खतरे में लोकतंत्र या खतरनाक लोकतंत्र !
खतरे में लोकतंत्र या खतरनाक लोकतंत्र !
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने मीडिया के सामने खुलेआम आकर जिस तरह से "लोकतंत्र खतरे में है" की चिंता जताई, वह चिंता केवल न्यायपालिका तक की चिंता नहीं रह जाती है बल्कि यह चिंता चीख चीख कर कह रही है कि देश व देश का लोकतंत्र कितने खतरनाक मोड़ पर है और हम इस खतरनाक लोकतंत्र का हिस्सा बनते जा रहे हैं।
कहना ना होगा कि जब से केंद्र में कॉरपोरेट परस्त मोदी की सरकार आई है देश व भाजपा शासित राज्यों में लोकतंत्र के नाम पर अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक एवं शासन—प्रशासन की तानाशाही बेलगाम होती जा रही है। इन सरकारों के निशाने पर प्रगतिशील, जनवाद पसंद, अपने हक—हकूक की बात करने वाले, मजदूरों के शोषण के खिलाफ संघर्ष व उनके अधिकार की लड़ाई लड़ने वाले लोग हैं जिन्हें या तो फर्जी मामलों में जेल में डाल दिया जाता है या फर्जी मुठभेड़ में मार दिया जाता है या अपने गुण्डा गिरोह के द्वारा हत्या करवा दी जाती है। अगर कोई संस्था दलित—पीड़ित, आदिवासी, गरीब, मजदूरों पर हो रहे शोषण व हिंसक हमलों के खिलाफ जनता को गोलबंद करने की कोशिश करती है तो उसे असंवैधानिक तरीके से प्रतिबंधित कर दिया जाता है। जिसका जीता जागता उदाहरण है झारखंड में मजदूरों व दलित—पीड़ित—आदिवासी गरीब जनता के हक—हकूक की लगातार लड़ाई लड़ने वाली "मजदूर संगठन समिति" , जिसका पंजीयन संख्या 3113/89 है, बावजूद 22 दिसंबर 2017 को उसे झारखंड सरकार द्वारा तमाम नियम-कानून को धता बताते हुए प्रतिबंधित कर दिया गया।
बताते चलें कि झारखंड की भाजपानीत रघुवर सरकार द्वारा विगत् 22 दिसम्बर, 2017 को 28 साल पुराने पंजीकृत ट्रेड यूनियन ‘मजदूर संगठन समिति’को बिना किसी नोटिस दिये भाकपा (माओवादी) का अग्र संगठन बताते हुए प्रतिबंध लगाने की घोषणा कर दी गई।
झारखंड सरकार के इस अप्रत्याशित अलोकतांत्रिक व गैर-संवैधानिक घोषणा के पीछे मजदूर संगठन समिति के नेतृत्व में व्यापक पैमाने पर चल रहे जनांदोलन ही एकमात्र कारण के रूप में नजर आता है।
पिछले साल यानी वर्ष 2017 में इस मजदूर यूनियन द्वारा कई ऐसे कार्यक्रम व आंदोलन संगठित किये गये, जो झारखंड सरकार के लिए परेशानी का सबब बना।
'महान नक्सलबाड़ी सशस्त्र किसान विद्रोह की अर्द्ध-शताब्दी समारोह समिति, झारखंड' का जब गठन हुआ, तो इसमें कई प्रगतिशील बुद्धिजीवियों व आंदोलनकारियों के साथ—साथ मसंस के कई नेता भी इस समारोह समिति के सदस्य बने और जब इस समारोह समिति द्वारा 25 मई से 20 अगस्त, 2017 तक कई -शहरों में कार्यक्रम की घोषणा हुई, तो झारखंड सरकार के कान खड़े हो गए और इन समारोहों को विफल करने के लिए उसने एड़ी-चोटी एक कर दिये। फलस्वरूप 25 मई को रांची में प्रस्तावित समारोह को समारोह स्थल पर हजारों कार्यकर्ताओं के पहुंचने के बाद भी परमिशन न होने का बहाना बनाकर प्रशासन द्वारा रोक दिया गया। प्रशासन की इस दादागिरी से आक्रोशित समारोह समिति ने धनबाद व गिरिडीह में प्रस्तावित समारोह को सफलता के साथ मनाया, प्रस्तावित समारोह की सफलता में चार चांद तब लगा जब 20 अगस्त को गिरिडीह में आयोजित समारोह में प्रसिद्ध कवि व आरडीएफ के अध्यक्ष वरवरा राव भी शामिल हुए।
