सुनील दत्ता
भारतीय इतिहास में अनेक नायक आये, सब अपने फन के माहिर। उन्ही में से एक नायक सिनेमा की दुनिया में सदा राजकुमार बन कर रहा और आज भी राजकुमार बनकर हमारे दिलो पर राज कर रहा है। चमकते सिनेमा की दुनिया की रियासत के एक मात्र "राजकुमार" थे। 8 जुलाई सन 1926 को राजकुमार का जन्म ब्लूचिस्तान प्रांत में एक कश्मीरी ब्राहमण परिवार में कुलभूषण पंडित के रूप में हुआ था। 1940 में राजकुमार ने स्नातक की शिक्षा पूरी करके बम्बई का रुख किया और यहाँ वो पुलिस विभाग में सब इन्स्पेक्टर पद पर माहिम में तैनात हो गये। एक दिन रात के गश्त के दौरान एक सिपाही ने राजकुमार से कहा की "आप रंग, ढंग और कद- काठी में राजकुमार लगते हैं और आप किसी हीरो से कम नहीं है। फिल्मों में आप अगर हीरो बन जाएं तो लाखों के दिलो पर राज करेंगे। राजकुमार को सिपाही की यह बात भा गयी और उन्होंने फिल्मों में अभिनय करने का निर्णय लिया। राजकुमार जी की नियुक्ति जिस थाने में हुई थी, अक्सर फिल्म उद्योग जगत से जुड़े लोगों का आम - दरफत था। एक बार पुलिस स्टेशन में फिल्म निर्माता बलदेव दुबे कुछ काम से आये थे। वह राजकुमार के बातचीत के अंदाज से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने राजकुमार से अपनी "शाही बाजार" में अभिनेता के रूप में काम करने की पेशकश की। राजकुमार को सिपाही की बात याद आ गयी और उन्होंने तुरंत पुलिस के नौकरी से त्याग- पत्र दे दिया और एक नई धुन नये एहसास और संघर्ष के रास्ते पर चल निकले।
राजकुमार साहब को उर्दू भाषा में महारथ हासिल की थी। राजकुमार ने फिल्मों में हीरो का रूप बदल दिया एक ऐसा हीरो था जो रोमांस तो करता था उसके चेहरे पर अलग रौशनी थी। उन्होंने बलदेव साहब की बात मान ली और फिल्म शाही बाजार में काम करने हामी भर दी। "शाही बाजार" को बनने में काफी वक्त लग गया। राजकुमार को अपना जीवन यापन करने में दिक्कत होने लगी। इसी लिए उन्होंने 1952 में प्रदर्शित फिल्म "रंगीली" में छोटी सी भूमिका स्वीकार कर ली। यह फिल्म सिनेमाघरों में कब लगी और कब उतर गयी। यह पता ही नहीं चला। इसी बीच उनकी "शाही बाजार" फिल्म भी प्रदर्शित हुई बाक्स आफिस पर वो असफल रही। शाही बाजार की असफलता के बाद राजकुमार के तमाम रिश्तेदार यह कहने लगे कि तुम्हारा चेहरा फिल्म के लिए उपयुक्त नहीं है। वहीं कुछ लोग कहने लगे कि तुम खलनायक बन जाओ। वर्ष 1952 से 1957 तक राजकुमार फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे।
"रंगीली" के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली उसे स्वीकार करते चले गये "अनमोल सहारा", "अवसर", "घमण्ड", "नीलमणि" और "कृष्णा सुदामा" जैसी फिल्मों में अभिनय किया लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म इन्हें सफलता नहीं दिला सकी। महबूब खान की वर्ष 1957 में बनी "मदर इंडिया" में इनके गाँव के मामूली किसान के किरदार ने फ़िल्मी दर्शकों पर एक ऐसी अमिट छाप छोड़ी जिसके चलते राजकुमार फ़िल्मी दुनिया के वास्तविक राजकुमार बन गये। इस फिल्म ने उन्हें अन्तराष्ट्रीय स्तर पर अभिनय की दुनिया में स्थापित कर दिया। 1959 में बनी फिल्म पैगाम में उनके सामने हिंदी सिनेमा के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे। लेकिन यहाँ भी राजकुमार ने अपने दमदारी अभिनय से दर्शकों से वाह- वाही लूटी इसके बाद तो "दिल अपना और प्रीत पराई", "घराना", "गोदान", "दिल एक मंदिर" और "दूज का चाँद" जैसी फिल्मों ने इनको बुलन्दियो पर बिठा दिया। और अब स्वंय ही राजकुमार फिल्मो में अपनी भूमिका चुनने लगे। वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म "काजल" ने जबर्दस्त कामयाबी हासिल किया और राजकुमार साहब ने उस फ़िल्मी दुनिया में अपने एक अलग पहचान बना ली।
