गाँधी पर छाई धुंध
गाँधी पर छाई धुंध
गाँधी पर छाई धुंध
गाँधी जी के जन्मदिवस पर फिर देश विदेश में हम सभी ने किसी ना किसी तरह से उन्हें याद किया। सरकारी दफ्तरों, स्कूल-कॉलेजों में भी उन पर कार्यक्रम और भाषण आदि दिए जाते हैं सो इस बार भी गुण गान हुआ ही होगा। राष्ट्रपिता नाम से जाना जाने वाला यह शख्स हम भारत वालों के लिए एक ऐसा परिचित नाम है जिस पर आप जितनी बातें कर लें उतनी कम हैं। आप उसकी शान में तारीफ़ें कर सकते हैं, उसे सत्य अहिंसा का देवता मान सकते हैं, उसकी निंदा कर सकते हैं और तटस्थ होकर उसका अध्ययन कर सकते हैं या उसे समझ सकते हैं। आप उसके नाम से क्या करना चाहते हैं यह आप की मर्ज़ी है। चाहें तो उसके नाम को आज के राजनैतिक परिवार से जोड़कर गरिया भी सकते हैं। जैसा कि बहुत सारे लोग खुलेआम स्कूल से लेकर कॉलेज व दफ्तरों में भी पाए जाते हैं। मगर क्या ऐसे किसी भी व्यक्ति को तार्किक रूप में, रेशनल तरह से गाँधी की समझ है? क्या ऐसे लोगों ने प्राथमिक, द्वितीयक किसी स्रोत से उन पर समझ बनाने की कोशिश की है? या फिर किसी पूर्वाग्रह से, किसी ख़ास विचार से ग्रसित लोगों के बने बनाए, गढ़े हुए सांचे को सच मान कर हम ऐसा करते हैं। किसी भी इंसान को अंधभक्ति वाला देवता बनाना उचित नहीं है, माना। पर उसी तरह किसी को जाने बिना सुनी सुनाई बातों पर विचार बना लेना भी वैसा ही अनुचित है।
सुनियोजित रूप से पीछे धकेले जा रहे हैं गांधी के विचार
आज हम भले गाँधी के नाम से बहुत सारी योजनाएँ बना लें, उनके चश्मे, लाठी को यहाँ वहाँ इस्तेमाल कर लें मगर सच यह है कि आज गाँधी और उनके विचार जिस तरह से सुनियोजित रूप से पीछे धकेले जा रहे हैं वह अभी हमें भले ना समझ आए पर कुछ एक दशकों बाद ज़रूर समझ आएगा।
बाज़ारवाद के उफ़ान में जन्मे युवा जो टी वी रेडियो पर एक ख़ास वर्ग और सोच की हेजेमनी (वर्चस्व) से प्रभावित हैं उनके लिए गाँधीवादी विचारों को समझना ना तो ज़रूरत है और ना ही वे खुद उससे वाकिफ़ हैं कि उनका जीवन उनका खुद का नहीं बल्कि एक गढ़े हुए समाज का रूप मात्र है। और रही सही कसर गाँधी को अवैध करने की सुनियोजित दक्षिणपंथी ताकतों ने पूरी कर दी है। अब गाँधी के विचार नहीं महज़ प्रतीक आपको दिखेंगे कभी किसी अभियान में चश्में के रूप में तो कहीं किसी नेता द्वारा उनकी मूर्ति के माल्यार्पण या भाषण में।
गाँधी की त्रासदी
गाँधी की त्रासदी यह है कि दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों राजनैतिक छोरों का उनके प्रति रवैया एक सा रहा है। जहाँ वामपंथी गाँधी से इस बात से इत्तफ़ाक नहीं रखते क्योंकि गाँधी का धर्म और परम्पराओं की तरफ़ रुझान था और वे उसके ज़रिए समाज परिवर्तन की नींव को मजबूत करने पर बल देते थे। इसी तरह जाति के विचार पर अम्बेडकरवादी व वामपंथी उन पर उच्च जातियों के प्रति उदार या निचले तबके