संपादक और पत्रकार गौरी लंकेश की उनके घर के बाहर हत्या होने के महीने भर बाद भी वे लोगों की स्मृति में जीवित हैं. उनके नाम पर देश भर में हो रहे विरोध प्रदर्शन यह साबित करते हैं. गांधी जयंती के अवसर पर 2 अक्टूबर और उनकी हत्या का एक महीना पूरा होने पर 5 अक्टूबर को पत्रकारों, कलाकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्रों और अन्य लोगों ने विरोध प्रदर्शन किए और उस घटना को लोकतंत्र की हत्या करार दिया. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर एक पत्रकार की हत्या ने सभी को इस तरह से गोलबंद कैसे कर दिया?

लंकेश ऐसी इकलौती पत्रकार नहीं हैं, जिनकी हत्या हुई. 20 सितंबर को त्रिपुरा के अगरतला में शांतनु भौमिक की हत्या कर दी गई. इस साल आठ पत्रकारों की हत्या हुई है. लेकिन लंकेश की हत्या ने एक ऐसा माहौल बना दिया जिससे पत्रकारों समेत पूरी सिविल सोसाइटी गोलबंद हो गई.

पत्रकारों की हत्या लोकतंत्र के लिए एक खतरनाक संकेत है.

आपातकाल के दौरान यह स्पष्ट था कि इंदिरा गांधी प्रेस को स्वतंत्र तौर पर नहीं काम करने देना चाहतीं. उन्होंने सेंसरशिप थोपा. आजकल लोग अघोषित आपातकाल की बात कर रहे हैं. एनडीटीवी इंडिया के एंकर रवीश कुमार कहते हैं कि भय पैदा करने का राष्ट्रीय अभियान चल रहा है. 5 सितंबर के बाद से रवीश कुमार और उनके जैसे दूसरे कई स्वतंत्र विचार वाले पत्रकारों को यह धमकी मिल रही है कि उनका हश्र भी लंकेश जैसा ही होगा. इस तरह की धमकी देने वाले एक व्यक्ति की पहचान हुई. यह व्यक्ति सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फाॅलो करता है और खुद प्रधानमंत्री भी उसे फॉलो करते हैं. लेकिन प्रधानमंत्री ने न तो उसके खिलाफ कुछ बोला और न ही उसे अपनी सूची से बाहर किया. यह रवैया एक ऐसा माहौल बना रहा है जिसमें असहमति और आलोचना को ‘राष्ट्र’ पर हमला माना जा रहा है और रवीश कुमार जैसे लोगों पर हमला करना और लंकेश जैसे पत्रकारों की हत्या करना सही हो गया है.

तो क्या पत्रकारों को सुरक्षा के लिए अलग कानून की मांग करनी चाहिए?

इस साल अप्रैल में महाराष्ट्र सरकार ने पत्रकारों और मीडिया संस्थानों की सुरक्षा के लिए एक कानून पास किया. लेकिन अक्सर सरकार के साथ संघर्ष की मुद्रा में रहने वाली मीडिया को ऐसे कानून की मांग करनी चाहिए? जब सूचना का अधिकार के तहत सूचना मांगकर भ्रष्टाचार को उजागर करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्या हो जा रही है तो फिर इसी तरह के काम में लगे पत्रकारों को अलग कानून क्यों चाहिए? पत्रकारों और सामाजिक कायकर्ताओं के लिए सबसे बड़ी सुरक्षा यही है कि समाज यह समझे कि सत्ता के सामने सच बोलने का जो काम ये कर रहे हैं, वह सही है.

हमें इस बात पर भी चर्चा करने की जरूरत है कि स्वतंत्र मीडिया के औचित्स को लोग कैसे ले रहे हैं. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप अक्सर मीडिया को झूठा कहते हैं. भारत में भी यह काम मई, 2014 से चल रहा है जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने. उन्होंने अब तक एक भी प्रेस वार्ता नहीं की. उनके पक्ष में काम करने वाले कुछ मीडिया संस्थानों को उन्होंने कुछ साक्षात्कार जरूर दिए. वे एकतरफा संवाद में यकीन करते हैं. मन की बात इसका एक उदाहरण है. क्यों बड़े मीडिया संस्थान यह सवाल नहीं उठाते कि मोदी प्रेस का सामना नहीं कर रहे हैं? सवाल का जवाब देना चुने हुए प्रतिनिधियों के काम का हिस्सा है. फिर भी मीडिया से बातचीत को एहसान क्यों माना जा रहा है? इन सवालों से बचकर यह साबित किया जा रहा है कि उन्हें इन सवालों से जुड़ी सोच से कोई फर्क नहीं पड़ता है. यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं हैं.

मीडिया की आजादी पर हमला सिर्फ उससे सवाल पूछने का हक छीनकर नहीं बल्कि और भी दूसरे ढंग से किया गया है. जो मीडिया घराने खटक रहे थे, उन्हें सरकार ने अपने करीबी कारोबारियों से खरीदवा लिया है. यहां तक कि सरकार के प्रति आलोचनात्मक रुख अपनाने वाले संपादकों को नौकरी से निकलवाया जा रहा है. मीडिया में आलोचना की जगह सिमट गई है. गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने बड़े मसलों पर मीडिया की एकता को भी तोड़ दिया है. पत्रकारों के कुछ ही संगठन हैं जो वास्तव में स्वतंत्र ढंग से काम कर रहे हैं. इस सच्चाई के बावजूद लंकेश की हत्या ने पत्रकारों को एक साथ आकर विरोध करने को प्रेरित किया. लेकिन ये प्रदर्शन सुरक्षा की मांग से आगे जाने चाहिए. पत्रकारों को यह बात भी उठानी चाहिए कि सरकार और ताकतवर लोगों द्वारा मीडिया की भूमिका को कम करने की कोशिशें गलत हैं.

इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली का संपादकीय

(Economic and Political Weekly, वर्षः 52, अंकः 39, 7 अक्टूबर, 2017)

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