डा . आशीष वशिष्ट


बरसों-बरस से हम और आप यही पढ़ते आए हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। लेकिन 1991 में उदारीकरण की जो बयार देश में बही उसने इस कृषि प्रधान देश के तगमें को धूमिल कर डाला। यह कड़वी सच्चाई है कि आज देश में कृषि पर से निर्भरता कम हुई है और विकास, विशेष आर्थिक क्षेत्र, उद्योगों की स्थापना और एक्सप्रेस हाईवे के नाम पर किसानो की उपजाऊ जमीनों को कोडि़यों के दामों पर खरीदकर सरकार कारपोरेट घरानांे और बिल्डरों को खुश करने में मगन है। सीधे अर्थों में सरकार जनता और अन्नदाता किसानों के साथ गद्दारी और धोखाधड़ी कर रही है। क्योंकि सरकार जिस मकसद से किसानों से जमीन ले रही है असल में उसका उपयोग उस काम से हटकर बहुमंजिला इमारतें और अन्य कामों में धडल्ले से किया जा रहा है तथा सरकार और उसकी पालतू मशीनरी री कमीशन की मलाई से पेट तर कर रही है। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने ग्रेटर नोएडा में यूपी सरकार द्वारा अधिग्रहित की गई जमीन किसानों को वापिस करने का आदेश देकर सरकार को तगड़ा झटका और किसानों को बड़ी राहत दी है। ऐसा नहीं है कि केवल यूपी की में ही किसानों की जमीनें सरकार हड़प रही है ये बीमारी पूरे देशभर में फैली है और देश के किसान सरकारी चालबाजियों और गलत नीतियों से ठगे जा रहे हैं। यूपी की वर्तमान माया सरकार और पूर्ववर्ती मुलायम सिंह की सरकार ने औद्योगिक घरानों और बिल्डरों को प्रदेश की उपजाऊ जमीनें हड़पने के नये रिकार्ड कायम किये हैं। आगरा, टप्पल, इलाहाबाद, लखनऊ और हाल ही भट्ठा पारसौल की घटना ने सूबे में किसान राजनीति को तो गर्माया ही है वहीं यह भी सोचने को मजबूर किया है कि आखिरकर सरकार विकास के नाम पर जिस उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण कर रही है उसका क्या औचित्य है? विकास के नाम पर पिछले एक दशक में नोएडा में सरकार ने 8500 एकड़ जमीन अधिग्रहित की है, उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण रोजी-रोटी की समस्या को बढ़ाने में अहम् भूमिका निभा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के तलख तेवरों के बाद शायद इस प्रवृत्ति पर आंशिक रोक लगने की उम्मीद तो जगी है लेकिन भ्रष्ट और कारपोरेट घरानों के हाथों बिकी सरकार षडयंत्र और कुचक्र रचने से तौबा करेगी इसकी संभावना कम ही है।

नंदीग्राम इतिहास के पन्नों शामिल हो चुका है। मार्च 2007 की 14 तारीख को जो घटनाक्रम नंदीग्राम में घटित हुआ था, उसे शायद देश की जनता अभी भुला नहीं पाई होगी। इस दिन पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार की पुलिस ने विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) का विरोध कर रही जनता और किसानों पर गोली चलाकर 14 लोगों को मार डाला और दर्जनों अन्यों को घायल कर दिया। नंदी ग्राम से पूर्व भी ऐसी अनेक घटनाएं देश में घट चुकी हैं। जनवरी 2006 में उड़ीसा के कलिगंनगर में नंदीग्राम की तरह दर्जन भर लोगों को मार दिया गया था। उससे पहले उड़ीसा के ही काशीपुर में, छत्तीसगढ़ के नागरनार और हीरानगर में भी इस प्रकार की घटनाएं घट चुकी हैं। बिहार के अरवल में मिन्नी