कहना ना होगा कि ‘मजदूर संगठन समिति’सरकार की बक्र—दृष्टि का शिकार उसी वक्त ही हो गयी थी जब 9 जून 2017 को गिरिडीह के मधुबन थाना अंतर्गत पारसनाथ पहाड़ पर सीआरपीएफ कोबरा के जवानों द्वारा फर्जी मुठभेड़ में दुर्दांत माओवादी बताकर डोली मजदूर मोतीलाल बास्के की हत्या कर दी गई। चूंकि मोतीलाल बास्के एक डोली मजदूर था और मजदूर संगठन समिति का सदस्य भी था, इसलिए इस फर्जी मुठभेड़ के खिलाफ मसंस ने पहल लेकर वहां ‘दमन विरोधी मोर्चा’का गठन कर एक व्यापक जनांदोलन खड़ा किया है, जिसमें कई महत्वपूर्ण राजनीतिक दल व सामाजिक संगठन शामिल हैं। यह जनांदोलन आज भी जारी है। इस घटना में सबसे शर्मनाक बात यह रही कि इस फर्जी मुठभेड़ में की गई हत्या का जश्न मनाने के लिए झारखंड के डीजीपी डीके पांडेय ने गिरिडीह एसपी को एक लाख रूपये नगद दिये और 15 लाख बाद में देने की घोषणा की।
डीजीपी पांडेय की इस खुशी पर ग्रहण तब लग गया जब ‘दमन विरोधी मोर्चा’ने इस हत्या का पूरजोर विरोध ही नहीं किया बल्कि सरकार और प्रशासन की मजदूर, दलित—पीड़ित, आदिवासी विरोधी नीयत और उनकी नीति का पर्दाफाश कर दिया। मोतीलाल बास्के की हत्या के विरोघ में पूरे राज्य में जोरदार आंदोलन शुरू हो गया जिसमें मजदूर संगठन समिति की काफी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
बताते चले कि मोतीलाल बास्के पुलिस गोली से हुई मौत से उपजे जनाक्रोश का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 9 जून को पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ में मारा गया मोतीलाल बास्के की जब पहचान हुई तो 11 जून को ‘मजदूर संगठन समिति’ और ‘मारांग बुरू सांवता सुसार बैसी’ ने एक बैठक कर मोतीलाल को अपने संगठन का सदस्य बताते हुए विरोध दर्ज किया तथा 14 जून महापंचायत बुलाने की घोषणा की गई। 14 जून के महापंचायत में मजदूर संगठन समिति, मरांग बुरू सांवता सुसार बैसी, विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन, पीयूसीएल, भाकपा (माले), झारखंड मुक्ति मोर्चा, झारखंड विकास मोर्चा एंव क्षेत्र के कई पंचायत प्रतिनिधियों ने भाग लिया।
महापंचायत में लगभग पांच हजार की भीड़ उमड़ पड़ी। महापंचायत में ही सभी संगठनों एंव राजनीतिक दलों का एक मोर्चा ‘दमन विरोधी मोर्चा ’बनाया गया। उसी दिन मोतीलाल की पत्नी पार्वती देवी ने पुलिस को अपने पति की मौत का जिम्मेवार मानते हुए पुलिस पर मधुबन थाना में प्राथमिकी दर्ज कराई, जिसे पुलिस ने ठंडे बस्ते में डाल दिया।
महापंचायत के बाद पुलिस के विरोध में एक रैली निकाली गई। विरोध में पुनः 17 जून को मधुबन बंद रहा। 21 जून गिरिडीह डीसी कार्यालय के समक्ष ‘दमन विरोधी मोर्चा’ द्वारा धरना देकर मोतीलाल की मौत के जिम्मेवार पुलिसकर्मियों पर कानूनी कार्यवाई की मांग की गई। एक जुलाई को मानवाधिकार संगठन से संबंधित सी.डी.आर.ओ (काओर्डिनेशन आफ डेमोक्रेटिक राईट आर्गनाइजेशन) की जांच टीम ढोलकट्टा गांव गयी। चार-पांच घंटे की जांच के बाद सी.डी.आर.ओ. की टीम यह निष्कर्ष पर पहुंची कि मोतीलाल बास्के की मौत पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ में हुई है। पुलिस अपनी गलती छुपाने के लिए मजदूर मोतीलाल को नक्सली बता रही थी। टीम के साथ क्षेत्र के पंचायत प्रतिनिधि भी थे। इसके पूर्व 15 जून को मोतीलाल की पत्नी पूर्व मुख्यमंत्री एंव प्रतिपक्ष के नेता हेमंत सारेन से भेंट की।
हेमंत सोरेन ने मामले की उच्चस्तरीय जांच, मृतक की पत्नी को नौकरी व मुआवजा की मांग सरकार से की। उसके बाद ढोलकट्टा गांव जाकर पूर्व मुख्यमंत्री तथा झामुमो सुप्रीमों शिबू सोरेन 21 जून को मृतक की पत्नी से भेंट की तथा मामले को संसद के सदन में उठाने का आश्वासन दिया। पूर्व मुख्यमंत्री झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी ने न्यायायिक जांच की मांग की। वहीं सरकार का सहयोगी दल आजसू पार्टी के सुप्रीमो सुदेश महतो ने भी मामले की उच्चस्तरीय जांच की मांग की। 2 जुलाई को गिरिडीह जिले में मशाल जुलूस निकाला गया तथा 3 जुलाई को पूरा गिरिडीह बंद रहा। 'दविमो' द्वारा 5 जुलाई को एक बैठक में निर्णय के बाद 10 जुलाई को विधानसभा मार्च किया गया।
