' गांधीवाद नाम की कोई वस्तु है ही नहीं, न मैं अपने पीछे कोई संप्रदाय छोड़ जाना चाहता हूं। मेरा यह दावा भी नहीं है कि मैंने किसी तत्व की या सिध्दान्त का आविष्कार किया है मैंने तो सिर्फ जो शाश्वत सत्य हैं उनको अपने ढंग से उतारने का प्रयास मात्र किया है। मुझे दुनिया को कोई नई चीज़ नहीं सिखानी है। सत्य और अहिंसा अनादिकाल से चले आए हैं। ऊपर मैंने जो कहा है उसमें मेरा सारा तत्व ज्ञान, यदि मेरे विचारों को इतना बड़ा नाम दिया जा सकता है, समझा जाता है, आप उसे गांधीवाद न कहिए क्योकि उसमें वाद जैसी कोई बात नहीं हैं।'

यह एक बहस का मुद्दा हो सकता है कि आजादी के साठ साल बाद वैश्वीकृत होते भारत में क्या आज गांधी और गांधीवाद प्रासंगिक हैं या गांधीवाद इतिहास की वस्तु हो गया है? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कुछ साल पहले ही गांधीवाद की मार्केटिंग करने दक्षिण अफ्रीका गईं और उन्होंने कहा कि गांधी जी के सिध्दान्त आज के दौर में भी प्रासंगिक हैं। पता नहीं सोनिया जी ने गांधीवाद की क्या परिभाषा तय की है। परन्तु अभी तक जितना गांधीवाद को समझा गया है उसके मुताबिक तो उत्तर नरसिंहाराव कांग्रेस तो गांधीवाद की हत्या पर ही उतारू नज़र आती है। सार्वजनिक उद्यमों की नीलामी खुदरा क्षेत्र में विदेशी पूंजी निवेश और अमेरिका के साथ संयुक्त नौसैनिक अभ्यास व परमाणु करार निश्चित रूप से गांधी जी द्वारा वर्णित हिंसा की श्रेणी में आता है। यहां मसला यह है कि गांधीवाद क्या है और गांधी जी का राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में क्या योगदान है। और थोड़ी चर्चा गांधी जी की मन: स्थिति की।
अपने कार्यक्रम के विषय में स्वयं गांधी जी ने गांधीवाद की व्याख्या इन शब्दों में की थी- ' गांधीवाद नाम की कोई वस्तु है ही नहीं, न मैं अपने पीछे कोई संप्रदाय छोड़ जाना चाहता हूं। मेरा यह दावा भी नहीं है कि मैंने किसी तत्व की या सिध्दान्त का आविष्कार किया है मैंने तो सिर्फ जो शाश्वत सत्य हैं उनको अपने ढंग से उतारने का प्रयास मात्र किया है। मुझे दुनिया को कोई नई चीज़ नहीं सिखानी है। सत्य और अहिंसा अनादिकाल से चले आए हैं। ऊपर मैंने जो कहा है उसमें मेरा सारा तत्व ज्ञान, यदि मेरे विचारों को इतना बड़ा नाम दिया जा सकता है, समझा जाता है, आप उसे गांधीवाद न कहिए क्योकि उसमें वाद जैसी कोई बात नहीं हैं।' इसका तात्पर्य यह है कि सत्य और अहिंसा गांधीवाद नहीं हैं। परन्तु सत्य और अहिंसा की गांधी जी ने अपने तरीके से व्याख्या की। गांधी जी आध्यात्म से प्रभावित थे और उनकी अहिंसा जैन धर्म की अहिंसा से थोड़ी ही अलग थी। उनका मानना था कि कीटनाशकों का प्रयोग करना तो हिंसा है लेकिन इस हिंसा के बिना काम भी नहीं चल सकता। एक मांसाहारी व्यक्ति भी सत्य का आचरण करके अहिंसक हो सकता है और चींटियों को आटा खिलाने वाला एक मिलावटखोर व्यापारी या मजदूर की मजदूरी हड़पने वाला पूंजीपति गांधी जी की नज़र में हिंसक है। उनकी धारणा थी कि दुखी दरिद्र और पराधीन भारत को मुक्ति उनके शाश्वत सत्य और अहिंसा के सिध्दान्त से ही संभव है। इस धारणा के कारण ही कई मौकों पर गांधी जी जिद्दी और हठी नज़र आए। अब तक गांधी जी के जितने भी विश्लेषण किए गए हैं वह उन्हें या तो महापुरूष बना कर किए गए या दिग्भ्रमित जिद्दी इंसान मानकर। इस स्थिति के लिए गांधी जी भी स्वयं कम जिम्मेदार नहीं हैं। चूंकि उन्होंने स्वयं को हमेशा एक राजनेता की अपेक्षा समाज सुधारक और आध्यात्मवादी के रूप में प्रस्तुत किया। सत्य और अहिंसा की उनकी अपनी व्याख्या हमेशा उनका पीछा करती रही। इसलिए जब जब बापू के आव्हान पर सत्याग्रह या आजादी का आंदोलन जोर पकड़ता, जन उभार खड़ा होता तो उसकी स्वाभाविक परिणिति हिंसा और तोड़ फोड़ में होती और गांधी जी लपक कर आंदोलन का स्विच अपने रिमोट कंट्रोल से बंद कर देते। चूंकि उनकी अहिंसा की आधयत्मिकता चोटिल होती थी। तो क्या गांधी जी दिग्भ्रमित थे? या धर्म और ईश्वर को राष्ट्र से अलग नहीं कर पा रहे थे? गांधी जी निश्चित तौर पर सच्चे धार्मिक थे और धार्मिक सिध्दान्तों को देश में फलीभूत होते देखना चाहते थे। लेकिन धर्म को राजनीति का हथियार बनाने के सख्त खिलाफ थे। हालांकि अगर धर्म और राजनीति का घालमेल होगा तो धर्म राजनीति का हथियार बनेगा ही। वे सर्व धर्म समभाव के पुजारी थे। यही कारण था कि जिन्ना की नज़र में एक भ्रष्ट मुसलमान गांधी से बेहतर था तो अंबेडकर की नज़र में गांधी एक कट्टर सनातनी हिंदू थे। जबकि हिन्दू महासभा और आरएसएस जैसे हिन्दुओं के ठेकेदार उन्हें हिन्दू मानने को तैयार नहीं थे। गांधी जी ने हमेशा धर्म के आधार पर राष्ट्र के विभाजन का विरोध किया और हिन्दू मुसलमान सिक्ख ईसाई सभी के मेल से एक सशक्त अखण्ड भारत के निर्माण का सपना देखा। गांधी जी की नज़र में हिंसा मनुष्य के हृदय का पाप है। परन्तु लगता है आध्यात्मिकता के अति प्रभाव ने उन्हें यथास्थितिवादी या पुरातनपंथी बना दिया था। वह स्वराज तो चाहते थे परन्तु उनके स्वराज में गरीब और दरिद्र को यथावत रहना था। उनके स्वराज में गरीब का रहना इसलिए आवश्यक था ताकि अमीर उनकी सेवा कर सके। निश्चित तौर पर उनका चरखा समय के साथ तो जरूरी हो सकता था लेकिन एक राष्ट्र के तौर पर स्वराज की आर्थिक नीतियां क्या होंगी इस संबंध में उनकी सोच परिपक्व नहीं थी। और अगर जो कार्यक्रम उन्होंने घोषित किए, वे उनकी नज़र में पूर्ण थे तो निश्चित तौर पर यह कहने में कोई संकोच नह>
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