भारत शर्मा
जो लोग खुद को ब्रह्मा के किसी न किसी अंग से जन्मा मानते हैं, उनकी बात अलग है, पर जो लोग विज्ञान के विकासवाद की अवधारणा पर भरोसा करते हैं और मानते हैं कि इंसान का विकास बंदर से हुआ है, वह पहले कबीलों में रहता था, फिर गांव, समाज और शासन व्यवस्था का विकास हुआ, वे अगर यह दावा करें, कि हिंदू हमेशा शाकाहारी रहा, तो बात हजम नहीं होती, क्योंकि खेती का विकास कबीलाई संस्कृति के काफी बाद हुआ। गांव भी उसी समय बसना शुरू हुए, जब खेती का विकास हुआ। कबीलाई संस्कृति में शिकार ही आजीविका का मुख्य आधार था।
अब यह मानना भी आसान नहीं है, कि गाय हमेशा से पूज्य रही है। जैसा आज कहा जा रहा है या गाय के लिए इंसानों की हत्या कर की जा रही है। खेती के विकास के बाद लोगों का गाय का महत्व समझ में आया और उन्होंने उसकी देखरेख करना शुरू कर दी।
आज खेती का सारा काम मशीनों से हो रहा है, ऐसे में गाय किसान के लिए महत्वहीन हो गई है और उसने उसे सड़क पर छोड़ दिया है। जब किसान गाय का सम्मान करता था, तब भी गाय को लेकर उसकी टकराहट बनी रहती थी।
इस बात को बौद्ध धर्म के विकास के माध्यम से समझा जा सकता है। जैन धर्म और बौद्ध धर्म की स्थापना का आधार अहिंसा था और एक समय था, जब लगभग पूरे उत्तर भारत में बौद्ध धर्म की स्थापना हो गई थी। अब सवाल खड़ा होता है, हिंदू धर्म छोड़कर लोग उस धर्म में क्यों गए? जो अहिंसा की बात करता था, उन्हें किसका डर था ?
अंदाजा लगाया जा सकता है, हिंदू धर्म उस समय अहिंसक नहीं रहा होगा। कहा जाता है हिंदुओं में मूर्ति पूजा की शुरुआत काफी बाद में हुई। खजुराहो के मंदिर सबसे पुराने माने जाते हैं। इससे पहले हवन किए जाते थे। इन हवनों में जानवरों की बलि दी जाती थी। इन जानवरों में गाय भी मुख्य रही होगी, जिसका विरोध किसान करते रहे होंगे, इसीलिए उनका रुझान ऐसे धर्म की तरफ गया होगा, जो धर्म के नाम पर हिंसा का विरोध करता था।
बौद्ध धर्म के विस्तार में राजा अशोक की बड़ी भूमिका रही। कहा जाता है, हमारे देश में गो हत्या पर रोक लगाने वाला पहला शासक अशोक ही था। यह काम भी उनके बौद्ध् धर्म अपनाने के बाद किया।
हो सकता है, गो-हत्या पर रोक के बाद ही बड़ी संख्या में किसान बौद्ध धर्म की तरफ गए हों, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। बौद्ध धर्म के विस्तार को लेकर इस थ्योरी का समर्थन डा. अम्बेडकर ने भी किया है। उनका यह भी तर्क है, कि हिंदू शाकाहारी भी बौद्ध धर्म से मुकाबला करने के लिए बने। डा. अम्बेडकर के अनुसार बौद्ध धर्म की बुनियाद भले ही अहिंसा पर थी, पर मांसाहार के लिए उसमें भी मनाही नहीं है। अगर जानवर आपके लिए न मारा गया हो, तो उसे खाया जा सकता है। पहाड़ी इलाकों पर रहने वाले तमाम बौद्ध भिक्छु इस नियम का फायदा उठाकर जानवर को पहाड़ से धकेल देते हैं और बाद में उसे खा लेते हैं।
बहरहाल अम्बेडकर के अनुसार जब बौद्ध धर्म का विस्तार काफी हो गया, तो हिंदू धर्म गुरुओं ने उसके मुकाबले के लिए खुद को शाकाहारी घोषित कर दिया, जिससे वे किसानों का फिर से दिल जीत सकें, हालांकि हवन और बलि का सिलसिला फिर भी चलता रहा। कई मंदिरों में आज भी जानवरों की बलि दिए जाने की परंपरा है।

इतिहास में ऐसी कोई जानकारी नहीं मिलती, जिसमें किसी हिंदू राजा ने गाय को मारने पर रोक लगाई हो।
मुगलों के लिए तो गाय पूज्य नहीं थी, फिर भी उन्होंने इसे काटने पर रोक लगाई। 11 जनवरी 1529 को हुमांयू के लिए लिखे वसीयतनामे में बाबर ने इस बात का उल्लेख किया है, कि गाय की कुरबानी से बिल्कुल परहेज करना। ऐसा उन्होंने इसलिए कहा, क्योंकि वे जानते थे, इस देश में हिंदू गाय को पूज्य मानते हैं।
बाबर ने गाय की हत्या पर रोक लगाई थी या नहीं, इसका उल्लेख तो नहीं मिलता, पर अकबर के काल में गाय की हत्या पर पूरी तरह रोक थी। अकबर के काल में गाय के अलावा बैल, घोड़ा व भैंस के वध की भी मनाही थी। हालांकि कुछ स्थानों पर इस बात का भी उल्लेख मिलता है, कि कुछ पंडितों के विरोध के बाद उन्हें हवन के लिए गाय की बलि देने की छूट अकबर के काल में दी गई थी।
जैन विद्वानों के दिए गए फरमानों और उनके गंथों से पता चलता है, कि वर्ष में 6 माह और कुछ दिन, विभिन्न महीनों और तिथियों पर बकरे और भेड़ आदि तक के वध पर रोक लगी रहती थी।
शाहजादा सलीम ने भी इस परंपरा का निवाह किया। उनके काल में गोवध पर पूरी तरह से रोक थी, गाय के वधिक को मृत्युदंड दिया जाता था।
इस पूरे मामले में एक बार समझ में आती है, कि देश की गरीब और किसान जनता ने हमेशा से गाय को पूज्य माना है, जो शासक समाज को साथ लेकर चलना चाहते थे, उन्होंने इसे समझा और उसी के हिसाब से काम किया और समाज को एक रखा।
पर जो अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं, वे इसी गाय के नाम पर ही समाज को तोड़ने का काम कर रहे हैं।
भारत शर्मा
भारत शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।