लगातार आंदलनों के बाद 13 सितंबर को एक विशाल जनसभा क्षेत्र के पीरटांड़ सिद्धु—कांहु हाई स्कूल के प्रांगण में की गई जिसमें राज्य सभी दलों के आला नेताओं ने शिरकत की।
दमन विरोधी मोर्चा द्वारा आयोजित जनसभा में झामुमो के मांडु विधायक जय प्रकाश भाई पटेल, महेशपुर विधायक स्टीफन मरांडी, राजमहल सांसद विजय हांसदा, पूर्व मंत्री मथुरा महतो, जेवीएम के केंद्रीय सचिव सुरेश साव, महासचिव रोमेश राही, पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी व उनके भाई नुनुलाल मरांडी, मासस के निरसा विधायक अरूप चटर्जी, आजसू के रविलाल किस्कू, भाकपा माले के पूरन महतो, विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन के दामोदर तुरी मजदूर संगठन समिति के बच्चा सिंह एवं मरांग बुरू सांवता सुसार
बैसी सहित क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों एवं विभिन्न सामाजिक संगठनों के लोगों ने भाग लिया। लगभग 10 हजार की भीड़ को संबोधित करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री एवं जेवीएम सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी ने स्पष्ट कहा कि पुलिस की गोली का शिकार मृतक मोतीलाल बास्के के नक्सली होने का कोई भी प्रमाण नहीं है जबकि उसका डोली मजदूर होने का पुख्ता प्रमाण है।
पुन: 9 अक्टूबर को मोतीलाल बास्के के परिवार वाले को इंसाफ दिलाने एवं मुआवजा की मांग को लेकर राजभवन के सामने अनिश्चित कालीन धरना कार्यक्रम शुरू हुआ मगर प्रशासन ने धरना कार्यक्रम का आदेश नहीं मिला है का बहाना बनाकर कार्यक्रम स्थल पर से आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया और शाम को छोड़ दिया। साफ है कि उनका मकसद कार्यक्रम को बाधित करना था। मगर दमन विरोधी मोर्चा भी अपनी बात राज्यपाल तक पहुंचाकर ही दम लिया। 4 दिसंबर को मोर्चा में शामिल सभी दलों ने राजभवन पर एक दिवसीय धरना दिया जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी एवं हेमंत सोरेन भी शामिल हुए और रघुवर सरकार की जमकर खिंचाई की।
कहना ना होगा कि लगातार जारी उक्त आंदोलनों में मजदूर संगठन समिति की काफी महत्वपूर्ण भूमिका रही। जो शासन—प्रशासन को काफी नागवार गुजरा, वहीं राज्य के डीजीपी डीके पांडेय की किरकिरी होने लगी, क्षेत्र में पुलिस व सीआरपीएफ के मनमाने रवैए पर ब्रेक लग गया।
दूसरी तरफ मजदूर संगठन समिति के नेतृत्व में मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी एवं उचित सुविधा दिलाने के लिए मधुबन में स्थित जैन कोठियों में कार्यरत मजदूरों व डीवीसी चंद्रपुरा एवं बोकारो थर्मल में भी व्यापक आंदोलन चल रहा था।
मालूम हो कि 22 दिसंबर को मजदूर संगठन समिति पर प्रतिबंध की घोषणा से तीन दिन पहले यानी 19 दिसंबर 2017 को झारखंड के डीजीपी डीके पांडेय ने रांची में प्रेस को बताया कि ‘‘मजदूर संगठन समिति राज्य की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा है, क्योंकि ये गांव के छोटे-मोटे विवादों का निपटारा कर तथा जन सामान्य के हित में दवा-कंबल आदि बंटवा कर लोगों की सहानुभूति बटोर रहा है और 9 जून 2017 को मधुबन थाना क्षेत्र के ढोलकट्टा गांव में पुलिस व नक्सली मुठभेड़ में मारे गये मोतीलाल बास्के के परिवार वालों को पुलिस पर मुकदमा करने के लिए उकसाया है और मोतीलाल बास्के की हत्या को फर्जी मुठभेड़ बताकर व्यापक आंदोलन कर रहा है। इसलिए इन तमाम तथ्यों का हवाला देते हुए मजदूर संगठन समिति पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव राज्य पुलिस मुख्यालय ने गृह कारा एवं आपदा प्रबंधन विभाग के प्रधान सचिव को भेजा है।’’