जलियांवाला काण्ड भी 1984 में हो चुका है, जहां एक पार्क में घेर कर जनता पर गोली चलाई गई थी। नंदीग्राम से लेकर भट्ठा पारसौल तक अगर जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रही जनता और किसानों पर गोली चलाने की पुरानी रिवायत है तो अगर मायावती ने बेकसूर किसानों और ग्रामीणों पर गोली चलवाई तो इसमें नया क्या है। जनता की चुनी सरकारों के पास आम आदमी के दुख-दर्दे को सुनना का समय ही नहीं है। प्रजातंत्र का ढोल पीटने वाली सरकारें असल में एक बिगड़ैल, मदमस्त और घमंडी तानाशाह की भांति राज-काज का संचालन करती हैं और जन और किसान विरोधी हुक्म की तामील के लिए देश के आवाम और किसान पर गोली, डंडे और कानूनी कार्रवाई करने से बाज नहीं आती हैं। भट्ठा पारसौल में जो कुछ भी घटा वो देश दुनिया ने देखा। सरकार बेशर्मी पर आमादा है अपने दामन पर लगे सैंकड़ों दागों और लांछनों को छुपाने की बजाए वो सीना तानकर अपनी पाॅलिसी और कार्रवाई को न्यायसंगत और तर्कसंगत करने में लगी हुई है।

नन्दी ग्राम पश्चिम बंगाल का एक उपजाऊ क्षेत्र है। यहां की ज्यादातर आबादी खेती पर निर्भर करती है। सीपीएम की सरकार ने 11000 एकड़ भूमि के अधिग्रहण की योजना बनाई थी। ताकि उसे इंडोनेशिया के औद्योगिक घरानों सलीम ग्रुप को दिया जा सके। यह सलीम ग्रुप वहीं है जिसने 1965 में सुकर्णों के खिलाफ तख्ता पलट की कार्रवाई में सुहार्तो का साथ दिया और कुछ दिनों के भीतर ही कई लाख कम्युनिस्टों और उनके सर्मथकों को मार डाला था। इसी सलीम ग्रुप के लिए सरकार इस क्षेत्र की जमीन अधिग्रहण करना चाहती थी। लेकिन यहां की जनता नहीं चाहती कि उनकी जमीन का अधिग्रहण हो और वे अपने रोजगार से वंचित हो जाएं। इसलिए जैसे ही यहां की जनता को इस योजना की जानकारी हुई ‘भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमेटी’ के नाम से संगठित होकर उसने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। सीपीएम पश्चिम बंगाल में भूमि सुधारों को एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में पेश करती थी। बंगाल से बाहर के सीपीएम के कार्यकर्ता समझते थे कि बंगाल में कोई भूमिहीन है ही नहीं। सच्चाई क्या है? पिछले 30 सालों में बंगाल में भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की संख्या 35 लाख से बढ़कर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है। इस संख्या में तेजी से वृद्वि हो रही है क्योंकि सीपीएम सरकार ने हर साल 20 हजार एकड़ खेती लायक जमीन को दूसरे उपयोग के कामों में हस्तांरित कर रही है। सिंगुर में टाटा को औने-पौने दामों पर किसानों की जमीन खरीद कर दी। सीपीएम की नीतियों का विरोध करने वालों को, चाहे वे वाममोर्चा के अपने मित्र हों, तृणमूल कांग्रेस के हो या नक्सलवादी इन्होंने उनको जनवादी तौर तरीकों का पालन करते हुए नहीं बल्कि प्रशासन और गुण्डागर्दी से दबाया है। देश के लगभग हर राज्य में स्थानीय सरकारें औद्योगिक घरानों को लाभ पहंुचाने के लिए अधिक से अधिक खेती योग्य भूमि का अधिग्रहण कर तो लेती है लेकिन जिन उद्देष्यों के लिए जमीन ली जाती है वो जमीन उस काम न लाकर व्यवासियक या अन्य बिजनेस में व्यर्थ गंवा