के सम्मान को सही अर्थ में ना उठाने पर आरोप लगाते हैं जिसका उदाहरण आपको कई अम्बेडकरवादी विचारकों को पढ़ने पर मिलेगा। गेल ओम्वेट को पढ़ने पर तो आपको कई जगह भीमराव व गाँधी के विचारों में तुलना मिलेगी जिसमें गाँधी को निशाना बनाया गया होगा। आज के कई दलित विचारक भी दलितों को हरिजन कहने के गाँधीवादी विचार के समर्थक नहीं हैं क्योंकि वे कहते हैं हम जैसे हैं वैसे हैं। हम शोषित हैं तो हमें दलित ही कहा जाए ना कि हरिजन।
खैर जाति व्यवस्था पर अम्बेडकर की तरह एनिहिलेशन (Annihilation) वाला विचार ना रखना ही गाँधी के ग्राम स्वराज्य के विचार में बहुत लोगों का समर्थन ना जुटा सका। क्योंकि लोग आज भी सवाल करते हैं कि ग्राम स्वराज किस काम का जब वहाँ पसरी जाति व्यवस्था पर आप कठोर सवाल ना उठाओ।
समान सवाल गाँधी के सर्वधर्म सम्भाव को लेकर भी है। क्योंकि सेक्युलरिज्म में स्टेट खुद को धर्म से अलग रखता है ना कि सर्व धर्म सम्भाव के चक्कर में पड़ता है। वामपंथ इस तरह के सेक्युलरिज्म को ही अधिक प्रभावी मानता है।
गाँधीवाद और गाँधी पर वामपंथियों के सवाल
तीसरे राजनैतिक पहलू पर आते हैं जो वामपंथियों को गाँधीवाद और गाँधी पर सवाल उठाने के मौके देता है। और वह है मार्क्स, लेनिन और समाजवाद से प्रभावित हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी को लेकर स्वतन्त्रता के आन्दोलन में जुड़ी उनकी भूमिका। इसका भी बड़ा केंद्र रहा चौरी चौरा में गाँधी जी का असहयोग आन्दोलन वापस लेना। और फिर उसके बाद भगत सिंह, राजगुरु, व सुखदेव की फाँसी के समय गाँधी जी का रुख़, जिस पर लोग आज भी सवाल उठाते हैं।
भगत सिंह के समूह से उनके साथी रहे मन्मथनाथ गुप्त को पढ़ने पर आप पाएँगे कि उन्होंने गाँधी को किस तरह कठघरे में खड़ा किया है। वे गाँधी की बड़े तार्किक और विभिन्न पहलुओं को सामने रखते हुए आलोचना करते हैं जैसे कि चौरी चौरा में जब उन्होंने असहयोग आन्दोलन वापस लिया तो उन सभी किसानों और आन्दोलनकारियों पर क्या किया जिन्हें पुलिस ने ठूस कर फांसी व उम्रकैद की सज़ा में डाल दिया।
मन्मथनाथ ऐसा कुछ लिखते हैं कि अंग्रेज़ों ने पहले हिंसा शुरू की थी तो अपने लोगों के खिलाफ अनशन करने के साथ अंग्रेज़ों की हिंसा के खिलाफ़ गाँधीजी क्यों नहीं मुखर रहे। इस पर गांधी के विचार ऐसे रहे कि वे तो वैसे भी औपनिवेशिक शक्तियाँ हैं उनसे उन्हें तो हिंसा की उम्मीद है ही। मगर वे अपने देश की जनता को वैसा करते नहीं देख सकते।
मन्मथनाथ राजगुरु, भगत व सुखदेव की फांसी पर भी मुखर रहे और वे गाँधी को उस वक्त का दोषी मानते से लगते हैं जब उन्होंने तीनों क्रांतिकारियों को बचाने का कथित कोई प्रयास नहीं किया। वे जतिन दास का भी उदाहरण देते हैं जिनके निधन पर नेहरु जी ने श्रद्धांजलि स्वरूप शब्द कहे मगर जतिन के अहिंसात्मक अनशन के बाद हुई उनकी म्रत्यु पर गाँधी जी चुप क्यों रहे? यह सवाल आज भी वामपंथी उठाते हैं।