बी आर चोपड़ा की 1965 में प्रदर्शित फिल्म "वक्त" में अपने लाजबाब अभिनय से वह एक बार फिर से अपने चाहने वालों के बीच उनको आकर्षित करने में सफल रहे। उस फिल्म में राजकुमार ( राजा ) के बोले गये संवाद "चिनाय सेठ जिनके घर शीशे के बने होते हैं वो दूसरो के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते", "चिनाय सेठ, ये छुरी बच्चो के खेलने की चीज नहीं हाथ कट जाए तो खून निकल आता है" आज तक दर्शक भूल नहीं पाए हैं। फिल्म "वक्त" की कामयाबी से वो एकदम शिखर पर आ गये। इसके बाद उन्होंने "हमराज", "नीलकमल", "मेरे हुजूर", "हीर रांझा" फिल्मों में अपने अभिनय का जबर्दस्त जलवा दिखाया। फिलहाल "लाल पत्थर" उनके बोले गये इस संवाद को कौन भूल सकता है- "अपना तो हमें खुद पता नहीं बाकी दस वर्ष पहले जीवन दस वर्ष बाद लौटकर नहीं आता माधुरी, वो हमारा हो तुम्हारा हो या किसी और का।"
कमाल अमरोही की फिल्म "पाकीजा" में एक शानदार नवाब की भूमिका में जबर्दस्त छाप छोड़ा। उस फिल्म में कहा गया एक सम्वाद आज भी वो दर्शक नहीं भूल पाए जो राजकुमार के मुरीद हैं "आपके पाँव देखे बहुत हसीन हैं, इन्हें जमीन पर मत उतारियेगा मैले हो जायेंगे" वो इस कदर लोकप्रिय हुआ उस जमाने के आशिक अपनी महबूबाओं को यही कहा करते थे। 1978 में बनी फिल्म "कर्मयोगी" में राजकुमार के विभिन्न अभिनय के आयामों को देखने को मिलता है। अभिनय में एकरूपता से बचने के लिए और स्वयं को चरित्र अभिनेता के रूप में स्थापित करने के लिए उन्होंने स्वयं भिन्न- भिन्न भूमिकाओं में अपने को पेश किया। 1980 में फिल्म "बुलंदी" में वह चरित्र भूमिका निभाने से भी नहीं हिचके। इस फिल्म में भी उन्होंने आपने चाहने वालों का दिल जीत लिया। 1991में सुभाष घई द्वारा बनाई फिल्म "सौदागर" में एक बार फिर दो अभिनय के दिग्गज आमने सामने हुए। 1959 में बनी फिल्म पैगाम के बाद दूसरी बार वो और दिलीप कुमार आमने-सामने थे। उस फिल्म में इन दोनों महारथियों का टकराव देखने लायक बनता है।
नब्बे के दशक में उन्होंने फिल्मो में काम करना कम कर दिया था। इसी दौरान उनकी फिल्म "पुलिस और मुजरिम", "इंसानियत के देवता", "बेताज बादशाह", "जबाब", "गाद और गन" के साथ तिरंगा प्रदर्शित हुई। तिरंगा का वो ब्रिगेडियर जो अपने वतन पे कुर्बानी के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन देश को समर्पित कर देता है। राजकुमार के सामने थे नये उभरते कलाकार नाना पाटेकर और उसमें बोला गया था वो सम्वाद "गैंडा स्वामी हम जैसे लोगो के रहते इस तिरंगे का अपमान कोई भी नहीं कर सकता" नितांत अकेले रहने वाले राजकुमार ने शायद यह महसूस कर लिया था कि मौत उनके काफी करीब है। इसीलिए अपने पुत्र पुरु राजकुमार को उन्होंने अपने पास बुलाकर कहा- "देखो मौत और ज़िन्दगी इंसान का निजी मामला होता है।"- मेरी मौत के बारे में मेरे मित्र चेतन आनन्द के अलावा और किसी को नहीं बताना। मेरा अंतिम संस्कार करने के बाद ही फिल्म उद्योग को बताना।
अपने संजीदा अभिनय से लगभग चार दशक तक अपने चाहने वालो के दिलों पर राज करने वाला "बादशाह" 3 जुलाई 1996 में एक ऐसी अनन्त यात्रा पर निकल पड़े और हमारे बीच अपनी अभिनय की अदायगी और अपनी बुलन्द आवाज में वो सम्वाद छोड़ गये जो आज भी हम लोग कभी-कभी अपने शब्दों में बोल पड़ते हैं। आज उनकी पुण्य तिथि है, उनको श्रदांजलि अर्पित करता हूँ।
सुनील दत्ता। लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।