ग़ुलाम जे़हनियत के बीमार ख़्वाब
ग़ुलाम जे़हनियत के बीमार ख़्वाब
किशन पटनायक स्मृति व्याख्यान भाग-2
“बेशक, अँधेरा गाढ़ा होता जा रहा है- यह नवआपातकाल है” से आगे की कड़ी
रविकिरण जैन
‘‘अपने सभी खनिज संसाधनों समेत जमीन तथा अन्य उत्पादन के साधन समुदाय के हैं। समुदाय ही अपने हित में उनका वितरण, विनिमय और नियमन करेगा।’’
ऑल इण्डिया काँग्रेस कमेटी (जयपुर मीटिंग, नवम्बर 1947)
रिज्योल्यूशन ऑन इकनॉमिक पॉलिसी एंड प्रोग्राम)
‘‘राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से:
(ख) समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियन्त्रण इस प्रकार बँटा हो जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो।’’
भारतीय संविधान, अनुच्छेद (39बी)
आजादी के बाद का हमारा इतिहास इन वायदों और सपनों के भंग होने का इतिहास है। जैसा कि ऊपर दिये गये उद्धरणों से पता चलता है, आज़ादी के ख्वाब, जैसा कि अक्सर कह दिया जाता है, सिर्फ सत्ता हस्तांतरण की तकनीकी बहसों के गिर्द ही नहीं घूम रहे थे। बल्कि उनका दायरा ‘सुराज’ और ‘स्वराज’ तक जाता था। और स्वराज की यह परिकल्पना सिर्फ स्वशासन तक ही नहीं थी, बल्कि हर प्रकार के शासन से मुक्ति के यूटोपियन क्षितिज तक जाती थी। लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा। संसाधनों पर समुदाय के नियन्त्रण की जगह बरास्ता राज्य यह नियंत्रण बड़ी पूँजी ने स्थापित कर लिया। दरअसल भारत का अनौपनिवेशीकरण कभी पूरा ही नही हुआ। शासन और अर्थव्यवस्था के जो तरीके उपनिवेशवाद ने हमें सिखाये थे, वे हमारी जे़हनियत का हिस्सा बनते गये। खेती और वनों को लेकर हमारी सोच ब्रिटिश उपनिवेशवादियों जैसी ही बनी रही। ज़मीन-खेती और जंगलों पर बात कर इस गुलाम ज़ेहनियत को समझा जा सकता है। हमने औपनिवेशिक विरासत को ठुकराने की जगह अलग-अलग कानूनों और संस्थाओं की मार्फ़त उसे और पुख़्ता कर दिया। सच्चिदानन्द सिन्हा के शब्दों में कहें तो हमने देश के भीतर ‘आंतरिक उपनिवेश’ स्थापित कर दिये।
भारतीय खेती और भूमि के भरपूर शोषण के लिये उपनिवेशवादियों ने भारतीय भूप्रबन्धन की व्यवस्था को सिर से पैर तक पूरा बदल दिया। इस प्रबन्धन को इस प्रकार ढाला गया ताकि उन्हें अधिकतम राजस्व प्राप्त हो सके। चूंकि गांवों में सामूहिक राजस्व की वसूली कर पाना सुविधाजनक नहीं था, जमीन की मिल्कियत या तो निजी हाथों में चली गई या उस पर राज्य का कब्ज़ा हो गया। उत्तरी और पूर्वी हिस्से की ज़्यादातर ज़मीन ज़मीदारों के हवाले हो गई। नतीजा यह हुआ कि खेतिहरों की बड़ी तादात या तो बटाई पर खेती करने लगी या साझेदारी पर। दक्षिणी और पश्चिमी भारत के इलाकों में जहाँ रैयतवारी की व्यवस्था थी, किसानों को ज़मीन मिली थी, लेकिन कर अदा न कर सकने के कारण वे कर्ज में डूबते गये और आखिरकार उनकी ज़मीनें साहूकारों के चंगुल में फँसती गई। भूमि-प्रबन्धन के सामूहिक स्वरूप को तोड़ते जाने का असर जल-प्रबन्धन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर भी पड़ा। समूह या समुदाय के द्वारा प्रबन्धन में आने वाली जंगल की ज़मीन की भी उपनिवेशवाद ने भयंकर लूट की। भूमि के सरकारी अधिग्रहण की प्रक्रिया 1878 के ‘भारतीय वन अधिनियम’ के बाद बढ़ती गई। देश की ज़्यादातर वन-भूमि ब्रिटिश हुकूमत के कब्ज़े में चली गई। अन्य ज़मीनों के साथ यही सलूक 1894 के ‘भूमि अधिग्रहण कानून’ ने किया, जिसका इस्तेमाल औपनिवेशिक काल के बाद तथाकथित विकास की नई ज़रूरतों को पूरा करने में और भी कुशलता से किया गया। भूमि और वन से ताल्लुक रखने वाले औपनिवेशिक कानूनों ने खेती, शिल्प और वनाधारित रोज़गारों से उजाड़े हुये निर्धन लोगों का एक बड़ा वर्ग पैदा किया। आत्मनिर्भर जनता क्रमशः राज्य और बड़ी पूँजी की मोहताज होती गई।