ऐसे में मसंस पर प्रतिबंध का मामला साफ हो जाता है कि मसंस द्वारा मजदूरों, मजलूमों, शोषित—पीड़ित—आदिवासियों के पक्ष में खड़ा होना राज्य की रघुवर सरकार एवं उसके चहेते डीजीपी डीके पांडेय को नागवार गुजरा और एक साजिश के तहत 28 साल पुराना इस मजदूर संगठन को प्रतिबंधित किया गया। क्योंकि पिछले 28 साल के दरम्यान एकीकृत बिहार और अलग झारखंड राज्य की सरकारों को ऐसा क्यों नहीं लगा कि मसंस माओवादियों का अग्रसंगठन है। जवाब साफ है कि पिछले 28 वर्षों से मसंस पूरी तरह लोकतांत्रिक तरीके से मजदूरों, मजलूमों, शोषित—पीड़ित—आदिवासियों के सवालों को उठाता रहा है और कभी भी कोई भी अलोकतांत्रिक कदम नहीं उठाया है।
मसंस के महासचिव बच्चा सिंह बताते हैं कि
"संगठन को प्रतिबंधित कर देना सरकार की फासीवादी व तानाशाही प्रवृत्ति को ही दर्शाता है, जबकि मजदूर संगठन समिति (पंजीयन संख्या-3113/89) एक पंजीकृत ट्रेड यूनियन है। हमारी एक केंद्रीय कमिटी है, झारखंड, बिहार व पश्चिम बंगाल में कई जगह हमारी शाखाएं हैं। हमारा पंजीयन 28 साल पुराना है। हमारा एक केंद्रीय कार्यालय समेत कई शाखा कार्यालय भी शहरों में मौजूद है। हमारा एक केंद्रीय बैंक एकाउंट समेत कई शाखाओं के भी बैंक एकाउंट हैं। हमारे प्रतिनिधियों ने राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई मजदूर सम्मेलनों में हिस्सा लिया है। पिछले 28 वर्षों से हमारे संगठन के पदाधिकारी स्थानीय स्तर से लेकर राज्य व राष्ट्रीय स्तर के सरकारी पदाधिकारी से मिलकर ज्ञापन देते रहे हैं। कई जगहों पर सरकारी बैठकों में हमारे प्रतिनिधि शामिल होते रहे हैं। इतना सबकुछ होने के बावजूद हमारे संगठन को बिना किसी पूर्व सूचना यानी नोटिस दिये बिना अखबार के माध्यम से प्रतिबंध की घोषणा करना अलोकतांत्रिक ही नहीं बल्कि गैर-वैधानिक होने के साथ-साथ ट्रेड यूनियन एक्ट के खिलाफ भी है। यहां तक की हमारा संगठन आज भी सरकार के श्रम विभाग में पंजीकृत है, इसके बावजूद 30 दिसंबर, 2017 को हमारे गिरिडीह, मधुबन व बोकारो थर्मल शाखा कार्यालय को सील कर दिया गया व इनके बैंक एकाउंट को भी फ्रीज कर दिया गया। यहां तक कि मजदूर संगठन समिति के नेतृत्व में मधुबन में डोली मजदूर कल्याण कोष से संचालित ‘‘श्रमजीवी अस्पताल‘‘ को भी सील कर दिया गया व डोली मजदूर कल्याण कोष के बैंक एकाउंट को भी फ्रीज कर दिया गया। डोली मजदूर कल्याण कोष के लिए कोष संग्रह कर रहे मधुबन शाखा के तीन साथी (अजय हेम्ब्रम, दयाचंद हेम्ब्रम व मोहन मुर्मू) को भी पुलिस ने 24 दिसंबर को लेवी वसूलने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया और इन तीनों साथी के अलावा सात अन्य केन्द्रीय व स्थानीय साथी के उपर 17 सीएलए, 13 यूएसी समेत कई गंभीर धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया गया, जबकि डोली मजदूर कल्याण कोष का निर्माण त्रिपक्षीय समझौता (पुलिस-प्रशासन, जैन कोठी प्रबंधन व मजदूर संगठन समिति) के तहत लिखित रूप से हुआ था और कोष संग्रह का काम पिछले कई सालों से दिन के उजाले में चल रहा था। मजदूर संगठन समिति पर प्रतिबंध लगाने का मूल मकसद झारखंड में पुलिसिया दमन के खिलाफ जनांदोलन, जैन कोठी प्रबंधन की मजदूर विरोधी नीतियों के खिलाफ व्यापक मजदूर आंदोलन, डीवीसी प्रबंधन के खिलाफ व्यापक मजदूर आंदोलन, आम मजदूरों के हितों में व्यापक आंदोलन, जल-जंगल-जमीन को बचाने के पक्ष में चल रहे आंदोलन आदि को पूरी तरह से खत्म करना है और देशी-विदेशी कारपोरेट लूटेरों को झारखंड की अमूल्य खनिज संपदा को बेरोक-टोक सौंपना है एवं इसके खिलाफ में आवाज उठाने वालों को डोली मजदूर मोतीलाल बास्के की तरह फर्जी मुठभेड़ में मारकर जश्न मनाना भी है। मोतीलाल बास्के की फर्जी मुठभेड़ में की गई हत्या के मामले में डीजीपी खुद