलती नहीं हुई। लेकिन कंप्यूटर आते ही दिमाग ने काम करना आहिस्ते-आहिस्ते बंद कर दिया है। तकनीकी सावधानी बरतने के बवजूद मामूली सी तकनीकी त्रुटि की वजह से भारी सी भारी छूट निकल जाती है। चाहकर भी सृजनधर्मी लिखा नहीं जाता। हरे जख्म के बावजूद भरे बाजार में आह तक करने की इजाजत नहीं है।
आशा जी के मुताबिक अलग-अलग ट्रैक पर डुयेट गाया जाता है प्राणहीन। रिद्म शोरशराबा है लेकिन सुर नहीं है। लता जी के मुताबिक जीवन से सरगम गायब हो गया है।
मुक्त बाजार का अरुंधती लहजे में उल्लेख नहीं किया है लता दीदी ने, लेकिन मुक्त बाजार बंदोबस्त की कारुणिक उपस्थिति को हर पंक्ति में वेदनामय अभिव्यक्ति दी है। लता जी आज के किसी गायक गायिका का नाम नहीं ले सकतीं। लता जी आज का कोई गीत याद नहीं कर सकतीं। आशा जी के मुताबिक गीत संगीत सिर्फ वह नहीं है जो रियेलिटी शो में है या फिल्मों सीरियल में है। वह जीवन संगीत बाजार ने खत्म कर दिया है।
आशा जी के मुताबिक सरगम सिरे से लापता है।
अरसे बाद शास्त्रीय सगीत के व्याकरण और अनुशासन पर बोलते हुए आशा दीदी ने बेहद दर्द भरे शब्दों में कह दिया कि हम अब एक अदद कंप्यूटर या मोबाइल पर निर्भर हैं और हम इतने ज्यादा तकनीक निर्भर हैं कि हमारी स्मृति नहीं है कोई। आशा जी के मुताबिक हम अपना फोन नंबर तक मोबाइल से चेक करते हैं। आशा जी के मुताबिक सारी सृजनशीलता रचनाधर्मिता ग्रैफिकल चकाचौंध है। प्राणहीन चामत्कारिक। आशा जी के मुताबिक मौलिकता गायब है। रेडीमेड हेराफेरी है यह तकनीकी दक्षता।
इस इंटरव्यू के आलोक में मुझे बहुत कुछ नये सिरे से सोचना पड़ रहा है।
जैसे कि जो आस्थावान लोग धर्मोन्मादी हिंदुत्व के नाम पर नमोमय भारत के निर्माण में शरीक हैं, वे सारे लोग लतादीदी की तरह ही मुक्त बाजार से समामाजिक सांस्कृतिक कायाकल्प के पक्षधर हों, यह जरूरी भी नहीं है क्योंकि मुक्तबाजारी आखेट से वे अपने प्रियतम को खो रहे हैं हर पल।
सिर्फ खोने का वह अहसास नहीं है।
मोबाइल, टीवी, एसी, कंप्यूटर, इंटरनेट के जाल में फंसे हमें अपनी देह की सुध बुध नहीं है और न हमें मन की थाह है। हम सिरे से असामाजिक असांस्कृतिक हैं और अराजक भी हैं।
आशा जी अद्वितीय संगीत शिल्पी हैं और उन्हें उनके सुदीर्घ अभिज्ञता,सुर और सरगम के प्रति आजीवन कुमारी प्रतिबद्धता ने सत्य का साक्षात्कार करना सिखाया है।
मुक्त बाजार के आतंकवादी परिदृश्य का इससे हृदय विदारक अभूतपूर्व विस्फोट हमने कहीं नहीं देखा।
मुझे संगीत अच्छा लगता है।
बिहु से मुझे ऩई ऊर्जा मिलती है और लोकधुनों में अपनी जमीन पर होने का अहसास जगता है। लेकिन मैं बेहद बेसुरा हूँ। एक पंक्ति गा नहीं सकता। अलग- अलग स्वर पहचान नहीं सकता। बमुश्किल लता, आशा, संध्या, बेगम अख्तर, केएल सहगल, मोहम्मद रफी, मन्ना डे, किशोर कुमार जैसे चुनिंदा संगीतशिल्पियों की आवाज पहचान लेता हूँ। अलका, श्रेया या सुनिधि को अलग अलग पहचान नहीं पाता। इस नाकाबिलियत के बावजूद सुर ताल में होना अच्छा सुहाना लगता है और सुर ताल कटने का अंदाजा हो ही जाता है।
भारत निर्माण और कॉरपोरेट जीवन यापन में जो सुरतालछंद का यह विपर्यय है, बेशक इसे आशा भोंसले ही हम सबसे बेहतर महसूस और अभिव्यक्त कर सकती हैं। लेकिन क्या हमें इसका तनिक अंदाजा भी नहीं होनी चाहिए?
