गर्म हवा, कुछ भी नहीं बदला। नफरतें वहीं, सियासतें वहीं बंटवारे की, अलगाव और दंगा फसाद वहीं, चुनावी हार जीत से कुछ नहीं बदलता।

हमें फिजां यही बदलनी है!
Garm Hawa, the scorching winds of insecurity inflicts Humanity and Nature yet again!

पाकिस्तान बना तो क्या इसकी सजा हम अमन चैन, कायनात को देंगे और कयामत को गले लगायेंगे ?
बिरंची बाबा हारे तो नीतीश लालू के जाति अस्मिता महागबंधन की जीत होगी और मंडल बनाम कमंडल सिविल वार फिर घनघोर होगा और भारत फिर वही महाभारत होगा। फिर वहीं दंगा फसाद।
हमारे लिए चिंता का सबब है कि हमारे सबसे अजीज कलाकार शाहरुख खान को पाकिस्तानी बताया जा रहा है और उनकी हिफाजत का चाकचौबंद इतजाम करना पड़ रहा है। यही असुरक्षा लेकिन गर्म हवा है। सथ्यु की फिल्म गर्म हवा।
पलाश विश्वास
बिहार से फैसला आने वाला है। हो सकता है कि सिपाहसालार और अश्वमेधी घोड़ों और सांढ़ों की उधमी उछलकूद फेल हो जाये और बिहार की जनता का फैसला केसरिया सुनामी के खिलाफ हो जाये। चाणक्य टीवी चैनल ने ऐसी ही भविष्यवाणी की है। हमें तो धर्म या जाति की अस्मिता में से किसी को चुनकर गुलामी की जिंदगी नर्क करने की आदत है। यह आदत बदलनी चाहिए। तूफां खड़ा करना मकसद नहीं हमारा, हालात ये हर हाल में बदलने हैं।
‘गर्म हवा’ का आरंभ फिल्म को सही परिप्रेक्ष्य देता है। कास्टिंग रोल में आजादी का साल 1947 बताने के बाद भारत का अविभाजित नक्शा उभरता है। सबसे पहले महात्मा गांधी की तस्वीर आती है। फिर माउंनबेटेन और लेडी माउंटबेटेन के साथ महात्मा गांधी दिखते हैं। आजादी के संघर्ष में शामिल पटेल, नेहरू, जिन्ना की तस्वीरों के बाद पर्दे पर सत्ता हस्तांतरण की तस्वीरें, लाल किले से नेहरू का संबोधन, हर्ष और उल्लास की छवियों के बीच देश के विभाजित नक्शे को हम देखते हैं।
हमें किसी किस्म की भविष्वाणी का भरोसा नहीं है। जैसे हम तंत्र मंत्रयंत्र या तिलिस्म की परवाह नहीं करते। देश कुरुक्षेत्र है, तो लड़ना ही होगा। इस लड़ाई की आग से बच नहीं सकते। फिजां बदलने के लिए महब्बत हथियार है और आग की दरिया में छलांगा मारना है।
रविवार को नतीजा आ जायेगा। गुजरात के महादंगाई बाजुओं की ताकत तौल रहे हैं कि नतीजा उनके फेवर में हो या खिलाफ, कैसे वे मनुस्मृति शासन और राजकाज के विरोधियों और असहिष्णुता आंदोलन से निपटेंगे, होशियार। वे आगे भी बख्शेंगे नहीं, तेवर देश लें। ग्लोबल ट्रेंड की परवाह नहीं उन्हें, दुनिया को मनुस्मृति बनायेंगे।
बिरंची बाबा हारे तो नीतीश लालू के जाति अस्मिता महागबंधन की जीत होगी और मंडल बनाम कमंडल सिविल वार फिर घनघोर होगा और भारत फिर वही महाभारत होगा। फिर वहीं दंगा फसाद।
गर्म हवा, कुछ भी नहीं बदला। नफरतें वहीं, सियासतें वहीं बंटवारे की, अलगाव और दंगा फसाद वहीं, चुनावी हार जीत से कुछ नहीं बदलता।
हमें फिजां यही बदलनी है!