को फंसा हुआ सा महसूस कर रहे हैं और फिर से किसी फर्जी मुठभेड़ में किसी को मारने की उनकी हिम्मत नहीं हो रही है, इसलिए मजदूर संगठन समिति पर प्रतिबंध लगाकर पुलिसिया जुल्म व दमन के खिलाफ उठनेवाली आवाज को वह हमेशा के लिए दबा देना चाहते हैं। मोतीलाल बास्के की हत्या के खिलाफ ‘दमन विरोधी मोर्चा’ का गठन किया गया था, जिसमें मजदूर संगठन समिति के अलावा झामुमो, झाविमो, भाकपा (माले), आजसू, सावंता सुसार वैसी, विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन भी शामिल था और झारखंड के तीन पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन, हेमंत सोरेन व बाबूलाल मरांडी ने भी ढोलकट्टा आकर मोतीलाल बास्के की हत्या को फर्जी मुठभेड़ बताया था, लेकिन मजदूर संगठन समिति को ही सिर्फ डीजीपी के द्वारा टारगेट किया गया। हां, मजदूर संगठन समिति जरूर दमन विरोधी मोर्चा का अगुवा संगठन था और मजदूर संगठन समिति को मोतीलाल बास्के की फर्जी हत्या के खिलाफ किये गये व्यापक जनांदोलन के लिए गर्व है, साथ ही इस आंदोलन को हत्यारों को सजा दिलाने तक चलाने के लिए भी संकल्पित है।"
"संगठन को प्रतिबंधित कर देना सरकार की फासीवादी व तानाशाही प्रवृत्ति को ही दर्शाता है, जबकि मजदूर संगठन समिति (पंजीयन संख्या-3113/89) एक पंजीकृत ट्रेड यूनियन है। हमारी एक केंद्रीय कमिटी है, झारखंड, बिहार व पश्चिम बंगाल में कई जगह हमारी शाखाएं हैं। हमारा पंजीयन 28 साल पुराना है। हमारा एक केंद्रीय कार्यालय समेत कई शाखा कार्यालय भी शहरों में मौजूद है। हमारा एक केंद्रीय बैंक एकाउंट समेत कई शाखाओं के भी बैंक एकाउंट हैं। हमारे प्रतिनिधियों ने राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई मजदूर सम्मेलनों में हिस्सा लिया है। पिछले 28 वर्षों से हमारे संगठन के पदाधिकारी स्थानीय स्तर से लेकर राज्य व राष्ट्रीय स्तर के सरकारी पदाधिकारी से मिलकर ज्ञापन देते रहे हैं। कई जगहों पर सरकारी बैठकों में हमारे प्रतिनिधि शामिल होते रहे हैं। इतना सबकुछ होने के बावजूद हमारे संगठन को बिना किसी पूर्व सूचना यानी नोटिस दिये बिना अखबार के माध्यम से प्रतिबंध की घोषणा करना अलोकतांत्रिक ही नहीं बल्कि गैर-वैधानिक होने के साथ-साथ ट्रेड यूनियन एक्ट के खिलाफ भी है। यहां तक की हमारा संगठन आज भी सरकार के श्रम विभाग में पंजीकृत है, इसके बावजूद 30 दिसंबर, 2017 को हमारे गिरिडीह, मधुबन व बोकारो थर्मल शाखा कार्यालय को सील कर दिया गया व इनके बैंक एकाउंट को भी फ्रीज कर दिया गया। यहां तक कि मजदूर संगठन समिति के नेतृत्व में मधुबन में डोली मजदूर कल्याण कोष से संचालित ‘‘श्रमजीवी अस्पताल‘‘ को भी सील कर दिया गया व डोली मजदूर कल्याण कोष के बैंक एकाउंट को भी फ्रीज कर दिया गया। डोली मजदूर कल्याण कोष के लिए कोष संग्रह कर रहे मधुबन शाखा के तीन साथी (अजय हेम्ब्रम, दयाचंद हेम्ब्रम व मोहन मुर्मू) को भी पुलिस ने 24 दिसंबर को लेवी वसूलने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया और इन तीनों साथी के अलावा सात अन्य केन्द्रीय व स्थानीय साथी के उपर 17 सीएलए, 13 यूएसी समेत कई गंभीर धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया गया, जबकि डोली मजदूर कल्याण कोष का निर्माण त्रिपक्षीय समझौता (पुलिस-प्रशासन, जैन कोठी प्रबंधन व मजदूर संगठन समिति) के तहत लिखित रूप से हुआ था और कोष संग्रह का काम पिछले कई सालों से दिन के उजाले में चल रहा था। मजदूर संगठन समिति पर प्रतिबंध लगाने का मूल मकसद झारखंड में पुलिसिया दमन के खिलाफ जनांदोलन, जैन कोठी प्रबंधन की मजदूर विरोधी नीतियों के खिलाफ व्यापक मजदूर आंदोलन, डीवीसी प्रबंधन के खिलाफ व्यापक मजदूर आंदोलन, आम मजदूरों के