मेरी पत्नी सविता ने मेरी मां की तरह मेरे गांव में सीमाबद्ध जीवन नहीं बिताया है। लेकिन वह जहां रहती है, उस इलाके से उतना ही प्यार है उसे, जितना कि मेरी मां को मेरे गांव से था।
हम कोलकाता में 1991 में आये और 1995 में सविता की ओपन हार्ट सर्जरी हो गयी। अनजान इलाके के अनजान अनात्मीय लोगों ने तब उसे खून दिया, यह किसी भी कीमत पर नहीं भूलती।
खुद अस्वस्थ होने पर इलाके भर में किसी भी मरीज को अस्पताल पहुंचाने के लिए वह सबसे पहले भागती है। मौका हो तो अस्पताल से लाश लेकर श्मशान तक चली जाती है। फिर भी वह समाज सेवी नहीं है और न प्रतिबद्धता का कोई पाखंड है उसमें। वह अपने हिसाब से कर्ज निपटा रही है।
अब तो हमारे इलाके में पंद्रह बीस लाख का कट्टा है लेकिन जब आस पास दो-दो हजार का कट्ठा था तब भी अपनी रिहाइश बदलने का विकल्प उसने उसी तरह ठुकरा दिया जिस तरह उसकी जिद की वजह से मैं बार-बार बेहतर विकल्प मिलने के बावजूद जनसत्ता छोड़ नहीं सका क्योंकि जनसता और इंडियन एक्सप्रेस के सारे लोग हमेशा हमारा साथ देते रहे हैं। इस अपनापे के आगे उसे हर चीज बेकार लगती है।
संजोग से वह भी शौकिया तौर पर सुर साधती है। स्थानीय महिलाओं के साथ सांस्कृतिक प्रयास में शामिल है। सविता हमारी नास्तिकता के विपरीत बेहद आस्तिक है। सारे देव देवियों को मानती है। लेकिन कर्म कांडी नहीं है। पर्व और त्योहारों पर गंगास्नान अवश्य करती है। रामकृष्ण मिशन के बेलूर मठ में जाती है लेकिन प्रवचन नहीं सुनती और न ही बाबा रामदेव के योगभ्यास में यकीन करती है और न ही आस्था, संस्कार वगैरह-वगैरह चैनल देखती है।
मैं स्वभाव व चरित्र से जितना अधार्मिक और नास्तिक हूँ, वह उतनी ही धार्मिक और आस्थामयी है। लेकिन तंत्र जंत्र मंत्र में उसकी कोई आस्था नहीं है और न ही ज्योतिष में।
हमने एक दूसरे पर अपने विचार थोपने के प्रयास नहीं किये और साथ-साथ जीते इकतीस साल हो गये। स्वभाव से हिन्दू और धार्मिक होने के बावजूद सविता लेकिन हिन्दू राष्ट्र के विरोध में मुझसे ज्यादा कट्टर है।
मैं तो नरेंद्र मोदी के वक्तव्य को ध्यान से सुनता पड़ता हूँ और संघियों का रचा लिखा समझने की कोशिश करता हूँ, लेकिन सविता सीधे बहिष्कार करती है। अर्थशास्त्र से वह एमए है लेकिन मुक्त बाजार के बारे में वह कुछ नहीं बोलती और अनार्थिक होने के बावजूद मुक्त बाजार का मैं लगातार मुखर विरोध कर रहा हूँ। वह मुक्त बाजार के विरोध में बोलती कुछ नहीं है लेकिन कॉरपोरेट राज के पक्ष में वह भी नहीं है।
हम धर्म निरपेक्षता के नाम पर उस जनता के जीवन यापन की घोर उपेक्षा कर रहे हैं जो मोदी समर्थक होते हुए या न होते हुए प्रबल भाव से हिन्दू हैं और कॉरपोरेट राज और मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था, बाजारू संस्कृति के सख्त खिलाफ हैं।
चूंकि हम खुद मुक्त बाजार और कॉरपोरेट राज के खिलाफ कोई जोखिम उठाकर खुद को संकट में डालना नहीं चाहते, बहुसंख्य जनगण को हम धर्मोन्मादी मानकर चल रहे हैं।
संघ परिवार के साथ चल रहे और घनघोर मोदी समर्थक सारे लोग इस मुक्त बाजारी अर्थ व्यवस्था के समर्थक नहीं हैं और न ही इस राज्यतंत्र की तरह वे किसी अंबानी, टाटा, जिंदल, मित्तल, हिंदुजा, पास्को, वेदांत के गुलाम है।
कंधमाल के बेजुबान अपढ़ आदिवासियों ने अपने प्रतिरोध से बार बार ऐसा बता दिया है, उन अजनबी स्वरों को हमने लगातार नजर अंदाज किया है।
क्या हम आशा मंगेशकर भोंसले की भी नहीं सुनेंगे?