हमारे लिए चिंता का सबब है कि हमारे सबसे अजीज कलाकार शाहरुख खान को पाकिस्तानी बताया जा रहा है और उनकी हिफाजत का चाकचौबंद इतजाम करना पड़ रहा है।
यही असुरक्षा लेकिन गर्म हवा है। सथ्यु की फिल्म गर्म हवा।
यही मानसिकता लेकिन गर्म हवा है। यही केसरिया सुनामी फिर वही गर्म हवा है। जिसके मुकाबले हम हैं। मिर्जा साहेब आगरा के थे।
मिर्जा साहेब के रोल में हैं इप्टा के बलराज सहनी। इप्टा के एके हंगल और फारुख शेख भी हैं इस फिल्म में।
नवंबर 2014 में चार दशक बाद एक बार फिर से फिल्म ‘गर्म हवा’ रिलीज की गई। यह फिल्म भारत-पाकिस्तान के विभाजन की पृष्ठभूमि पर बनी है। फिल्म विभाजन के समय के आगरा के एक मुस्लिम परिवार की दास्तान बयां करती है। इस फिल्म में मशहूर अभिनेता बलराज साहनी ने मुख्य किरदार सलीम मिर्जा की भूमिका निभाई, वहीं ए. के. हंगल और फारुख शेख भी फिल्म में अन्य मुख्य किरदार में दिखाई दिए हैं।
आगरा और इस देश के तमाम कस्बों शहरों में देशी उद्योग धंधे के लिए तबाही का आलम तबसे है।
ऋत्विक घटक ने तीन फिल्में भारत विभाजन के माहौल और असर पर बनायी। 1960 में मेघे ढाका तारा, 1961 में कोमल गांधार और 1962 में सुवर्णरेखा। बांग्ला में यह भारत विभाजन के शिकार पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों की कथा व्यथा है। जो हमारा भोगा हुआ यथार्थ है।
हमने इससे पहले कोमल गांधार का फ्रेम टु फ्रेम विश्लेषण पर वीडियो जारी किया है।

हालात इस लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष देश के ये है कि साझा चूल्हे सारे के सारे ठंडे हो गये हैं।
हिंदुओं की हिम्मत नहीं होती कि किसी मुस्लिम इलाके में बसेरा डालें और न मुसलमानों की हिम्मत होती है कि वे अपने दड़बों से बाहर निकलकर हिंदुओं के बीच रहें।
हालात ये है कि भरतीय सिनेमा के सबसे लोकप्रिय स्टार शाहरुख खान असहिष्णुता के खिलाफ बोलने के लिए भारी संकट में है और उनके खिलाफ पाकिस्तानी होने का फतवा जारी कर दिया गया है।
अब जाति धर्म वर्ग वर्चस्व की सत्ता उनकी हिफाजत के लिए चोकचौबंद इंतजाम कर रह है।
गर्म हवा देखना इसलिए जरूरी है कि गांधी की हत्या के बाद सरहदों के आरपार जो कयामत का सिलसिला जारी था वह अब भी जारी है। तब भी गैरहिंदुओं के लिए हिंदुस्तान में जगह नहीं थी, आज भी जगह नहीं है। जिनने पाकिस्तान आंदोलनचलाया, लेकिन जिनने पाकिस्तान कारिज करके हिंदुस्तानी बनकर रहने का फैसला किया है, वे भी उतने ही इंसान हैं, जितने हम हैं।
फिल्म फाइनेंस कॉरपोरेशन के सहयोग से साल 1973 में बनी यह फिल्म आजादी के बाद पहली बार विभाजन की विकृतियों को उभारती है।
वे भी उतने ही हंदुस्तानी हैं, जितने हम हैं। पाकिस्तान जिनने बनाया, उनने लेकिन नहीं बनाया। लेकिन हम लगातार सन सैंतालीस से देश के गैरहिंदुओं को इसकी सजा देने पर आमादा है।
पाकिस्तान बना तो क्या इसकी सजा हम अमन चैन, कायनात को देंगे और कयामत को गले लगायेंगे ?
