गांधी सदी पर आकाशवाणी विचार गोष्ठी का संदेश
नई दिल्ली। वर्ष-1915 में दक्षिण अफ्रीका से हमेशा के लिए भारत वापस लौटे थे। यह एक तरह से भारत में गांधी युग के शुभारम्भ का दिन था। वर्ष-2015 एक तरह से गांधी युग का शताब्दी वर्ष है। जरूरी है कि गांधी सदी के इस मौके को हम गांधी को गाली देने में गंवाने की बजाय, आगे बढें; सोचें कि अगली सदी में भारत के अंतिम जन को रौशनी कहां से मिलेगी। इसी दृष्टि से आकाशवाणी और दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा हाल में ही एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। सामाजिक कार्यकर्ता व वरिष्ठ पत्रकार अरुण तिवारी की रिपोर्ट-
इस दुनिया में यदि कोई सबसे आसान काम है तो वह है, किसी में खामियां निकालना। इस दुनिया में यदि कोई सबसे कठिन काम है, तो वह है, दूसरों को उपदेश देने से पहले उसे स्वयं आात्मसात् करना। इस दुनिया में महान विचारक और भी बहुत हुए, किंतु महात्मा गांधी ने दुनिया के सबसे कठिन काम को चुना। उनकी महानता यही थी कि उन्होंने दूसरे से जो कुछ भी अपेक्षा की, उसे पहले अपने जीवन में लागू किया। महात्मा गांधी की इसी खूबी ने उन्हे इस वर्ष-2015 में जीवित रखा है। गौर करने की बात है कि वर्ष-2015, एक ऐसा वर्ष है, जिससे एक सदी पहले नौ जनवरी, 1915 को गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से हमेशा के लिए वापस स्वदेश लौटे थे। नौ जनवरी को भारत, हर वर्ष ’प्रवासी दिवस’ के तौर पर मनाता है। एक तरह से 1915, भारत में गांधी युग के सूत्रपात का वर्ष था और 2015 उसका शताब्दी वर्ष।
गांधी सदी समापन पर पेश दो चित्र
गांधी सदी के इस पावन मौके पर एक दुखद चित्र यह है कि गांधी के लिए गंदे बोल और उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे को शहीद घोषित करने की नापाक कोशिशें हो रही हैं। न्यायमूर्ति की कुर्सी पर विराजते रहे काटजू साहब ने गांधी जी को ’अंग्रेजों का एजेंट’ करार दिया और साध्वी प्राची ने ’अंग्रेजों का पिट्ठू’। मौका देख, गोरखपुर फिल्मोत्सव में अरुंधति रॉय ने गांधी जी को कारपोरेट प्रायोजित प्रथम एनजीओ’ का तमगा दे डाला। दूसरा चित्र सुखद है और सुंदर भी कि आकाशवाणी (नई दिल्ली) और दिल्ली विश्वविद्यालय ने मिलकर पेश किया’ गांधी और अंतिम जन... दोनो को याद किया। गानवृंद कलाकारों के द्वारा ’’वैष्णव जन तो तेने कहिए...’’ की सुर साधना से शुरु हुए इस आयोजन का सफर भारत के करोङों गरीब-गुरबा अंतिम जनों के उत्थान की चिंता करते हुए इस निष्कर्ष के साथ सम्पन्न हुआ कि अंतिम जन को खैरात नहीं, खुद्दारी की दरकार है। तलाश और तराश इसके औजारों की हो।
1915 का गांधी खास क्यों ?
