संजय पराते
वामपंथ के दबाव में संप्रग.1 की सरकार को मनरेगा का कानून बनाने को बाध्य होना पड़ा था। पूरे विश्व में यह एक अनोखा और एकमात्र कानून है, जो अमीर-गरीब का भेदभाव किये बिना जरूरतमंद ग्रामीण परिवारों को आवश्यकता पड़ने पर उनकी मांग के अनुसार न्यूनतम 100 दिनों के रोजगार की कानूनी गारंटी प्रदान करता है। इस क़ानून को पूरे विश्व में सराहा गया और अब इसका विस्तार शहरी गरीबों के लिए भी करने की तथा काम के दिनों की संख्या 150 या 200 दिनों तक करने की मांग की जा रही है। जिस देश में जीवन का अधिकार तो मौलिक अधिकार हो, लेकिन इस अधिकार के उपभोग के लिए अति-आवश्यक तत्व “रोजगार” को मौलिक अधिकारों की श्रेणी से बाहर ही रखा गया हो, वहां ऐसे कानून की उपादेयता और प्रासंगिकता अपने-आप बढ़ जाती है।
इस कानून के निर्माण के समय भी काफी विवाद और आशंकाएं उठी थीं। उस समय गणना की गई थी कि इस कानून को लागू करने के लिए 40-50 हजार करोड़ रूपयों की जरूरत पड़ेगी, वह कहां से आयेंगे? यह भी सवाल उठा था कि इतने बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन कहां से और कैसे किया जाएगा? कुछ लोगों ने गांवों की कृषि अर्थव्यवस्था ही ध्वस्त हो जाने की आशंका जताई थी। कुछ अर्थशास्त्रियों ने तो ऐसी घोषणा ही कर दी थी कि ऐसे “महंगे” कल्याणकारी कार्यक्रम देश की सेहत व स्वाभाविक विकास की गति को ही बाधित कर देंगे ! लेकिन इस कानून के क्रियान्वयन के बाद हमने देखा कि ऐसी तमाम आशंकाओं और तर्कों का कोई उचित आधार नहीं था और वे निर्मूल साबित हुईं।
इसमें कोई शक नहीं कि इन तमाम वर्षों में इस कानून का क्रियान्वयन बहुत लचर रहा और इसके लिए केन्द्र व राज्य दोनों जिम्मेदार हैं, जिसने इसे भ्रष्टाचार गारंटी योजना में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वास्तव में कानून में सामाजिक अंकेक्षण सहित भ्रष्टाचार रोकने के जितने भी कदम निर्धारित किये गए थे, मजदूरी भुगतान में लापरवाही के खिलाफ क्षतिपूर्ति भत्ता तथा मांग करने पर निर्धारित समयावधि में रोजगार न देने पर बेरोजगारी भत्ता देने के जो प्रावधान किये गए थे, उन पर कभी गंभीरता से अमल ही नहीं किया गया। और ऐसा राज्य व केन्द्र सरकारों के स्तर पर राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण ही हो रहा था। फलस्वरूप इस पूरे कानून का क्रियान्वयन अफसर-राजनेता-ठेकेदारों के गठजोड़ पर निर्भर होकर रह गया, मनरेगा कानून में जिसे प्रतिबंधित किया गया है।
लेकिन इन तमाम कमजोरियों व लचर क्रियान्वयन के बावजूद, इस कानून के आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक स्तर पर सकारात्मक परिणाम देखने को मिले हैं। जिस देश में कृषि मजदूरों को साल भर में 40-50 दिनों का काम भी नहीं मिलता, उस देश में इस कानून ने ग्रामीण गरीबों के जीवन में स्थायित्व लाने का काम किया है। और कुछ नहीं तो, अतिरिक्त 30-40 दिनों का और काम उन्हें इस रोजगार कानून के माध्यम से मिलने लगा है। जहां तक इस कानून का सही क्रियान्वयन किया गया है, उस हद तक गांवों से पलायन भी कम हुआ है और इस पलायन से जुड़ी विसंगतियां व परेशानियाँ भी। कुछ हद तक गांवों में अधोसंरचना का निर्माण हुआ है, किसानों की कृषि भूमि में सुधार कार्य हुआ है तथा जल, जंगल से जुड़े विकास कार्य भी। इस सबसे गरीबों की क्रय-शक्ति भी बढ़ी है। इसने इस देश की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दिया है, जी डी पी तथा विकास दर में वृद्धि के जरिये। इस योगदान का समग्र आंकलन अभी होना बाकी है।