पाकिस्तान बना तो क्या इसकी सजा हम मुहब्बत को देंगे, ख्वाबों को देंगे, उम्मीदों को देंगे, तयकर लीजिये!
हम सिखों को जिंदा जला चुके हैं और हम मुसलमानों को जिंदा जला रहे हैं।
हम दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों का कत्लेआम खामोश देख रहे हैं।
अब हम किस किसका कत्लेआम करेंगे?
रिजर्वेशन और कोटे के बावजूद कितने मुसलमान नौकरियों, कारोबार और उद्योग धंधे में है?
कितन मुसलमान सेना और अर्द्धसैनिक बलों में हैं?
कितने मुसलमान पुलिस में हैं?
फिर भी हम मुसलमानों को तमाम मसलों और मुद्दों की वजह मानते हैं क्योंकि पाकिस्तान बना और हम कतई नहीं जानते कि पाकिस्तान बनाने के गुनाहगार मुसलमान नहीं, जमींदारियां और रियासतें बचाने के लिए बना हिंदुत्व का गठबंधन है, उनका मजहबी सियासत, सियासती मजहब और मनुस्मडति शासन है। चुनाव नतीजे चाहे जो हो, जो भी चाहे हुकूमत में हो, जनादेश चाहे किसी को मिला हो, सनसैतालीस से यह आलम नहीं बदला है।
यही गर्म हवा है।
जाति धर्म अस्मिता के ध्रुवीकरण की जीत या हार से कुछ नहीं बदलेगा, जैसे आज तक कुछ नहीं बदला है, जब तक न हम देश दुनिया जोड़ ने लें।
डा.शेखर पाठक के पद्म श्री लौटाने के बाद हमारे लिए सबसे खुशी की बात है कि हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने देश दुनिया जोड़ने की हमारी मुहिम का समर्थन किया है और नैनीताल का गिरदा गैंग हमारे साथ हैं। कोलकाता से नैनीताल और कुमायूं कीयात्रा पर गये कोलकाता के प्तरकारों ने एक बेहतरनी फिल्म पहाड़ों, झीलों, घाटियों और जंगल पर बनायी है, जिसमें हमारे जयनारायण प्रसाद, हमारे साथी सहकर्मी खास हैं। उनका वीडियो भी हम जारी करेंगे।
कल अरुंधती राय जिनने मैसी साहेब की हिरोइन का रोल भी किया है, जिन्हें बुकर पुरस्कार मिला है, जिनने नियमागिरि पहाड़ को पूजने वाले कौंध आदिवासियों की बेदखली के खिलाफ आवाज उठायी और सलवा जुड़ुम के खिलाफ जो जंगल जंगल भटकी, जिनने हाल में भारत के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो बाबासाहेब के जाति उन्मूलन वाले आलेख को नये सिरे से अपनी प्रस्तावन के साथ जारी किया है, अब असहिष्णुता विरोधी देश जोड़ो, दुनियाजोड़ो आंदोलन के मोर्चे पर हैं।
कल अरुंधति ने भी अपना पुरस्कार लौटा दिया। कल 24 फिल्मकारों, कलाकारों ने असहिष्णुता के खिलाफ अपने राष्ट्रीय पुरस्कार लौटा दिये। जिनमें कुंदन शाह और सईद मिर्जा जैसे फिल्मकार भी शामिल हैं।
इससे पहले दिवाकर बंदोपाध्याय और आनंद पटवर्द्धन की अगुवाई में 12 पिल्मकारों ने पुरस्कार लौटाये हैं। फिलहाल भारतीय फिलमों से 36 लोगों ने पुरस्कार लौटा दिये हैं। दूसरी तरफ साहित्य अकादमी के पुरस्कार और पद छोड़ने वाले कम से कम 42 लेखक और कवि हैं। कलाकारों ने भी पुरस्कार लौटाये हैं।
