गणतंत्र दिवस - गणतंत्र की चुनौतियां- सब ठीक-ठाक नहीं भारतीय गणतंत्र के साथ
गणतंत्र दिवस - गणतंत्र की चुनौतियां- सब ठीक-ठाक नहीं भारतीय गणतंत्र के साथ

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सैन्य शक्ति के प्रदर्शन के मौके की तरह न देखा जाए गणतंत्र दिवस को
गणतंत्र दिवस को अगर सिर्फ देश की ताकत और खासतौर पर सैन्य शक्ति के प्रदर्शन के मौके की तरह देखा जाए, तो निश्चित रूप से भारतीय गणतंत्र अपने सड़सठवें वर्ष में काफी मजबूत नजर आता है। यहां तक कि पिछले साल अमरीका के राष्ट्रपति ओबामा और इस बार फ्रांस के राष्ट्रपति ओलांद (French President François Hollande) के गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि बनकर आने को, इसका साक्ष्य भी माना जा सकता है कि देशों के समुदाय में भारतीय गणतंत्र का वजन पहले से बढ़ा है।
लेकिन, क्या ये गणतंत्र के स्वस्थ होने के सिर्फ बाहरी लक्षण ही नहीं हैं?
हैदराबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र, रोहित वेमुला की आत्महत्यानुमा हत्या चौंकाने वाले तरीके से इसकी ओर इशारा करती है कि सड़सठ साल बाद, भारतीय गणतंत्र के साथ सब ठीक-ठाक नहीं हैं। उल्टे उसकी कई बीमारियां बढ़ने के ही लक्षण हैं।
जाहिर है कि रोहित वेमुला की आत्महत्या में सड़सठवें साल में गणतंत्र की अस्वस्थता के लक्षण पढऩा, कई लोगों को अतिरंजनापूर्ण भी लग सकता है। बेशक, यह घटना दु:खद है। जैसाकि खुद प्रधानमंत्री ने कहा: ‘‘मां भारती ने अपना लाल खोया है।’’ लेकिन, ऐसा दु:खद प्रसंग पहली बार तो नहीं आया है। यहां तक कि दलित छात्र के आत्महत्या करने का प्रसंग भी पहली बार नहीं आया है।
दूर क्यों जाएं, उसी हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में इससे पहले पिछले कुछ वर्षों में ही छात्रों की आत्महत्या की दस घटनाएं हुई थीं। इनमें से नौ मामलों में आत्महत्या करने वाले दलित समुदाय से ही थे। फिर जैसा कि हैदराबाद विश्वविद्यालय के वाइसचांसलर से लेकर, मानव संसाधन विकास मंत्री तक बार-बार याद दिला चुके हैं, रोहित ने अपने ‘अंतिम पत्र’ में न तो किसी का नाम लिया है और न किसी से कोई शिकायत की है! ऐसी ‘अकारण’ आत्महत्या में कोई अर्थ खोजने की कोशिश कैसे की जा सकती है।
रही दलित की आत्महत्या की बात तो सत्ताधारी भाजपा समेत, संघ परिवार के विभिन्न बाजुओं ने कम से कम रोहित के दलित होने पर ही कम से कम कुछ संदेह तो पैदा कर ही दिए हैं। उसका सौ फीसद दलित न होना तो एक तरह से साबित भी किया जा चुका है!
रोहित वेमुला की हत्या - ‘मां-भारती के या एक माता के अपना लाल खोने’ का मामला नहीं है!
लेकिन, रोहित की असमय त्रासद मृत्यु पर देश भर में उठा विक्षोभ का ज्वार, जो न तो विपक्षी पार्टियों ने खड़ा किया है और न छात्रों तक तथा खासतौर पर दलित छात्रों तक ही सीमित है, अपने आप मे इसका सबूत है कि जनमत के विशाल हिस्से की राय में यह सिर्फ ‘मां-भारती के या एक माता के अपना लाल खोने’ का मामला नहीं है!