उपनिवेशवाद का पूरा दौर जनता के परजीवी बनते जाने की कहानी है। भारतीय इतिहास के लंबे दौर में विकेन्द्रित प्रशासन की मज़बूत परम्पराएँ मिलती हैं। इनमें भूमि, जंगल, पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का प्रबन्धन शामिल हैं। भारत में केन्द्रीय अथवा क्षेत्रीय शासकों का प्रशासन जैसा भी रहा हो, लेकिन भारतीय गांवों ने लगातार अपने जल, जंगल और ज़मीन का सामूहिक प्रबंधन किया है। अलग-अलग स्थानीय विशेशताओं के साथ यह प्रबन्धन प्रणालियाँ उपनिवेशवाद के आक्रमण तक और कहीं-कहीं उसके बाद भी जीवित रही हैं। इन प्रणालियों में सामूहिक निर्णय के बहुत सारे तत्व मौजूद थे। लेकिन स्वायत्त और सामूहिक प्रबन्धन की ये पद्धतियाँ ब्रिटिश सरकार के राजस्व की बाढ़ को रोकती थीं। इसलिये उन्होंने हर तरह से ये सुनिश्चित किया कि स्वायत्तता और सामुदायिकता पर आधारित प्रबन्धन प्रणलियाँ नष्ट हो जाएँ और जल, जंगल और ज़मीन अपनी आज़ादी खोकर इस या इस प्रकार से ‘सरकारी ज़मीदारी’ का हिस्सा बन जाएँ। सार्वजनिक वनों के एक बड़े हिस्से को राज्य सम्पति घोषित कर दिया गया। ये हालात आज तक चले आ रहे हैं, वन विभाग हमारी औपनिवेशिक विरासत का सबसे भोंडा उदाहरण है।
आज़ादी के बाद औपनिवेशीकरण के हमारे कार्यभार को चिन्हित करते हुए प्रख्यात गाँधीवादी अर्थथास्त्री जे.सी. कुमाररप्पा ने यह ज़ोर दिया था कि समूह आधारित प्रबन्धन प्रणालियों को पुनजीर्वित किया जाए। ये एक महत्वपूर्ण मसला था। भारत में वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना के लिये सामूहिक प्रबन्धन पर आधारित विकेन्द्रीकृत प्रणालियों को नये तरीके से लागू करना और भूमि तथा दूसरे प्राकृतिक संसाधनों का समान वितरण ही दो प्रमुख रास्ते थे। लेकिन दोनों ही रास्ते भुला दिये गये। विशालकाय औद्योगिक योजनाओं के लिये जल, जंगल और ज़मीन का दोहन जरूरी था और इसके लिये ज़रूरी था जनता के मालिकाने की जगह राज्य का मालिकाना स्थापित करना। राज्य का मालिकाना ही वह दरवाजा था, जहाँ से निजी इजारेदारियों का रास्ता खुलता था। प्रकृति लोगों के जीवन का सम्बल न रहकर कच्चा माल बन गई जिसे हिंसक शहरीकरण और बड़े औद्योगीकरण के काम आना था; इसकी नियामक शक्ति बन गई विशाल नौकरशाही और प्रतिनिध्यात्मक लोकतंत्र की शक्ल में केन्द्रीकृत राजनीति। प्रकृति से बेदखल जनता अपने ही देश में शरणार्थी बन गई।