’’वो अंधेरे में गया था, उजाला बनकर लौटा’’ - इस मौके विशेष के लिए रचित रहमान मुसव्विर के इस बोल ने याद दिलाया कि वर्ष-1915 में वापस लौटने वाला गांधी, अप्रैल, 1893 में एक व्यापारिक प्रतिष्ठान में नौकरी करने गया मोहनदास कर्मचंद गांधी नाम का एक वकील मात्र नहीं था। वह एक ऐसा गांधी था, टिकट होने के बावजूद प्रथम श्रेणी से फेंके जाने के बाद जिसने स्वदेश वापस लौटना कायरता और रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाने को अपनी देशभक्ति समझा। 1899 में बीअर युद्ध के दौरान एम्बुलेंस की स्थापना करते हुए मोहनदास में दुनिया ने एक अलग गांधी देखा। इस दौरान टाँसबाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी और फीनिक्स आश्रम की स्थापना, इंडियन ओपीनियन अखबार और फिर 1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका की यात्रा के दौरान हिंद स्वराज जैसी अद्भुत पुस्तक लिखने के कृत्य ने मोहनदास को एक दूसरा गांधी बनाया।
1915 को भारत लौटा गांधी, एक ऐसा गांधी था, जो यह बात एक सिद्धांत की तरह स्थापित कर चुका था कि शांतिपूर्ण तरीके से सत्य का आग्रह कर भी न्याय हासिल किया जा सकता है। उस गांधी ने अहिंसा को सुरक्षा के सबसे भरोसेमंद, व्यावहारिक और अचूक अस्त्र के रूप में पा लिया था। वह एक ऐसा गांधी भी था, जो निजी स्तर पर हुए अन्याय का इस्तेमाल, सर्वजन को न्याय दिलाने में करना जानता था; जिसने भारत आने पर सबसे पहले उस हिंदुस्तान को जानने की कोशिश की, जिसे जानना तो दूर, आज के अधिकांश राजनेता पहचानने से भी इंकार कर देते हैं। गांधी ने उसे पहचान कर ही तय किया था कि आज़ादी नीचे से शुरु होनी चाहिए। यंग इंडिया में उन्होने लिखा –
’’ मेरे सपनों का स्वराज्य तो गरीबों का स्वराज्य होगा।’’
गांधी लिखते हैं –
’’मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करुंगा, जिसमें गरीब से गरीब आदमी भी यह महसूस कर सके कि यह उसका देश है, जिसके निर्माण में उसका महत्व है।’’
ऐसी सोच और संकल्प वाले गांधी का मत साफ था कि जिसके पास धन है, व धन-जन है। जिसके पर धन नहीं; जो अकिंचन है। उसका ईश्वर है। वह ईश्वर का जन है; हरिजन है। कौन नहीं जानता कि गांधी ने आजादी के लिए संघर्ष करते-करते हरिजनों के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक अधिकार के लिए भी सतत् संघर्ष किया। आकाशवाणी, नई दिल्ली और दिल्ली विश्वविद्यालय ने मिलकर गांधी सी के मौके पर इसी गांधी को याद किया।
अंतिम जन कौन ?
जाति, धर्म, वर्ग, आय, लिंग.. अंतिम जन को चिन्हित करने का कई आधार हो सकते हैं: समाज का सबसे कमजोर इंसान; वह इंसान, जिसके बारे में लिए जा रहे निर्णय की निर्णय प्रक्रिया में उसे ही शामिल न किया जाये। व्यापार में रेहङी-पटरी वाला, वाहन चालकों में रिक्शा-साईकिल वाला; कर्मचारियों में सबसे कम तनख्वाह वाला सेवक; लेखकों में सबसे गरीब लेखक, दिहाङी कार्य में सबसे कम दिहाङी पाने वाला मजदूर, उत्पादकों में किसान, उद्योगपतियों में ग्राम्य उद्यमी, विद्यार्थियों में सबसे कमजोर विद्यार्थी या वह व्यक्ति, जो होते हुए विकास के नारे को सिर्फ सुन या देख सकता हो; जिसका योग उसके लिए मयस्सर न हो या फिर दीन, हीन और प्रत्येक दुखी अंतिम जन है।
