क्योंकि वो सफाए में विश्वास करते हैं !
महेंद्र मिश्रा
राजस्थान की बीजेपी सरकार ने इतिहास की किताबों से देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को बाहर कर दिया है। गांधी हत्या के बांस से गोडसे की बांसुरी न बजे। लिहाजा किताब से यह पूरा प्रसंग ही हटा दिया गया है। आने वाली पीढ़ियों को पता ही नहीं चलेगा कि गांधी की मौत कैसे हुई। अचरज नहीं कि किसी दिन गांधी जी की मौत खुदकुशी करार दे दी जाए। या फिर किसी मुसलमान को उनका हत्यारा बता दिया जाए। मानो इतिहास न हुआ घर की भट्ठी हो गई। जो चाहा चढ़ाया और जब चाहा उसे उतार दिया। इतिहास का अगर सत्य और तथ्य से नाता टूट जाए तो यही होता है। फिर उसे अपनी झूठ और कपोल कल्पनाओं का वाहक बनाना आसान हो जाता है। संघ-बीजेपी सरकार यही कर रही है। मामले पर शिक्षा मंत्री का बयान बड़ा रोचक है। उन्होंने कहा कि नेहरू को फला पन्ने पर एक लाइन दी गई है। मानो ऐसा करके अहसान कर दिया गया हो। लायक तो उसके भी नहीं थे।
एकबारगी आजादी की लड़ाई से नेहरू को गायब किया जा सकता है। लेकिन आजादी के बाद के 17 सालों के नेहरू के शासन का क्या विकल्प है? क्या उसे गुरु गोलवलकर के नाम कर देंगे? इन सत्रह बरसों में देश में जो कुछ हुआ उसका श्रेय किसको देंगे? या बता देंगे कि सब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ही तय करके गए थे। या फिर नेहरू के सारे कामों पर मिट्टी डाल कर उसे दफन कर देंगे? क्या इन 17 सालों को खारिज कर किसी आधुनिक भारत की कल्पना की जा सकती है?
संघी इन सवालों से डरते नहीं हैं। क्योंकि इनके पास हर सवाल का रेडीमेड जवाब है। और जवाब जब तर्क, तथ्य और सत्य की कसौटियों से आजाद हो जाएं तो उन्हें देना और भी आसान हो जाता है। क्योंकि उसके लिए ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं होती है। सब कुछ कपोल कल्पित और मनगढ़ंत होता है। और जब चाहा जैसे चाहा तैयार कर लिया।

जो जमात 1200 साल पचा जाने की क्षमता रखती हो उसके लिए 17 साल क्या है?
अनायास नहीं पूरे मुस्लिम काल को ये अंधकार युग घोषित कर देते हैं। यानी एक पूरा दौर शून्य काल हो गया। वह भी एक नहीं सौ नहीं हजार नहीं पूरे 1200 साल। बड़ा वक्त होता है। मानो पूरा वक्त ही थम गया हो। जिंदगियां ठहर गई हों। इनके लिए क्या अकबर, क्या शेरशाह सूरी और क्या औरंजगेब या फिर सल्तनत काल के दूसरे शासक सब एक हैं। सब मुसलमान। और ये उन्हें कभी अपना हिस्सा नहीं मान पाते। लेकिन इनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि ग्रैंट ट्रंक रोड के निर्माता शेरशाह की जगह किसका नाम देंगे? ताजमहल को शाहजहां की मोहब्बत से काट कर क्या देखा जा सकता है? या फिर लाल किले के निर्माण का श्रेय शाहजहां की जगह किसी और को दे दिया जाएगा? इसी तरह से उस दौर के हजारों हजार प्रतीकों और कहानियों को क्या लोगों की जेहन से मिटाया जा सकता है? अकबर और बीरबल की कहानियों के बगैर क्या किसी भारत की कल्पना की जा सकती है? भक्ति काल और सूफी संगीत की विरासत को मुल्क की सांस्कृतिक जेहनियत से काटा जा सकता है?
अंधकार युग के इन निवासियों को यह नहीं लगता कि यही तर्क उनके ऊपर भी लागू हो सकता है। यहां के मूल निवासी होने के नाते द्रविणों के लिए आर्य भी एक मुसलमान हैं। एक बाहरी और नई संस्कृति के वाहक। द्रविण आर्यों के दौर को भी अंधकार युग घोषित कर सकते हैं। ऐसे में आपके युग और उस दौर की उपलब्धियों का क्या होगा? लेकिन यहां भी आपने एक झूठ गढ़ लिया है कि आर्य बाहरी नहीं थे। सच्चाई यह है कि खुद आपकी विरासत के एक बड़े नायक बाल गंगाधर तिलक तक ने माना है कि आर्य बाहर से आए थे। और इनका मूल निवास मध्यपूर्व है।

दरअसल ये सफाये में विश्वास करते हैं, विरोध का मतलब देशद्रोह
दरअसल ये सफाये में विश्वास करते हैं। वह सफाया 1200 साल के वक्त का हो या कि एक पूरी जमात का। वह गांधी का हो या कि गुजरात की अक्लियतों का। वह बाबरी मस्जिद का हो या कि अली दकनी की मजार का। विरोध का मतलब देशद्रोह। यानी सामने वाले का वजूद ही खारिज हो जाना। बात-बात में पाकिस्तान डिपोर्टिंग उसी का नतीजा है। अनायास नहीं इनका चरित्र बर्बर तालिबानी कबीलों से मिलता है। अगर वो बामियान स्थित बुद्ध की प्रतिमा ध्वस्त करते हैं तो दिनदहाड़े बाबरी मस्जिद को जमींदोज करने का कारनामा इनके नाम है।