जब इस कानून के तहत किसी काम में समान मजदूरी दरों के साथ आधी महिलायें काम कर रही हों तथा दलित-आदिवासी मजदूर भी सामान्य व सवर्ण मजदूरों के साथ काम कर रहे हों, तो इस से उपजी वर्गीय एकता का अंदाजा भी आसानी से लगाया जा सकता है। इस वर्गीय एकता ने दिमागी तौर पर जातिवाद की दीवार पर भी चोट की होगी। इसने कमज़ोर वर्गों में आत्मसम्मान और विश्वास की भावना का संचार किया है और गांवों के अन्दर सामंती प्रभुओं की गुलामी की मानसिकता से उन्हें मुक्त किया है। महिलाओं के लिए समान मजदूरी ने न केवल महिलाओं का सशक्तिकरण किया है, बल्कि स्त्री-पुरुष समानता की भावना को भी मजबूत बनाया है। विकलांगों को भी, अपनी शारीरिक सक्षमता के अनुपात में, रोजगार हासिल करने का अधिकार होने के अहसास से परिचित कराया है। इस प्रकार इस कानून से कमजोर वर्गों और समुदायों के आर्थिक-सामाजिक सशक्तिकरण की दिशा में सकारात्मक पहल की शुरूआत मानी जा सकता है।
इसके साथ ही, यह भी ध्यान देने की बात है कि यह कानून ग्रामीण गरीबों की राजनैतिक लामबंदी का केन्द्र-बिन्दु भी बना है। न केवल वामपंथी पार्टियों व संगठनों ने, बल्कि बड़े पैमाने पर गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) तथा स्थानीय स्तर पर बने संगठनों ने भी इस कानून के सही क्रियान्वयन की मांग को लेकर हस्तक्षेप किया है। हर जगह रोजगार की मांग को लेकर तथा इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार व अनियमितताओं के खिलाफ बड़े पैमाने पर संघर्ष हुए हैं और राज्य सरकारों को निहित स्वार्थों के खिलाफ कार्यवाही करनी पड़ी है। राजनेता बचाव की भूमिका में आये हैं और अफसर-ठेकेदारों का गठजोड़ बेनकाब हुआ है।
मनरेगा ने कमजोर वर्गों व समुदायों का जो आर्थिक.सामाजिक सशक्तिकरण किया है, उसका प्रतिफलन इनके राजनैतिक सशक्तिकरण में भी दिखता है । पंचायतों का सामंती ढांचा भी टूटा है और उसमें इन कमजोरों का प्रतिनिधित्व भी सुनिश्चित हुआ है। गांवों के अन्दर एक नए नेतृत्व का विकास हो रहा है, जो बुनियादी तौर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ है। हालांकि गाँवो में जड़ जमाये सामंतवाद और वैश्वीकरण की दौड़ में शामिल भ्रष्ट पूंजीवाद द्वारा इस विकासमान नेतृत्व को लीलने की संभावनाएं भी कम नहीं हैं।
लेकिन ग्रामीण गरीबों और कमजोर समुदायों का आर्थिक-राजनैतिक-सामाजिक सशक्तिकरण का यह कार्यक्रम अब खतरे में है। संघ निर्देशित भाजपा-मोदी सरकार का मनरेगा विरोधी रूख अब सामने आ चुका है। वह इसके कानूनी दर्जे को ख़त्म कर इसको मात्र एक योजना में तब्दील करना चाहती है, जिसका निश्चित अर्थ यही है कि इस योजना का लाभ पाने का अधिकार हर किसी को नहीं होगा और निश्चित रूप से लाभार्थियों का चयन राजनैतिक तौर पर ही किया जायेगा। इस योजना का राजनीतिकरण इसे पूरी तरह से निष्प्रभावी बना देगा।
भाजपा-मोदी के इस रूख को समझना मुश्किल नहीं है। हालांकि चुनाव में उसने बेरोजगारों को रोजगार देने का वादा किया था, लेकिन वह तो चुनावी हितों से प्रेरित था। सत्ता में आने के बाद देशहित इन वादों को पूरा करने की इज़ाज़त नहीं देते। इन चुनावी वादों को पूरा करने जाएँ, तो कार्पोरेटों के हितों पर चोट पहुंचती है। इन कार्पोरेटों का हित इसी में है कि जितनी ज्यादा बेरोजगारी होगी, श्रम की मंडी में उतने ही ज्यादा सस्ते श्रमिक उपलब्ध होंगे, उतनी ही ज्यादा सामूहिक सौदे की उनकी ताकत कमजोर होगी, उतना ही ज्यादा वे श्रम कानूनों का उल्लंघन कर सकते हैं और आज से कई गुना ज्यादा मुनाफे के साथ अपनी तिजोरी भर सकते हैं।
भाजपा-मोदी के चुनाव अभियान में जो कार्पोरेट तिजोरी खाली हुई है, उसे भरने में ही अब देश का हित है। देश का खजाना तभी भरेगा और अर्थव्यवस्था सुधरेगी। यदि मनरेगा जैसे रोजगार देने वाले कार्यक्रम में 34 हजार करोड़ रूपये खर्च किये जायेंगे, तो कार्पोरेट तिजोरी तो खाली ही रह जाएगी !