प्रधानमंत्री ने भी माना और कहा भी है कि रोहित वेमुला, ‘आत्महत्या करने पर मजबूर हुआ’ था।
लखनऊ के अपने दौरे में रोहित के मुद्दे पर ही प्रधानमंत्री को हर जगह पर ‘विरोध प्रदर्शन’ का जो मुंह देखना पड़ा, इसी सचाई को दिखा रहा था। वैसे इतना तो खुद प्रधानमंत्री ने भी माना और कहा भी है कि रोहित, ‘आत्महत्या करने पर मजबूर हुआ’ था। यह दूसरी बात है कि वह राजनीति के साथ ही कारणों में भी जाने से इंकार कर, इसे एक ‘अकारण’ आत्महत्या साबित करने की कोशिशों को ही बल देते नजर आते हैं। लेकिन, रोहित के ‘अंतिम पत्र’ के सरासर उथले शाब्दिक पाठ के आधार पर इसे अकारण आत्महत्या साबित करने की कोशिश करना, एक बार फिर उसकी हत्या करना ही है। वर्ना पहली बार उसकी आत्महत्यानुमा हत्या जिस व्यवस्था ने की है, उसके खिलाफ आर्त पुकार, इस ‘अंतिम पत्र’ के एक-एक शब्द से फूट रही है, जिसे शब्दों के लाक्षणिक अर्थ को जरा सा जानने वाला भी फौरन पढ़ सकता है।
मौजूदा गणतांत्रिक व्यवस्था ने इस हत्या में कई-कई हथियारों का इस्तेमाल होने दिया और यही उसकी बढ़ती रुग्णता का लक्षण है। एक बहुत ही शाकाहारी से लगने वाले हथियार का इशारा तो रोहित के अंतिम पत्र में भी है। अपनी असाधारण प्रतिभा के बल पर, दलित छात्रों के लिए उपलब्ध विशेष सुविधा का सहारा लिए बिना ही, रोहित वेमुला को जो जूनियर रिसर्च फैलोशिप मिल रही थी, सात महीने से उसका भुगतान रुका हुआ था।
यह संयोग नहीं लगता है कि करीब इतना ही अर्सा, सत्ताधारी संघ परिवार के संगठन एबीवीपी के नेता के साथ, अंबेडकर छात्र एसोसिएशन के कथित झगड़े को हुआ था, जिसके सिलसिले में विश्वविद्यालय की सरासर इकतरफा तथा सत्ताधारी पार्टी तथा मानव संसाधन विकास मंत्रालय के दबाव में हुई होस्टल से निष्कासन तथा सामाजिक बहिष्कार की कार्रवाई के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान ही, रोहित ने अपने प्राणों की आहुति दी थी।
बेशक, जातिगत भेदभाव और खासतौर पर दलितों के साथ भेदभाव का, गणतंत्र कायम होने के छियासठ साल बाद भी, देश की दूसरी तमाम संस्थाओं की तरह, विशेष रूप से उच्च शिक्षा संस्थानों में भी बोलबाला है। देश के सबसे प्रतिष्ठित चिकित्सा शिक्षा संस्थान, राजधानी स्थित एआइआइएमएस में डाक्टरी की पढ़ाई पढ़ रहे दलित छात्रों के साथ होने वाले भेदभाव के विभिन्न रूपों को और इसके फलस्वरूप असामान्य रूप से बड़ी संख्या में दलित छात्रों की आत्महत्याओं की सचाई को, थोराट जांच कमेटी पहले ही सारे देश के सामने भी ला चुकी थी। उसके बाद तत्कालीन सरकार ने कुछ दिशा-निर्देश भी जारी किए थे, जिन्हें बाद में भुला ही दिया गया लगता है।
डॉ आंबेडकर ने, 1949 के आखिर में, संविधान सभा के सामने अनुमोदन के लिए संविधान का मसौदा पेश करते हुए ही यह स्पष्ट चेतावनी दी थी कि अगर देश में सामाजिक तथा आर्थिक असमानता बनी रही तो, संविधान द्वारा गढ़ी गयी नागरिकों की बराबरी की व्यवस्था भी खतरे में पड़ जाएगी। इस चेतावनी के बाद भी आर्थिक ही नहीं, सामाजिक नाबराबरी का भी न सिर्फ बने रहना बल्कि बढ़ते जाना, जिसका ताजातरीन तथा हौलनाक सबूत रोहित का ‘आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाना’ है, जाहिर है कि जनतांत्रिक व्यवस्था की रुग्णता बढ़ऩे को ही दिखाता है।
लेकिन, रोहित प्रकरण इस बीमारी के नयी आक्रामकता के साथ और घातक हो जाने को भी दिखाता है। इसका संबंध संघ परिवार के जनतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता में आने से है।