स्वतंत्रता आंदोलन की प्रेरणा और विचारों की तमाम टकराहटों के बाद जो ढाँचा बनना था वह खालिस समाजवाद होना चाहिये था, जिसमें संसाधनों पर जनता का अधिकार और लोकतंत्र में सीधी भागीदारी ही कसौटी होते। लेकिन आजा़दी के इस ख्वाब पर भारी पड़े ग़ुलाम जे़हनियत के बीमार ख़्वाब। समय-समय पर हमारी न्यायपालिका, नौकरशाही और कार्यपालिका ने इसी औपनिवेशिक मानसिकता का परिचय दिया है। राजनीतिक स्वतंत्रता ने आर्थिक और सामाजिक क्रांति के लिये रास्ता नहीं खोला। हमारा कानूनी और न्यायिक ढाँचा औपनिवेशिक युग की फोटोस्टेट ही बने रहे। हमने अपना संविधान लागू होने के बाद भी उन कानूनों को लागू रखा, जिनका इस्तेमाल आज़ादी के लड़ाकुओं का उत्पीड़न करने के लिये किया गया था। संविधान में मौलिक अधिकारों की घोषणा के साथ ही उन कानूनों को खुद से ही ख़त्म हो जाना चाहिये था, जो किसी भी समाजवादी लोकतंत्र के लिये कलंक हैं - ख़ासकर ‘राजद्रोह’ धारा 124अ आई.पी.सी., क्रिमिनल लॉ एमेन्डमेंट एक्ट-1908 व 1932 तथा प्रिवेन्शन ऑफ सेडिशियस मीटिंग एक्ट-1917 जैसे कानून। लेकिन ऐसा होना मुमकिन ही नहीं था क्योंकि हमारी न्यायपालिका ख़ुद औपनिवेशिक शासकों की मानसिकता में जीती है।
मौलिक अधिकारों से सम्बद्ध संविधान का अनुच्छेद 13 (1) कहता है - ‘इस संविधान के प्रारम्भ होने से ठीक पहले भारत के राज्यक्षेत्र में प्रवृ़त्त सभी विधियाँ उस मात्रा तक शून्य होंगी जिस हद तक वे इस भाग के उपबन्धों से असंगत है।’ इसी तरह अनुच्छेद 13 (2) कहता है - ‘राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनायेगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती या कम करती हों और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।’ मौलिक अधिकारों वाले भाग 3 के इन अनुच्छेदों के अस्तित्व में आने के बाद ही सारे दमनकारी कानूनों को खुद ही समाप्त हो जाना चाहिये था। लेकिन हुआ क्या? इसे के.जी. कन्नाबिरन ने अपनी पुस्तक ‘दि वेजेज़ ऑफ इम्प्यूनिटी’ में विस्तार से बताया है। पुस्तक में उन्होंने स्वतंत्र भारत के पहले ‘देशद्रोह’ के किस्से को बयान किया है। यह देशद्रोह ए.के. गोपालन ने किया था। यह देशद्रोह था क्या! भारत की आज़ादी की घोषणा के बाद गोपालन जेल परिसर में तिरंगा झण्डा उठाकर अपने साथी जेलवासियों के साथ घूमे थे। यह था आज़ाद भारत का पहला देशद्रोह। इस कृत्य के लिए गोपालन पर देशद्रोह का कानून (U/S 124A, IPC) लागू किया गया। गोपालन के साथ कानूनी मज़ाक की कहानी लंबी है जो उनके साथ संविधान के लागू होने के बाद भी चलता रहा।
आज हमारा लोकतंत्र 38 वर्ष पहले 26 जून को लगे आपातकाल के काले दिनों से भी ज्यादा गहरे संकट से गुजर रहा है। एक तरफ सत्ता के शीर्ष पर बैठे राजनेता, कॉरपोरेट घराने और नौकरशाही का खुला गठजोड़ देश के संसाधनों को लूटने और बेचने में होड़ लगाए हुए हैं, तो दूसरी तरफ इसके खिलाफ लोगों के आक्रोश और दुख को व्यक्तिगत स्तर पर अभिव्यक्त करने या संगठित करके विरोध करने की किसी भी कोशिश पर राज्य का पूरा तंत्र भयानक दमन करने को टूट पड़ रहा है। ‘राज्य के खिलाफ युद्ध’ और ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’ - ये दो ऐसे जुमले प्रचारित कर दिए गए हैं, जिनके नाम पर कभी भी किसी को गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे डाल दिया जाए या उसकी हत्या तक कर दी जाए। ऐसे कृत्यों को वैध ठहराने के लिए कानूनों का एक जाल बुन दिया गया है। यह परंपरा कोई नई नहीं है, बस उसके रूप और निशाने बदलते रहे हैं। देश के गणतंत्र बनते ही 1950 में पी.डी.ए., 1971 में मीसा, 1985 में टाडा और पोटा और 2001 में यू.ए.पी.ए. और ए.एफ.एस.पी.ए. तक ऐसे दमनकारी कानूनों की श्रृंखला है, जिसके माध्यम से रोज ब रोज लोगों के नागरिक अधिकारों के हनन, अभिव्यक्ति की आजादी और विरोध की किसी भी आवाज को दबा देने को न्यायोचित ठहरा दिया जाता है। कानून की बैसाखी पर चढ़कर जो आपातकाल 1975 में इस देश में आया था, मानों उसकी काली छाया ने पूरे देश को अपने खतरनाक छुपे हुए पंजों में दबोच लिया है। कवि शंकर शैलेन्द्र के गीत की निम्नलिखित पंक्तियों के साथ अपनी बात आगे बढाते हैं:
भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की।
देशभक्ति के लिये आज भी सज़ा मिलेगी फाँसी की।।
सन् 1857 की आज़ादी की लड़ाई के अगले तीन दशकों में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने तमाम कानून पास किये। इन तमाम कानूनों में उस सबक की झलक मिलती है जो उन्होंने 1857 की आज़ादी की लड़ाई को दबाने के दौरान हासिल किये थे। कानून का यही ढाँचा आज़ादी के बाद भी कायम रहा। अपनी इस औपनिवेशिक परम्परा को न्यायालयों ने कभी छिपाया भी नहीं। सर्वोच्च न्यायालय ने 1964 में अपने एक फैसले में स्पष्ट किया -
‘‘संविधान के लागू होने का परिणाम औपनिवेशिक भारत से भारत के संघ को सम्प्रभुता हस्तांतरण के रूप में नहीं हुआ। इससे केवल सरकार के स्वरूप में परिवर्तन हुआ। स्वशासन के उद्विकास की प्रक्रिया में यह नयी सरकारी व्यवस्था एक अन्तिम कदम था.......। औपनिवेशिक शासन तन्त्र की सरकारी मशीनरी और कानूनों का बने रहना सम्प्रभुता के संचरण की प्रक्रिया अथवा औपनिवेशिक प्रभुसत्ता की समाप्ति और उसके भस्मावशेष से एक नये सम्प्रभु राज्य के प्रकट होने को झुठलाता है।’’
बहुत ही कठोर तर्कों के साथ सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया -
‘‘यह मानने का कोई अधिपत्र नहीं है कि 25 जनवरी 1950 की अर्धरात्रि के दस्तक देते ही पहले से चली आ रही हमारी सारी राजनीतिक संस्थाओं का अस्तित्व लुप्त हो गया और अगले ही क्षण ऐसी संस्थाओं के समुच्चय का प्रादुर्भाव हो गया जो अतीत से सर्वथा असंबद्ध हैं........। उसने पिछली संस्थाओं को नष्ट करने का बीड़ा नहीं उठाया बल्कि पहले से जो विद्यमान था उसी पर अपना प्रासाद खड़ा किया।’’ (द्रष्टव्य: स्टेट ऑफ गुजरात बनाम फिद्दाली बदरुद्दीन मीटीबार वाला और अन्य एआईआर-1964, एससी 1043)
सर्वोच्च न्यायालय की यह स्वीकारोक्ति बहुत सारे खुले हुए राज़ों को खोल देती है। हमारे कानून ही नहीं हमारी परजीवी नौकरशाही और केन्द्रीकृत राजनीति ने भी संविधान की परिवर्तनकामी संभावनाओं को समाप्त कर दिया। नौकरशाहों की एक ऐसी गैर जवाबदेह फौज ऊपर से नीचे तक तैयार हो गई जिसने परिवर्तन के सहज प्रवाह को बाँध दिया। योजना से लेकर उसके लागू होने तक जो व्यवहार हमारा राजनीतिक ढाँचा जनता के साथ करता है उसमें औपनिवेशिक युग से लेकर अभी तक एक सिलसिला है। इस सिलसिले को बहुत ठोस रूप में 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून से लेकर प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण विधेयक तक समझा जा सकता है। देशद्रोह और राज्य के खिलाफ विद्रोह सम्बन्धी कानून औपनिवेशिक युग से आज तक एक ही आत्मा रखते हैं। चाहे वह नागरिक अधिकारों का दमन हो या अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला।
आगे जारी........