हितों में व्यापक आंदोलन, जल-जंगल-जमीन को बचाने के पक्ष में चल रहे आंदोलन आदि को पूरी तरह से खत्म करना है और देशी-विदेशी कारपोरेट लूटेरों को झारखंड की अमूल्य खनिज संपदा को बेरोक-टोक सौंपना है एवं इसके खिलाफ में आवाज उठाने वालों को डोली मजदूर मोतीलाल बास्के की तरह फर्जी मुठभेड़ में मारकर जश्न मनाना भी है। मोतीलाल बास्के की फर्जी मुठभेड़ में की गई हत्या के मामले में डीजीपी खुद को फंसा हुआ सा महसूस कर रहे हैं और फिर से किसी फर्जी मुठभेड़ में किसी को मारने की उनकी हिम्मत नहीं हो रही है, इसलिए मजदूर संगठन समिति पर प्रतिबंध लगाकर पुलिसिया जुल्म व दमन के खिलाफ उठनेवाली आवाज को वह हमेशा के लिए दबा देना चाहते हैं। मोतीलाल बास्के की हत्या के खिलाफ ‘दमन विरोधी मोर्चा’ का गठन किया गया था, जिसमें मजदूर संगठन समिति के अलावा झामुमो, झाविमो, भाकपा (माले), आजसू, सावंता सुसार वैसी, विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन भी शामिल था और झारखंड के तीन पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन, हेमंत सोरेन व बाबूलाल मरांडी ने भी ढोलकट्टा आकर मोतीलाल बास्के की हत्या को फर्जी मुठभेड़ बताया था, लेकिन मजदूर संगठन समिति को ही सिर्फ डीजीपी के द्वारा टारगेट किया गया। हां, मजदूर संगठन समिति जरूर दमन विरोधी मोर्चा का अगुवा संगठन था और मजदूर संगठन समिति को मोतीलाल बास्के की फर्जी हत्या के खिलाफ किये गये व्यापक जनांदोलन के लिए गर्व है, साथ ही इस आंदोलन को हत्यारों को सजा दिलाने तक चलाने के लिए भी संकल्पित है।"
रघुवर सरकार की मजदूर विरोधी नीयत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मजदूर संगठन समिति पर 22 दिसंबर को लगाए गए प्रतिबंध के बाद जैन धर्म स्थल गिरिडीह के पारसनाथ पर्वत स्थित मधुबन से संबंधित "श्री सम्मेद शिखरजी तीर्थ क्षेत्र संबंधित विशेष सूचना" के नाम से एक पोस्ट जैन धर्मावलंबियों के बीच वायरल होने लगा,जिसमें साफ लिखा गया था कि श्री सम्मेद शिखरजी तीर्थ क्षेत्र पर तथाकथित मजदूर संगठनों द्वारा 22 दिसंबर को हड़ताल प्रारंभ की गई थी 'तीर्थराज श्री शिखर जी जैन समन्वय समिति' ने 'आल इंडिया जैन माइनॉरिटी फेडरेशन' के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललित जी गांधी के नेतृत्व में भारत सरकार से हस्तक्षेप करवा कर झारखंड के मुख्यमंत्री श्री रघुवर जी दास के साथ विशेष बैठक सम्पन्न हुई। इस बैठक के माध्यम से माननीय मुख्यमत्री ने अत्यन्त कठोर निर्णय लेते हुए जैन समाज को बहुत विशेष सहयोग किया एंव सम्मेद शिखर जी तीर्थ की हड़ताल समाप्त हो गयी। इतना ही नहीं वर्षों से तीर्थराज उपर कार्यरत सभी जैन सम्प्रदाय के धार्मिक संगठन जिस समस्या का सामना कर रहे थे, वह 'मजदूर संगठन समिति' को समूचे झारखंड राज्य में प्रतिबंधित करने का अत्यंत बड़ा निर्णय उसी दिन लिया गया।
तीर्थराज श्री शिखरजी के लिए यह एक ऐतिहासिक निर्णय रहा जिसके लिए समूचा जैन समाज केंद्रीय अल्पसंख्यक राज्यमंत्री डॉ वीरेंद्र कुमार एंव झारखंड की कर्तव्य कठोर मुख्यमंत्री रघुवर दास के आभारी रहेगा।"
यह पोस्ट संदीप भंडारी राष्ट्रीय अध्यक्ष 'आल इंडिया जैन माइनारिटी फेडरेशन' द्वारा डाला गया था।
दूसरी तरफ मसंस द्वारा डीजीपी व सरकार पर उठाए गए सवाल में दम तब दिखने लग जाता है जब हम 2015 में बकोरिया कांड की ओर रूख करते हैं।
उल्लेखनीय है कि आठ जून, 2015 की रात पलामू के सतबरवा थाना क्षेत्र के बकोरिया में नक्सली डॉ अनुराग और 11 लोगों को पुलिस ने कथित मुठभेड़ में मार गिराया था। उनमें से अभी तक चार की पहचान नहीं हुई है। मरनेवालों में दो नाबालिग भी थे। पुलिस के मुठभेड़ की कहानी शुरू से ही विवादों में घिरी हुई है। मारे गये लोगों में से केवल एक डॉ अनुराग के ही नक्सली होने के सबूत पुलिस के पास उपलब्ध थे। शेष लोगों का नक्सली गतिविधियों से संबद्ध रहने का कोई रिकार्ड नहीं है।