दक्षिणपंथियों के निशाने पर गाँधी
अब आते हैं दक्षिणपंथ पर। दक्षिणपंथी यानि राईट विंग के लिए गांधीवाद हमेशा ही एक समस्या रहा है। पर पूरी तरह नहीं। समस्या इस लिए क्योंकि गाँधी सर्व धर्म को एक समान सम्मान की बात करते हैं और जबकि हुन्दुत्व समर्थक हिंदु राष्ट्र की बात करते हैं। और पूरी तरह इसलिए नहीं क्योंकि धर्म का ख़ाका गांधीवाद के विरोध का केंद्र नहीं है और गोलवलकर के बंच ऑफ़ थॉट्स में भी शायद ऐसे ही कुछ कारणों से क्रिश्चियन, मुस्लिम व कम्युनिस्ट तो खतरे के रूप में आए मगर गाँधीवादी नहीं आए। शायद गाँधीवाद खतरे से अधिक दक्षिणपंथ को धर्म के साथ आम जन मानस से जोड़ने में कारगर लगता है। वे हिंसात्मक रवैये से खुद को अलग नहीं करते और क्षमा, अहिंसा सिखाने वाले गाँधी पर हिन्दुओं को कायर व माफ़ी करने वाला, सब सहने वाला बनाने की ओर मोड़ने का आरोप लगाते हैं। उन्हें यह भी लगता है कि भारत वर्ष और हिन्दुओं का जो हाल हुआ है वह इन्हीं सब कायरता पूर्ण (उनके अनुसार) विचारों के कारण हुआ है।
कहने को संघ हो या हिंदु महासभा, दोनों गाँधीजी को मुस्लिम तुष्टिकरण या विभाजन के समय के दौर में पाक पर मुलायम रहने का आरोपी मानते हैं। वे दिल से तो गाँधीवाद के खिलाफ रहेंगे मगर ऊपर से गाँधी को प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करना उनकी मजबूरी हो जाती है।
जिस वक्त संघ उतना मशहूर नहीं था जितना आज है, तब संघ ने गाँधी जी के द्वारा उनके लिए कहे गए विचार को खूब भुनाया जिसके कारण आज भी लोग गाँधी को संघ का समर्थन करने वाला मानते हैं। जबकि उन्हीं गाँधी जी ने संघ और उसके विचारों के विपरीत प्रभावों के बारे में आगाह भी किया था (अधिक जानकारी के लिए खाकी शॉर्ट्स एंड सैफरन फ्लैग्स पढ़ें)। मगर गाँधी द्वारा की गई संघ की आलोचना उतनी मशहूर नहीं जितनी उनकी कथित तारीफ़। कारण साफ़ है, अपनी छवि सुधार के दौर में संघ ने (और आज भी) गाँधी की तारीफ़ का बढ़िया इस्तेमाल किया।
तो वाम और दक्षिण दोनों पंथों के अधिकतर समर्थकों को गाँधी रास नहीं आते। और लिबरल या खुद को तटस्थ मानने वाले लोग (जो असल में तटस्थ होते नहीं) भी इन दोनों विचारों से पूरी तरह बचे नहीं रहते या फिर वे उतना तह तक जाते नहीं कि सच के कई पहलुओं को जांचें।
जैसा कि मैंने कहा है कि तीसरी जमात बाज़ारवाद की उपभोक्तावादी भीड़ भी शामिल है जिसे गाँधी के बारे में अधिक खोजने की ज़रूरत ही क्या है। क्योंकि आज का सम्भ्रांत वर्ग जिन एकीकृत धंधों, बाज़ार का समर्थक जाने अनजाने है। वह सब चीज़ें तो गाँधी जी को कभी रास नहीं आतीं। तो हम, जो उन सब एकीकृत इकाइयों में समय बिताते हैं हम सबके लिए ख़ुद ब ख़ुद ही गाँधी अप्रासंगिक हो जाते हैं। और उन्हें समझने की हमें ज़रूरत दिख नहीं पाती।
गाँधी क्यों इतने मशहूर?
