गणवेशधारियों के चिट्ठीवीर सावरकर, अंग्रेजों से माफी मांगते- मांगते अंगुलियां घिस गईं !
गणवेशधारियों के चिट्ठीवीर सावरकर, अंग्रेजों से माफी मांगते- मांगते अंगुलियां घिस गईं !

गणवेशधारियों के चिट्ठीवीर सावरकर
अंग्रेजों से माफी मांगते- मांगते वीर सावरकर की अंगुलियां घिस गईं !
वीर सावरकर ने इतनी बार अंग्रेजों से माफी मांगी कि चिट्ठियां लिखते-लिखते उनकी अंगुलियां घिस गईं
नेता जी की मौत पर कम से कम उन लोगों को बोलने का अधिकार तो कत्तई नहीं है जो उस समय उनकी जान लेने के लिए उतारू थे।
महेंद्र मिश्रा
चिट्ठी लिखने की बीमारी इन छद्म राष्ट्रवादियों की पुरानी है। इस परिवार के भीष्म पितामह वीर सावरकर ने भी कई पत्र अपने विदेशी आकाओं को लिखे थे। इस खेमे के पास यही एक शख्स हैं, जिन्हें वह अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के वारिस के तौर पर पेश करता है। दरअसल इनकी क्रांतिकारिता चंद दिनों की थी। बाकी जीवन उन्होंने अंग्रेजों की सेवा में गुजार दी।
वीर सावरकर ने इंग्लैंड में अपने प्रवास के दौरान 15 रिवाल्वर भारत भेजे थे, जिनमें से एक ब्रिटिश अधिकारी की हत्या में इस्तेमाल हो गई थी। उसी मामले में वो कानून की चपेट में आ गए। इस मामले में सावरकर को काला पानी की सजा मिली। फिर उस सजा से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने इतनी बार अंग्रेजों से माफी मांगी कि चिट्ठियां लिखते-लिखते उनकी अंगुलियां घिस गईं।
आखिरकार छठी चिट्ठी के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने तमाम शर्तों के साथ उन्हें मांफी दे दी। उसके बाद उन्होंने अंग्रेजों की सेवा की जो शुरुआत की वह ताजिंदगी जारी रही।
अगर उपलब्धियों पर नजर दौड़ाई जाए तो गांधी की हत्या के आरोपियों में इनका नाम रहा है।
चिट्ठी लिखने की इस ‘पारिवारिक’ विरासत का ही नतीजा है कि जब नेताजी से जुड़ी फाइलों से कुछ नहीं मिला। तो इनके हुनरमंदों ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली के नाम नेहरू की फर्जी चिट्ठी तैयार कर दी। और फिर उसे बाजार में उतार दिया। लेकिन दो दिन के भीतर ही चिट्ठी बम फुस हो गया।
नेताजी की अगुवाई में जब आजाद हिंद फौज के जवान उत्तर पूर्व में अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे, तब सावरकर ब्रिटिश सरकार के साथ नियमित संपर्क में थे। उन्होंने सेना में सैनिकों की भर्ती के लिए बनी अंग्रेंजों की कमेटी में हिंदू महासभा के दो नेताओं को शामिल करने का प्रस्ताव दिया था, जिसके स्वीकार होने के बाद सावरकर ने अंग्रेजी हुकूमत को धन्यवाद ज्ञापित किया था। तब के ब्रिटिश सेना के कमांडर इन चीफ और भारत के वायसराय को सावरकर ने इस सिलसिले में टेलीग्राम भेजा था। 23 जुलाई 1941 को भेजे गए इस टेलीग्राम में लिखा था कि ‘ महामहिम की रक्षा समिति की उसके पदाधिकारियों के साथ घोषणा स्वागत योग्य है। हिंदू महासभा कालिकर और जमनादास मेहता की समिति में नियुक्ति पर विशिष्ट संतोष महसूस करता है।’
यह सब बातें आजादी की लड़ाई से पहले हिंदू महासभा की ओर से प्रकाशित एक किताब में पूरी तफ़सील से बतायी गई हैं। 1941 में प्रकाशित इस किताब का एक लंबा शीर्षक है। ‘विनायक दामोदर सावरकर्स ह्विर्लविंड प्रोपोगंडाः इक्स्ट्रैक्ट फ्राम द प्रेसिडेंट्स डायरी ऑफ हिज प्रोपागैंडिस्ट टूर्स इंटरव्यूज फ्राम दिसंबर 1937 टू अक्तूबर 1941’। इसका संपादन ए एस भिंडे ने किया था, जो सावरकर के घनिष्ठ सहयोगी थे।
अंग्रेजी सैन्यबलों में भर्ती के लिए महासभा ने बाकायदा भर्ती केंद्र खोल रखा था। इस किताब में भर्ती केंद्रों का पतों और उनसे जुड़े नामों समेत जिक्र है-
‘हिंदू महासभा की ओर से सेना में भर्ती हिंदू जवान के सामने आने वाली कठिनाइयों और उनकी शिकायतों को हल करने के लिए एक केंद्रीय उत्तरी हिंदू सैन्यीकरण बोर्ड का दिल्ली में गठन किया गया है। श्री गणपत राय, बीए, एलएलबी एडवोकेट, 51, पंचकुइयां मार्ग, नई दिल्ली को इसका संयोजक बनाया गया है। श्री एल बी भोपातकर, एमए, एलएलबी, अध्यक्ष, महाराष्ट्र प्रदेश हिंदू महासभा, सदाशिव पेठ पूना की अध्यक्षता में एक केंद्रीय दक्षिणी हिंदू सैन्यीकरण बोर्ड का भी गठन किया गया है।........’