संप्रग सरकार द्वारा पिछले वित्तीय वर्ष 2013-14 में मनरेगा के मद में 33000 करोड़ रूपये आबंटित किये गए थे और इससे अधिकतम 130.135 करोड़ श्रम-दिवस रोजगार का ही सृजन हुआ होगा, लेकिन सरकारी आंकड़े बताते हैं कि उस वर्ष 16000 करोड़ रूपये की मजदूरी का भुगतान समय पर नहीं किया गया और 2924 करोड़ रूपये के देय बेरोजगारी भत्ते में से किसी को एक पैसे का भुगतान नहीं किया गया। वर्ष 2012-13 में भी मजदूरों को 4500 करोड़ रूपयों की मजदूरी का भुगतान नहीं किया गया था। राज्यों को जो राशि आबंटित की जाती है, वह भी पूरी तरह खर्च नहीं की जाती।
मनरेगा के मद में इस वर्ष का आबंटन 33990 करोड़ रूपये है - पिछले वर्ष से मात्र 990 करोड़ ज्यादा। जबकि इस वर्ष मानसून अनुकूल नहीं है और ग्रामीण गरीबों की रोजी-रोटी, पशुओं के चारे व अकाल से निपटने की समस्या गंभीर होने वाली है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को ध्यान में रखते हुए, यदि औसत मजदूरी 200 रूपये प्रतिदिन ही मानी जाएँ, तो इस बजट आबंटन से 100 करोड़ श्रम-दिवसों से ज्यादा रोजगार का सृजन नहीं हो सकता। पिछले वर्ष के रोजगार स्तर को बनाये रखने के लिए ही 45000 करोड़ रूपयों के बजट आबंटन की जरूरत थी। मनरेगा के इतिहास में वर्ष 2009-10 में अधिकतम 283 करोड़ श्रम-दिवसों का सृजन किया गया था। इतना रोजगार देने के लिए तो मोदी सरकार को इस मद में 94000 करोड़ रूपये रखने पड़ते।
लेकिन कार्पोरेटपरस्त चिंता और वैश्वीकरण-उदारीकरण के चलते अब इस कानून को अलविदा कहने की तैयारी की जा रही है। पिछले महीने ही इस कार्यक्रम की सरकारी स्तर पर जो समीक्षा की गई, उसने इस कानून को निष्क्रिय करने की पहल कर दी है। अब मजदूरों को समय पर भुगतान आवश्यक नहीं है और न इसके लिए कोई क्षतिपूर्ति दी जाएगी। अब मजदूरों को वास्तविक भुगतान की जगह फण्ड हस्तांतरण आदेश (एफ टी ओ) का पुर्जा थमा दिया जायेगा, भले ही भुगतान हो या न हो ! अब विकासखंड स्तर पर मजदूरी-सामग्री का अनुपात 60 : 40 रखने के बजाय इसकी गणना जिला स्तर पर की जाएगी, इससे अधोसंरचना के निर्माण व रोजगार सृजन दोनों में असमानता बढ़ेगी और विकासखंडों को राजनैतिक पक्षपात का भी सामना करना पड़ सकता है।
मनरेगा के प्रति मोदी सरकार के रूख का खामियाजा छत्तीसगढ़ की जनता को उठाना पड़ेगा। पिछले साल इस मद में लगभग 2500 करोड़ रूपये खर्च किये गए थे और इस साल के लिए राज्य सरकार ने 2800 करोड़ रूपये मांगे थे, लेकिन दिए गए हैं, केवल 1528 करोड़ रूपये। इस घटे हुए आबंटन और बढ़ी हुई मजदूरी के साथ पिछले वर्ष के मुकाबले केवल आधे (लगभग 5 करोड़) श्रम-दिवस रोजगार का ही सृजन हो पायेगा। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य के लिए मनरेगा मद में 55% कम आबंटन, इसी तथ्य को इंगित करता है कि केन्द्र ने इस मद में जो बजट आबंटित किया है, उसे भी पूरा खर्च करने का वह इरादा नहीं रखती।
मनरेगा का क्रियान्वयन पूरे देश में अच्छा नहीं है, लेकिन फिर भी छत्तीसगढ़ फिसड्डियों में अव्वल था। कांग्रेस सरकार को भी इसे राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत करना पड़ा है। लेकिन केन्द्र में मोदी के रूख और राज्य में रमनसिंह की चुप्पी इस प्रदेश की गरीब जनता को भारी पड़ने जा रही है और छत्तीसगढ़ मनरेगा के मामले में “फिसड्डियों में फिसड्डी” बनने जा रहा है।
ग्रामीण गरीबों का आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक सशक्तिकरण, संघ-भाजपा के हिन्दुत्ववादी और कार्पोरेटपरस्त चिंतन-दिशा के खिलाफ जाता है। मनरेगा के खिलाफ मोदी के रूख का रहस्य यही है, लेकिन मनरेगा के खात्मे से ग्रामीण अर्थव्यवस्था और देश की विकास दर पर जो प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, उसकी चिंता संघी गिरोह को नहीं है।
संजय पराते, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।