गाँधी आखिर इतने मशहूर क्यों हैं? क्यों जगह जगह उनके पुतले लगे मिलते हैं? क्यों वे प्रतीकों के रूप में हमें हर जगह दिखाई देते हैं? क्यों उनकी तस्वीर सरकारी दफ्तरों से लेकर नोट तक में मिलती है। क्या उनका इतना रुतबा सिर्फ इसलिए है कि कांग्रेस आज़ादी के बाद सरकार में आई और उसने गाँधी जी को अधिक प्रचारित प्रसारित किया। बाकी क्रांतिकारियों को उतना महत्व नहीं दिया और गाँधी को किताबों से लेकर सड़क में मूर्ति के रूप में प्रचारित प्रसारित किया। क्या सच में गाँधी की जो छवि है, वह बनाई हुई है? उसी तरह जैसे आजकल एक सत्ताधारी दल अपने नेताओं को प्रचारित प्रसारित करने में लगा हुआ है जिनका अधिक योगदान अपने देश से अधिक पार्टी के लिए रहा है।
पर गाँधी के करिश्मे का ज़िक्र सुमित सरकार जैसे इतिहासकार ने भी किया है। हुबहू उनके शब्द नहीं हैं पर लगभग ऐसा ही वे बताते हैं कि उनके आने से पहले गाँव-गाँव में अफवाहें उड़ जाती थीं। सुदूर गावों में भी यह चर्चा रहती थी कि गाँधी नाम का एक फरिश्ता है जो आएगा तो हमारे दुख दूर होंगे। कई लोग तो सच में गाँधी को हर परेशानी से मुक्ति के रूप में देख रहे थे। उनके दर्शन को लोग उमड़ पड़ते थे। उनके आह्वान पर लोग उनके पीछे निकल पड़ते थे। गाँधी के करिश्माई व्यक्तित्व की अफवाहें बिन इंटरनेट के समय भी इतनी तेज़ और दूर कैसे पहुंचती रही होंगी, यह भी सोचने की बात है। इसमें ज़रूर कांग्रेस के स्थानीय कार्यकर्ताओं की भूमिका रहती होगी। मगर जो अधिक रोचक बात है, वह यह है कि क्या इस तरह का करिश्मा और किसी व्यक्ति को लेकर देश में रहा था? अगर भगत सिंह, सुभाष बोस, या अम्बेडकर अधिक लोकप्रिय थे तो आम जन मानस उनसे उस वक्त इतना जुड़ा क्यों नहीं था जितना गाँधी से? यहाँ यह तर्क ज़रूर हो सकता है कि भगत सिंह का समूह छिप कर अधिक काम करता रहा और कुछ लोग कह सकते हैं कि उसमें और सुभाष के साथ जाने में अधिक खतरा भी था। पर यह थोड़ा सा सतही तर्क ही होगा। क्योंकि असहयोग आन्दोलन हो या फिर भारत छोड़ो, लोग सब कुछ दांव पर लगाकर ही सड़कों पर उतरे थे। ऐतिहासिक सच यही है कि गाँधी जिस तरह से जनता से जुड़े थे उतना और कोई नहीं जुड़ सका। हाँ भगत के समूह को कांग्रेस का भी समर्थन नहीं था जो उस वक्त एक मुख्य केंद्र थी।
इसके कारण वह भी हो सकते हैं जिन्हें गाँधी खुद भी मानते थे। जैसे कि गाँधी धर्म और परम्पराओं के ज़रिए लोगों से जुड़ते थे। क्योंकि उन्हें लगता था कि भारत में जाति और धर्म काफी गहरे में जमे हैं और उनको एक दम से नकारने पर लोग साथ जुड़ने की जगह शायद अवरोध ही करें। इसलिए उन व्यवस्थाओं को उखाड़ने की जगह उन्हें सुधारते हुवे वे लोगों के साथ बढ़ने के पक्षधर थे। जहां गाँधी जी खुद शाकाहारी थे और शाकाहार का समर्थन करते थे वहीं उन्होंने अपने आश्रम में सुझाव दे रखे थे कि जब भी फ्रंटियर गाँधी खान अब्दुल गफ्फार खान आते थे तो उनके लिए मॉस की व्यवस्था का विकल्प भी होता था। हाँ यह बात अलग है कि वे खुद भी गाँधीजी के विचारों का आदर करते थे और जो मान्य हो वह खाने में