यहां यह बात ध्यान देने वाली है कि मुस्लिम लीग भी अंग्रेजों का समर्थन कर रही थी। बावजूद इसके उसने रक्षा समिति का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया। कांग्रेस की तर्ज पर जमात-ए-हिंद, मोमिन कांफ्रेंस, अहरर, अहले हदीस और शिया राजनीतिक कांफ्रेंस जैसे दूसरे देशभक्त मुस्लिम संगठनों ने युद्ध को एक साम्राज्यवादी युद्ध घोषित कर रखा था।
नेहरू का फर्जी पत्र तैयार करने वाले संघ के कारकून शायद अपनी तारीखें भूल गए हैं। या फिर उन्हें इसके बारे में पता नहीं है। जिस सावरकर को भारत रत्न देने की जुगत भिड़ाई जा रही है। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वह छुप-छुप कर अंग्रेजों से मुलाकात कर रहे थे। भिड़े की किताब में 5 जुलाई 1940 को शिमला में सावरकर की वायसराय से ऐसी ही एक मुलाकात में बारे में बताया गया है। इसमें कहा गया है कि सावरकर मुलाकात के बाद आपस में हुई बातचीत का खुलासा नहीं करना चाहते थे।
‘ शुक्रवार, 5 जुलाई 1941 को हिंदू महासभा के अध्यक्ष बैरिस्टर वी.डी. सावरकर से महामहिम वायसराय की मुलाकात के बाद शिमला की जनता उनके स्वागत के लिए दबाव बना रही थी। लेकिन महत्वपूर्ण राजनीतिक बातचीत के बाद उनके पास समय नहीं था। केवल स्टेशन पर पांच मिनट का उनके दर्शन का कार्यक्रम संभव हो सका।’
भिड़े की डायरी में एक और चीज का खुलासा किया गया है। इसमें बताया गया है कि छात्रों को सैन्य बलों में शामिल होने की सलाह देने के लिए सावरकर को अक्सर आरएसएस के बौद्धिक शिविरों में आमंत्रित किया जाता था।
सुभाष चंद्र बोस की मौत और उनसे जुड़े दूसरे मुद्दों को उठाकर संघ-बीजेपी अपना राजनीतिक हित साधना चाहते हैं। इसके जरिये वह खुद को आजादी की लड़ाई से जोड़ लेना चाहते हैं। साथ ही इसके माध्यम से नेहरू को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश है। इस मामले में सुभाष चंद्र बोस के कुछ परिजन भी उनके साथ खड़े हैं। इसमें उनका भी अपना स्वार्थ है, क्योंकि एक बार फिर उनको प्रासंगिक होने का मौका मिल गया है। साथ ही लगता है कि कुछ सदस्यों का राजनीतिक स्वार्थ भी पैदा हो गया है। लेकिन सच यही है कि विदेश में रह रही नेता जी की बेटी अनिता बोस और उनके एक और नजदीकी परिजन आशीष रे का मत इन परिजनों से मेल नहीं खाता है। सच यह है कि नेहरू और सुभाष दोनों के राजनीतिक और व्यक्तिगत तौर पर बहुत नजदीकी रिश्ते रहे हैं। जो नेताजी के बाहर जाने के बाद भी कायम रहे। कांग्रेस के भीतर मदन मोहन मालवीय और राजगोपालाचारी जैसे दक्षिण पंथी नेताओं के हमले का जवाब समाजवादी और सेक्यूलर सोच वाले नेहरू और नेताजी मिलकर देते थे। और नेता जी की मौत पर कम से कम उन लोगों को बोलने का अधिकार तो कत्तई नहीं है जो उस समय उनकी जान लेने के लिए उतारू थे।