ढाई साल में बदले गये हैं आधा दर्जन अफसर
कोर्ट के आदेश पर बकोरिया कांड की जांच में तेजी लानेवाले सीआइडी के एडीजी एमवी राव का तबादला एक ही महीने में कर दिया गया था। श्री राव 13 नवंबर 2017 एडीजी, सीआइडी के रूप में पदस्थापित किये गये थे। फिर 13 दिसंबर को सरकार ने उन्हें पद से हटा दिया। इससे पहले कथित मुठभेड़ के तुरंत बाद भी कई अफसरों के तबादले कर दिये गये थे। सीआइडी के तत्कालीन एडीजी रेजी डुंगडुंग व पलामू के तत्कालीन डीआइजी हेमंत टोप्पो का तबादला किया गया। उनके बाद सीआइडी एडीजी बने अजय भटनागर व अजय कुमार सिंह के कार्यकाल में मामले की जांच सुस्त हो गयी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी इस पर टिप्पणी की थी। मामले में रुचि लेने की वजह से रांची जोन की तत्कालीन आइजी सुमन गुप्ता का भी अचानक तबादला कर दिया गया था। पलामू सदर थाना के तत्कालीन प्रभारी हरीश पाठक को पुराने मामले में निलंबित कर दिया गया था।
बकोरिया कांड के मुख्य बिंदु
आठ जून, 2015 को पलामू के सतबरवा थाना क्षेत्र के बकोरिया में पुलिस के साथ कथित मुठभेड़ में कुल 12 लोग मारे गये थे। उनमें से एक डॉ आरके उर्फ अनुराग के नक्सली होने का रिकॉर्ड पुलिस के पास उपलब्ध था।
घटना के ढाई साल बीतने के बाद भी मामले की जांच कर रही सीआइडी ने न तो तथ्यों की जांच की, न ही मृतक के परिजनों और घटना के समय पदस्थापित पुलिस अफसरों का बयान दर्ज किया।
पलामू सदर थाना के तत्कालीन प्रभारी हरीश पाठक ने बयान दिया कि पलामू के एसपी ने उन्हें घटना का वादी बनने के लिए कहा। इनकार करने पर सस्पेंड करने की धमकी दी।
हरीश पाठक ने अपने बयान में यह भी कहा है कि पोस्टमार्टम हाउस में चौकीदार ने तौलिया में खून लगाया और कथित मुठभेड़ के बाद मिले हथियारों की मरम्मत डीएसपी कार्यालय में की गयी। यही कारण है कि घटना के 25 दिन बाद जब्त हथियार को कोर्ट में पेश किया गया।
इनाम बांटने माहिर है डीजीपी डीके पांडेय
मामले की जांच किये बिना ही डीजीपी डीके पांडेय ने कथित मुठभेड़ में शामिल जवानों व अफसरों के बीच लाखों रुपये इनाम के रूप में बांट दिये।
मामले की जांच का प्रोग्रेस रिपोर्ट एसटीएफ के तत्कालीन आइजी आरके धान ने दिया। उन्होंने घटना के बाद घटनास्थल पर गये सभी अफसरों का बयान दर्ज करने का निर्देश अनुसंधानक को दिया। उल्लेखनीय है कि घटना के बाद डीजीपी डीके पांडेय, तत्कालीन एडीजी अभियान एसएन प्रधान, एडीजी स्पेशल ब्रांच घटनास्थल पर गये थे।
डीजीपी डीके पांडेय ने बकोरिया मुठभेड़ की जांच धीमी करने का डाला था दबाव
डीजीपी डीके पांडेय के आदेश पर बकोरिया कांड की जांच धीमी नहीं करने के कारण सीआइडी के एडीजी पद से एमवी राव का तबादला कर दिया गया था। उनके अलावा जिन दूसरे अधिकारियों ने भी बकोरिया कांड में दर्ज प्राथमिकी पर मतभेद जताया, उनका तबादला कर दिया गया। एडीजी एमवी राव ने अपने तबादले के विरोध में गृह सचिव को एक पत्र लिखा है। पत्र में इन तथ्यों का भी उल्लेख किया है। पत्र की प्रतिलिपि झारखंड के राज्यपाल और मुख्यमंत्री के अलावा केंद्रीय गृह मंत्रालय को भी भेजी गयी है।