यह संयोग ही नहीं है कि आइआइटी मद्रास की तरह ही, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में भी, आंबेडकरवादी रैडीकल छात्र संगठन के खिलाफ ‘‘राष्ट्रविरोधी’’ का ठप्पा लगाकार उसे बदनाम करने की ही कोशिश नहीं की गयी, उसे दबाने के लिए केंद्र सरकार से लेकर संस्थान के प्रशासन तक ने, असाधारण सक्रियता दिखायी। घटना विश्वविद्यालय के दो छात्र ग्रुपों के बीच मामूली झड़प की थी, जिसके मामले में विश्वविद्यालय की ही प्रोक्टोरियल जांच में दोनों पक्षों को चेतावनी देकर मामला खत्म करने से ज्यादा की जरूरत नहीं समझी गयी थी। लेकिन, सिर्फ विवाद में दूसरा पक्ष आरएसएस से संबद्ध एबीवीपी का होने और सिर्फ इसीलिए, एक केंद्रीय मंत्री के मानव संसाधन विकास मंत्री को पत्र लिखकर दलित स्टूडेंट्स एसोसिएशन के खिलाफ हस्तक्षेप की मांग करने तथा श्रीमती ईरानी के मंत्रालय द्वारा विश्वविद्यालय पर दबाव बनाते हुए इस सिलसिले में पांच-पांच चिट्ठियां लिखने के चलते, बात उस मुकाम पर पहुंच गयी जहां रोहित तथा चार अन्य दलित शोध छात्रों के खिलाफ विश्वविद्यालय द्वारा होस्टल से निष्कासन तथा सामाजिक बहिष्कार की कार्रवाई की गयी, जिसने रोहित को आत्महत्या करने के मजबूर कर दिया।
रैडीकल दलित भी संघ की राष्ट्रविरोधी सूची में आ गए हैं
याद रहे कि यह सिर्फ शासन-प्रशासन के एक खास संगठन या खास विचार के साथ खड़े होने का ही मामला नहीं है। यह खास संगठन या विचार को आगे बढ़ाने के लिए दूसरों के खिलाफ ‘‘राष्ट्रविरोधी’’ का ठप्पा लगाने का ब्रह्मास्त्र चलाए जाने का भी मामला है। यह वो हथियार है, जिसके शिकार के लिए न्याय के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। अल्पसंख्यक और कम्युनिस्ट तो खैर हमेशा से संघ परिवार की ‘‘राष्ट्रविरोधी’’ सूची में थे, अब खासतौर पर रैडीकल दलित भी इस सूची में आ गए हैं। लेकिन, इसमें अचरज की कोई बात नहीं है कि क्योंकि उसकी धर्म-संस्कृति-पंरपरा की कल्पना अपने मूल में जितनी सांप्रदायिक है, उतनी ही सवर्णतावादी भी है।
जनतंत्र के खिलाफ संपन्नों का विद्रोह
बहरहाल, भारतीय गणतंत्र के सभी नागरिकों की समानता के मूलाधार के लिए, सांप्रदायिकता तथा जातिवाद में निहित असमानताओं का खतरा ही नहीं बढ़ा है, उसने अब घोषित रूप से नागरिक समानता में काट-छांट का रूप भी लेना शुरू कर दिया है। बस हो यह रहा है कि डॉ आंबेडकर की चेतावनी के विपरीत, जनतंत्र में यह कतरब्योंत वंचितों के दबाव से नहीं बल्कि उनके खिलाफ ही हो रही है। जनतंत्र के खिलाफ संपन्नों का यह विद्रोह, आर्थिक नीतियों को तो जनतांत्रिक चुनावी फैसलों से ऊपर तो पहले ही उठा चुका था, अब एक ओर देसी गरीबों तथा वंचितों के चुनाव लड़ने पर ज्यादा से ज्यादा शर्तें लादने और दूसरी ओर अनिवासी भारतीयों को ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक अधिकार दिए जाने की कोशिशों के रूप में सामने आ रहा है। पहले राजस्थान में और फिर हरियाणा में तथा गुजरात में भी, तीन स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के चुनावों में थोपी गयी शिक्षा से लेकर आर्थिक हैसियत तक की शर्तें इसी खतरे को दिखाती हैं। याद रहे कि इन पाबंदियों की मार गरीबों, दलितों तथा महिलाओं पर ही ज्यादा पड़ी है और हरियाणा में ही सैकड़ों आरक्षित पद इन शर्तों के चलते, पहली बार कोई भी उम्मीदवार ही न मिल पाने के चलते खाली ही रह गए हैं।
राजेंद्र शर्मा