संतोष है कि एक विचार गोष्ठी के माध्यम से इस मौके पर एक छोटी सही, किंतु यह जानने की कोशिश तो की गई कि जमीन पर पड़ा यह अंतिम जन, उठकर खड़ा कैसे हो ? उसके उत्थान के व्यैक्तिक, सामूहिक प्रयास क्या हो सकते हैं। यदि अंतिम जन के उत्थान का सुर साधना हो, तो कौन सा मार्ग साधा जाये ? क्या गांधी मार्ग इस बारे में कोई सहयोग कर सकता है ? स्थान: दिल्ली विश्वविद्यालय मेट्रो के निकट 32, छात्र मार्ग पर स्थित गांधी भवन। तारीख: 18 मार्च; पहले खिलाफत, फिर असहयोग आंदोलन और फिर चौरी-चौरा प्रकरण से बौखलाई ब्रितानी हुकूमत की एक अदालत द्वारा वर्ष-1922 में महात्मा गांधी को छह वर्ष की जेल की सजा सुनाने की तारीख!! वक्ता थीं, नारी शक्ति का प्रतीक चार बहनें: गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा - बहन सुश्री राधा भट्ट, गांधी स्मृति और दर्शन समिति की निदेशक - डॉ. मणिमाला, दिल्ली विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र की प्रोफेसर डॉ. बिंदु पुरी और कमला नेहरु कॉलेज की सेवानिवृत प्राध्यापिका डॉ. सीता भाम्बरी। डॉ. सीता भाम्बरी, आजकल गांधी भवन में छात्रों को चरखा कातना सिखाती हैं। खासतौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए आयोजित इस कार्यक्रम में आकाशवाणी के उपमहानिदेशक राजीव कुमार शुक्ल, अपर महानिदेशक मनोज पटेरिया, इस कार्यक्रम विशेष के संयोजक मनोहर सिंह रावत, दिल्ली विश्वविद्यालय की संकाय उपाध्यक्षा डॉ. निशि त्यागी, गांधी युवा बिरादरी के प्रमुख श्री रमेश शर्मा तथा आकाशवाणी के पदाधिकारी, कई गांधीवादी कार्यकर्ता व विद्यार्थियों ने शिरकत की।
मैं धन्य हुआ कि इस कार्यक्रम का मंच संचालन का सौभाग्य बहन तपस्या के साथ-साथ मुझे भी प्राप्त हुआ। विश्वविद्यालय, जहां बैठकर विद्यार्थी अक्सर अपने कैरियर और पैकेज का सपना बुनते हैं, वहां अंतिम जन की बात करने का प्रयास और यह अनुभव सचमुच आनन्दित करने वाला था। अच्छा लगा कि वहां करीब एक दर्जन नौजवान-नवयुवतियां चरखा कात रहे थे। सुखद है कि इस कार्यक्रम के संपादित अंश दिनांक 30 मार्च, 2015 की रात 9.30 बजे आकाशवाणी के इन्द्रप्रस्थ, राजधानी, एफ एम रेनबो के अतिरिक्त अधिकांश केन्द्रों द्वारा प्रसारित किए जायेंगे।
चिंता पर चिंतन
अपने स्वागत भाषण में राजीव शुक्ल ने अपनी छोटी-छोटी स्मृतियों में गांधी के संदेश में अंतिम जन और देश.. दोनों का भविष्य देखा। डॉ. बिंदु पुरी ने दक्षिण अफ्रीका के गांधी के याद किया। डॉ. सीता ने स्वेच्छा से स्वीकार गरीबी के गांधी दर्शन को पेश करते हुए स्पष्ट किया कि यदि अंतिम जन के उत्थान का सपना सच करना है, तो बात करने से चलेगा नहीं, कुछ करना होगा। सादगी और कम से कम में जीवन चलाने की शैली को खुद अपने जीवन में उतारकर इस दिशा में पहला कदम बढाया जा सकता है। सोचना यह चाहिए कि उसे खुद्दारी कैसे हासिल हो ?