इच्छुक रहते थे। वहीं दूसरी ओर भगत सिंह के समूह में झटका हलाल जैसी प्रथाओं को दूर करने के लिए साथ मिलाकर खाया जाता था और धार्मिक कर्मकांडों से दूरी बनाना अधिक माना जाता था। मगर इन सब बातों के अलावा जो अधिक महत्वपूर्ण बात थी, वह यह थी कि भगत सिंह समूह (हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी और नौजवान भारत सभा) भी हिंदु मुस्लिम एकता की बात करता था और गाँधी जी भी हिंदु मुस्लिम एकता की बात करते थे। जहाँ भगत सिंह भी मज़दूरों किसानों को साथ लेकर असली आज़ादी लाने की बात करते थे तो वहीं गाँधी जी का भी यही मानना था कि आम इंसानों तक पहुंचे बिना, उन्हें साथ लिए बिना आज़ादी की बात करना अधूरा है।
शिक्षा व विकास में गाँधी
अब आते हैं उस विचार पर जो शिक्षा और विकास में गांधीवाद की समझ पर आधारित है। जैसा कि हम जानते हैं कि गाँधी अधिक ज़ोर ग्राम स्वराज पर देते थे, क्योंकि उनका मानना था कि भारत की इकाई ग्राम ही हैं। गाँव के प्रत्येक व्यक्ति मज़बूत शिक्षित व स्वस्थ्य हों, सक्षम हों तो वे ग्राम को सक्षम बनाएँगे। और सक्षम और विकसित गाँवों से मिलकर देश का विकास स्वयं ही हो जाएगा। मतलब वे सबसे छोटी ग्राम इकाई को मजबूत और विकसित करने की बात पर जोर देते थे। आज अधिकतर लोग गाँधीवाद को पिछड़ेपन व अति आदर्शवाद से जोड़ कर बेकार मानते हैं पर शायद विकास की समझ को और अच्छे से हमें देखना होगा। गाँधी शिक्षा में हाथ और दिमाग के जुड़ाव के पक्षधर थे यानि श्रम की गरिमा और विभिन्न कौशल बच्चों को शिक्षा में सिखाए जाएँ ताकि वे सक्षम बनें। उन्होंने क्राफ्ट को भी सिखाने पर ज़ोर दिया। नई तालीम के ज़रिए उन्होंने यह विचार दिए, जो आज भी प्रासंगिक हैं।
उनके सुझाए चरखे के विचार में पूरा दर्शन छुपा है जो हाथ और दिमाग का मिश्रण दर्शाता है। चरखे से श्रम भी होता है, स्वरोजगार भी और स्वावलंबन भी। यह छोटे और लघु धंधों को प्रोत्साहन का भी एक विचार था। क्योंकि गाँधी केन्द्रीकृत व बड़ी औद्योगिक इकाइयों के पक्षधर नहीं थे। वे मुंबई, कोलकाता, मद्रास जैसे बड़े शहरों में केन्द्रीय इकाइयों को बनाने के विरोधी थे वे मशीनों की व्यापकता और उनके मानवों के स्थान छीनने पर चिंतित थे। वे उद्योग धंधों और परियोजनाओं के भी बड़े पैमाने की जगह, छोटी इकाइयों के पक्षधर थे। मालूम हो कि ऐसे ही कुछ विचार बहुमुखी विज्ञानी डी डी कौशाम्बी के भी थे जो गदेरों, झरनों से छोटी इकाइयों पर बिजली उत्पादन, सौर ऊर्जा आदि पर अधिक शोध पर बल देने की बातें करते थे। अगर गाँधी जी मशीनों को ही बिल्कुल नकारते तो वे कभी भी चरखे को सही ना ठहराते इसलिए उनके मशीन विरोधी होने के आरोप को भी हमें तार्किक रूप से गहरे में देखना होगा।
समझें ठीक से गाँधी को
कुछ बातें तो हमने गाँधी और गाँधीवाद पर ऊपर की हैं जिन से हमें और अधिक खोजने व पढ़ने के विचार शायद मिलें। पर गाँधी के ऊपर छाई धुंध बहुत अधिक है और इतने कहे सुने विचार और भी हैं जिन पर बात करना कभी अलग से हो सकता है। जैसे कि विभाजन में गाँधी की भूमिका को लेकर फैल