दी जाती है। यूपी में यमुना और गंगा एक्सप्रेस हाईवे के नाम पर हजारों एकड़ जमीन किसानों से हथियाकर जेपी ग्रुप को दी है। सरकार अपनी योजनाओं के लाभ बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है लेकिन एक्सप्रेस हाईवे और राजमार्गो के निकलने से भूमिहीन किसानों को क्या लाभ होगा ये बात समझ से परे हैं। जब किसान अपनी जमीन ही बेच देगा तो वो क्या किसी कारखाने में मजदूरी करेगा या फिर हाईवे के किनारे फल या सब्जी का ठेला लगाएगा। सरकार द्वार जमीन अधिग्रहण की कार्रवाई को अगर भूमि हड़प कहकर संबोधित किया जाए तो कोई बुराई नहीं होगी। क्योंकि इस प्रक्रिया में छोटे व सीमांत किसान तेजी से भूमिहीन श्रमिक बन रहे हैं। इसीलिए, स्थानीय किसान और समुदाय सरकारी जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहा है। हालांकि, इन किसानों का रोजगार, बिजली, सड़क, उत्पादकता व आय में बढ़ोतरी, तकनीकी हस्तांतरण आदि का प्रलोभन दिया जा रहा है लेकिन इससे होने वाले नुकसान के बारे में स्थानीय सरकारें खामोश हैं। फिर मुआवजा, रोजगार, आय आदि के मामले में असंगठित व छोटे किसानों के हितों की अनदेखी की जा रही है। जमीन की बिक्री या उसे पट्टे पर देते समय यह कहा जाता है कि संबंधित भूमि अनुत्पादक है लेकिन वह गरीबों की आजीविका की सुरक्षा देती है।

स्वतंत्रता के बाद देश में कृषि के साथ-साथ उद्योग और सेवा क्षेत्र के विकास पर भी समान रूप से जोर दिया गया। आरंभिक वर्षों में तो तीन क्षेत्रों का संतुलित विकास हुआ लेकिन जैसे-जैसे आर्थिक विकास रणनीति ने गति पकड़ी वैसे-वैसे सकल घरेलु उत्पाद में कृषि की भागीदारी घटी। उदाहरण के लिए 1950-51 में सकल घरेलु उत्पाद में कृषि की भागीदारी 55.44 फीसदी थी जो 2006-07 में गिरकर 18.5 फीसदी रह गई। यहां उल्लेखनीय है कि जिस अनुपात में सकल घरेलू कृषि की भागीदारी घटी उसी अनुपात में कृषि पर निर्भर जनसंख्या नहीं घटी। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो कृषि पर निर्भर जनसंख्या बढ़ी ही है। उदाहरण के लिए 1951 में कुल जनसंख्या 36 करोड़ थी जिसका तीन चैथाई भाग अर्थात् 27 करोड़ जनसंख्या कृषि पर निर्भर थी, 2001 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या (102 करोड़) का दो-तिहाई अर्थात 78 करोड़ जनसंख्या कृषि पर निर्भर हो गई। बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ आवासीय-औद्योगिक व वाणिज्यिक गतिविधियों, सड़क व बड़ी परियोजनाओं के निर्माण, शहरी करण से कृषि भूमि का बड़े पैमाने पर विनाश हुआ। इसके फलस्वरूप् जोत का औसत आकार घटा। 1991 के बाद शुरू हुई उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों से इस कुप्रवृत्ति में तेजी आई। इस प्रकार कृषि पर दबाव बढ़ा और वह घाटे का सौदा बन गई। किसान मजदूर बड़े पैमाने पर नगरों की ओर पलायन करने को मजबूर हुए। इससे नगरों में झुग्गी-झोपड़ी की संख्या, प्रदूषण, अपराध आदि में बढ़ोतरी हुई। इस प्रकार असंतुलित विकास प्रक्रिया की शुरूआत भी देश में शुरू हुई। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार है क्योंकि यह ग्रामीण आजीविका सुरक्षा प्रणाली की रीढ़ का कार्य करती है। भारत का भौगोलिक क्षेत्रफल 32.87 करोड़ हेक्टेयर है जिसमें से 14.1 करोड़ हेक्टेयर निवल बुवाई क्षेत्र है। कृषि क्षेत्र भारत के सकल घरेलु उत्पाद में 18 प्रतिशत तथा कुल निर्यातों में 12 प्रतिशत योगदान करता है। देश की 56 प्रतिशत जनसंख्या आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। 2007-08 की आर्थिक समीक्षा के अनुसार सकल घरेलु उत्पाद में कृषि की भागीदारी 17.5 फीसदी रह गई। एक ओर सकल घरेलु उत्पाद में कृषि का योगदान घट रहा है। आहार, रोजगार, कृषि आधारित उद्योगों के लिए माल का स्त्रोत होने के बावजूद भारतीय कृषि बदहाल हे। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार देष के 48.6 प्रतिशत किसान ऋणग्रस्त हैं। देश के 40 प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं लेकिन किसी अन्य विकल्प के अभाव में वे मजबूरन खेती कर रहे हैं। कृषि क्षेत्र के संकट को 1997 से शुरू हुई किसानों की आत्महत्या से समझ जा सकता है। स्वंय सरकार ने संसद में स्वीकार किया है कि 1997 से अब तक डेढ़ लाख से अधिक किसान एक कृषि प्रधान देश में आत्महत्याएं कर चुके हैं।

विडंबना यह है कि देश के किसान भी भूमि अधिग्रहण से जुड़ी अनेक समस्याओं को समझ नहीं पा रहे हैं। कर्ज के बोझ तले दबे और नगदी फसलों की पैदावार के लोभ के फरे में पड़े किसान आत्महत्या से मुक्ति पाने के जिस गलत मार्ग पर चल पड़े हैं वो इस देश और देश वासियों के लिए अफसोसजनक और दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। और सरकार तो जान बूझकर किसानों की समस्याओं की अनदेखी कर रही है। सरकार और सरकारी मशीनरी को कमीशन खाने से मतलब है उन्हें इससे मतलब नहीं है कि देश , समाज और भूमिपुत्र का भविष्य क्या होगा। वोट बैंक की गंदी और ओछी राजनीति करने वाले नेता और राजनीतिक दल ये कभी नहीं चाहते हैं कि इस देश में किसानों की समस्या का कोई ठोस और स्थायी हल निकले। वो तो किसानों की भावनाओं और समस्याओं को भड़काकर उस पर राजनीतिक रोटियां सेंकने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते हैं। नंदीग्राम से भट्ठापारसौल तक किसानों का दुःख-दर्दे ज्यों का त्यों बरकरार है और नेता नगरी राजनीति करने में मशगूल है। अलीगढ़ के नुमाइश मैदान में कांग्रेस के युवराज ने किसान पंचायत (नुमायश)करके किसानों का सबसे बड़ा हितेषी और हमदर्द बनने की जो पाॅलिटिक्स की है वो ऊपर से तो भली और सार्थक पहल लगती है कि कोई युवा और प्रभावशाली नेता जमीन और किसान की बात कर रहा है लेकिन दर्द और गुस्सा तब आता है कि वो नेता सक्षम होने के बावजूद भी किसानों को मीठी गोली और झूठे वायदों की चाशनी में डूबी जलेबी खिलाकर अपने साथ जोड़ने और वोट बटोरने को अधिक आतुर दिखाई देता है। राहुल अगर असल में ही किसानों के साथ हैं तो आगामी मानसून सत्र में उन्हें भूमि अधिग्रहण के लिए एक पुख्ता कानून बनवाने का पूरा प्रयास करना चाहिए। वहीं किसानों को भी नेतागिरी और नेताओं से जुदा होकर खुद एकजुट होकर अपनी समस्याओं के लिए संघर्ष करना चाहिए। क्योंकि जो हाथ जमीन से सोना पैदा कर सकते हैं वो हाथ मिलकर अपने हक और हकूक की लड़ाई लड़ और जीत भी सकते हैं।