डॉ. मणिमाला ने चरखे के चक्र और सूत में पिरोकर सामाजिक सद्भाव का सूत्र पेश किया। कोई फाइल डाउनलोड करते समय कम्पयुटर की स्क्रीन पर एक जगह तेजी से नाचते चक्र को सामने रख डॉ. मणि ने यह भी समझाने की कोशिश की कि यदि समग्र विकास चाहिए तो वह एक धुरी के चारों ओर चक्कर काटने या की बोड के एक बटन अथवा माउस से नियंत्रित अंधी दौड़ से संभव नहीं है। अंतिम जन के विकास को कपास से सूत में बदलने वाले हाथों सी साधना, संवेदना, सातत्य और सावधानी चाहिए।
दूरी घटाने का नया मंत्र
विमर्श के दौरान यह बात कई बार आई कि जो अंतिम जन के उत्थान के इच्छुक है, अंतिम जन के पास जायें। विकास, राजनीति और समाज के नये रंग से रुष्ट दिखी सुश्री राधा भट्ट ने इस उक्ति को उलट दिया। उन्होने एक नया क्रांतिकारी ककहरा दिया - ’’ यदि अंतिम जन को ऊपर उठाना है, तो अमीरों के पास जायें। उनसे कहें कि वे जरा नीचे आयें।’’ राधा बहन, गांधी जगत में सुविख्यात एक ऐसी कार्यकत्री हैं, जिन्होने अपने जीवन में अधिकांश समय, सामर्थ्य और साधना.. चिपको और शराबबंदी जैसे आंदोंलनों तथा उत्तराखण्ड तथा हिमाचल के गांवों में उत्थान के ज़मीनी काम के लिए खर्च किय है। भारत को अमीरों के लिए, अमीरों के द्वारा, अमीरों के लोकतंत्र में तब्दील होते देख दुखी राधा बहन ने स्पष्ट कहा कि अंतिम जन को खैरात नहीं, खुद्दारी चाहिए। ’प्रोडक्शन फॉर मासेस की बजाय, प्रोडक्शन बाय मासेस’ का सूत्र का सिरा पकड़कर हम सभी को उनका सम्मान, साधन और सामर्थ्य लौटा सकते हैं। यही गांधी दर्शन भी है और इस आयोजन का संदेश भी।
अपनी ताकत की पहचान जरूरी
गौर करें कि गांधी ने शुद्ध स्वदेशी को परमार्थ की पराकाष्ठा मानते हुए एक ऐसी भावना के रूप में व्यक्त किया, जो हमें दूर को छोड़कर अपने सीमावर्ती परिवेश का ही उपयोग और सेवा करना सिखाती है। गांधी जी कहते थे कि भारत की जनता की अधिकांश गरीब का कारण यह है कि आर्थिक और औद्योगिक जीवन में हमने स्वदेशी के नियम को भंग किया। गांधीजी मानते थे कि जमीन पर मेहनत करने वाले किसान और मजदूर, ज्यों ही अपनी ताकत पहचान लेंगे, त्यों ही जंमीदारों की बुराई का बुराईपन दूर हो जायेगा। वे कहते थे कि अगर वे लोग यह कह दें कि उन्हे सभ्य जीवन की आवश्यकताओं के अनुसार अपने बच्चें के लिए भोजन, वस्त्र और शिक्षण के लिए जब तक काफी मजदूरी नहीं दी जायेगी, तब तक वे जमीन बोयेंगे-जोतेंगे ही नहीं, तो जमींदार बेचारा क्या कर सकता है। अपनी ताकत की इस पहचान में अंतिम जन को खैरात से दूर, खुद्दारी की मंजिल पर जाने का मंत्र साफ इंगित है। आइये, अपनी ताकत को पहचानें।
आगे बढ़ने का वक्त
भूलने की बात नहीं कि भारत, आज परिवर्तन के मोड़ पर खङा है। यह एक ऐसा मोङ भी है, जहां एक ओर राष्ट्र के प्रथम व्यक्ति और अंतिम व्यक्ति, प्रथम जन की व्यवस्था और अंतिम जन की व्यवस्था के बीच बढती दूरी के ’सबका साथ और सबका विकास’ के नारे में सबसे बङी बाधा में रूप में चिन्हित होने से हम में से बहुत लोग चिन्तित हैं; दूसरी ओर भारतवासी करवट लेने का एहसास करा रहे हों। राष्ट्र बेताब दिख रहा है, बेहतरी और बदलाव के लिए। यह बेहतरी और बदलाव, एकांगी होकर न रह जायें; इसमें अंतिम जन की भागीदारी भी हो; इसके लिए जरूरी है कि हम सभी गांधी को गाली देने की बजाय, आइये, हम सभी सोचें कि अगली सदी का रास्ता क्या हो ? रोशनी कहां से मिले ??