पत्र में एमवी राव ने लिखा है कि बकोरिया कांड में डीजीपी ने जांच धीमी करने का निर्देश दिया था। डीजीपी ने कहा था कि न्यायालय के किसी आदेश से चिंतित होने की कोई जरूरत नहीं है। श्री राव ने लिखा है कि उन्होंने डीजीपी के इस आदेश का विरोध करते हुए जांच की गति सुस्त करने, साक्ष्यों को मिटाने और फर्जी साक्ष्य बनाने से इनकार कर दिया, जिसके तुरंत बाद उनका तबादला सीआइडी से नयी दिल्ली स्थित ओएसडी कैंप में कर दिया गया, जबकि यह पद स्वीकृत भी नहीं है। अब तक किसी भी अफसर को बिना उसकी सहमति के इस पद पर पदस्थापित नहीं किया गया है। पत्र में यह भी कहा गया है कि बकोरिया कांड की जांच सही दिशा में ले जानेवाले और दर्ज एफआइआर से मतभेद रखने का साहस करनेवाले अफसरों का पहले भी तबादला किया गया है। यह एक बड़े अपराध को दबाने और अपराध में शामिल अफसरों को बचाने की साजिश है।
एडीजी श्री राव ने अपने पत्र में लिखा है कि सीआइडी में 150 से अधिक मामले जांच के लिये लंबित हैं। इनमें मुठभेड़ के भी कई मामले शामिल हैं। सीआइडी एडीजी के रूप में उन्होंने मामलों की समीक्षा करके जांच के लिए जरूरी निर्देश जारी किये थे। इस बीच हाईकोर्ट ने बकोरिया की जांच में तेजी लाने और पलामू के तत्कालीन डीआइजी हेमंत टोप्पो और पलामू सदर थाना के तत्कालीन प्रभारी हरीश पाठक का बयान दर्ज करने का आदेश सीआइडी को दिया। दोनों अफसरों का बयान दर्ज किया गया।
अपने बयान में दोनों अफसरों ने बकोरिया में हुई पुलिस मुठभेड़ को गलत बताया।
कोर्ट के आदेश पर सीआइडी के एसपी सुनील भास्कर और सुपरवाइजिंग ऑफिसर आरके धान की उपस्थिति में मामले की भी समीक्षा की गयी, जिसमें पता चला कि मामला दर्ज किये जाने के बाद पिछले ढाई वर्षों में जांच आगे नहीं बढ़ सकी। अब जाकर घटना के मामले में सीआइडी के एसपी सुनील भास्कर ने हाईकोर्ट में जो हलफनामा दाखिल किया है, उसमें उसने कई तथ्य छिपाये हैं। हलफनामे में कहा है कि घटना के वक्त इंस्पेक्टर हरीश पाठक पलामू सदर थाना के प्रभारी थे। घटना बकोरिया थाना क्षेत्र में हुई थी। इस कारण इससे हरीश पाठक का कोई लेना देना नहीं है। उन्हें इस अभियान से अलग रखा गया था। उनका बयान विश्वसनीय इसलिए नहीं है कि उस वक्त रांची से प्रकाशित दैनिक प्रभात खबर में छपी तस्वीरों में इंस्पेक्टर हरीश पाठक घटना के बाद घटनास्थल पर दिख रहें हैं। इतना ही नहीं, इस बात की भी पक्की सूचना है कि पलामू के तत्कालीन एसपी कन्हैया मयूर पटेल के निर्देश पर इंस्पेक्टर हरीश ही दंडाधिकारी को लेकर घटनास्थल पर पहुंचे थे। शवों के पोस्टमार्टम के वक्त भी हरीश मौजूद थे। कहना ना होगा कि सीआइडी द्वारा कोर्ट में दाखिल किया हलफनामा काफी विसंगतपूर्ण है। जिसके कारण को तमाम घटनाक्रम पर नजर डालने के बाद स्वत: समझा जा सकता है।
डीके पांडेय के रघुवर दास से रिश्ते
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उल्लेखनीय है रघुवर सरकार के सत्ता मे आते ही फरवरी 2015 में अचानक राज्य सरकार ने 1981 बैच के भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी पुलिस महानिदेशक राजीव कुमार को तत्काल प्रभाव से स्थानांतरित कर पुलिस महानिदेशक प्रशिक्षण बना दिया गया। वहीं उनके स्थान पर 1984 बैच के भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी डीके पांडेय को राज्य का नया पुलिस महानिदेशक नियुक्त कर दिया गया। तब डी के पांडेय केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल में अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक के पद पर कार्यरत थे। जिस पर राजीव कुमार ने राज्य सरकार के इस फैसले पर नाराजगी जतायी थी। डी के पांडेय को अचानक लाना उनका रघुवर दास से रिश्ते को साफ दर्शाता है।
यही वजह है कि बकोरिया कांड की सच्चाई सामने आते ही विपक्ष डीजीपी डीके पांडेय को बरखास्त करने और उन पर कानूनी कारवाई की मांग कर रहा है, जहां अपनी मांगों को लेकर विपक्ष अड़ा है वहीं रघुवर सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंग पाया है, ऐसे में कई दिनों से विधानसभा सुचारू रूप से नहीं चल पाया है।