शुरुआत हिंदी के कवि उदय प्रकाश ने की। यह हमारा गर्व है। 150 देशों का विवेक हमारे साथ है और राष्ट्र का विवेक बोल रहा है। कारवां लगातार लबा होता जा रहा है। किसी की हार जीत से हमारे लिए उम्मीत की बात यही है और बदलाव की पकी हुई जमीन भी यही है।
भयानक असुरक्षाबोध है। असुरक्षा हमारी राष्ट्रीयता है, असुरक्षा हमारी मानसिकता है। असुरक्षित हैं अल्पसंख्यक तो बहुसंख्यक भी असुरक्षित है। मजहबी सियासत और सियासती मजहब की मचायी तबाही का यह आलम है। इसे अब बदलना ही होगा।
सेनसेक्स की दशा हाजतरफा का संकट है। सेनसेक्स निफ्टी में तहलका है बिरंची बाबा की हार के दहशत से।
राजन नारायणमूर्ति, अरुण शौरी जैसे लोगों की चिंता भारतीयजनता के जीवन मरण को लेकर नहीं है और न वे इस कयामत के मंजर को लेकर फिक्र मंद हैं क्योंकि वे भी महाजिन्न और कारपोरेट वकील के संग संग हैं। थोड़ा हैरतशुदा और दंग हैं बजरंगी ब्रिगेड के हुड़दंग से जो सारा खेल फर्रूखाबादी का काम तमाम करने पर आमादा हैं।
मूडीज की भी चिंता यही है कि कंहीं मुक्त बाजार का ही अंत न हो जाये क्योंकि बिना अमन चैन के निवेशकों की आस्था न अटल रह सकती है और न अबाध पूंजी प्रवाह संभव है और न कायदा कानून बदलने के लिए अनिवार्य सर्वदलीय सहमति संभव है।
उनके यही सरोकार यही हैं, खुशफहमी न रहें कि संपूर्ण निजीकरण और संपूर्ण विनिवेश के प्रवक्ता नये सिरे से रिफार्मेट हो गये हैं।
सत्यजित राय ने इस फिल्म के बार में लिखा है, ‘विषयहीन हिंदी सिनेमा के संदर्भ में ‘गर्म हवा’ ने इस्मत चुगताई की कहानी लेकर दूसरी अति की। यह फिल्म सिर्फ अपने विषय की वजह से मील का पत्थर बन गई, जबकि फिल्म में अन्य कमियां थीं। सचमुच, इस फिल्म में तकनीकी गुणवत्ता और बारीकियों से अधिक ध्यान कहानी के यथार्थ धरातल और चित्रण पर दिया गया। सथ्यू की ‘गर्म हवा’ पहली बार विभाजन के थपेड़ों का हमदर्दी और स्पष्ट दृष्टिकोण के साथ पर्दे पर पेश करती है।
‘गर्म हवा’ के निर्माण के बाद आरंभ में इसे सेंसरशिप की मुश्किलों से गुजरना पड़ा। सेंसर बोर्ड के अधिकारियों की राय थी कि ऐसे विषय से हम बचें। इसके विपरीत फिल्मकार और सचेत सामाजिक एंव राजनीतिक कार्यकर्ता विभाजन के बाद से दबे विषयों पर बातें करने के लिए तत्पर थे। छह महीनों तक फिल्म अटकी रही। दिल्ली में फिल्म के पक्ष में समर्थन जुटाने की कोशिश में राजनीतिक हलकों और सांसदों के बीच फिल्म का प्रदर्शन किया गया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सूचना प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल की पहल और समर्थन से फिल्म सेंसर मुक्त हुई और दर्शकों के बीच पहुंची।