आखिरकार, राज्यपाल ने दस्तखत कर दिए और इस तरह गुजरात हमारे देश का ऐसा पहला राज्य बन गया है जहां, चाहे फिलहाल स्थानीय निकायों के स्तर पर ही सही, मतदान करना ‘अनिवार्य’ हो गया है। इसी के दूसरे पहलू के तौर पर, मतदान न करना ‘अपराध’ बना दिया गया है। बेशक, अभी तक यह तय नहीं किया गया है कि इस ‘अपराध’ की क्या या कैसी सजा होगी? फिर भी, अगर लगातार पांच बरस की लड़ाई के बाद यह कानून बनवाने में कामयाब हुई गुजरात की भाजपा सरकार अपनी इस कामयाबी को यूं ही अकारथ नहीं होने देना चाहती है, तो उसे अगले ही साल होने जा रहे स्थानीय निकाय चुनावों से पहले-पहले, इस जुर्म की ‘सजाओं’ का प्रावधान भी करना होगा। कहना मुश्किल है कि क्या आनंदी बेन की सरकार, इस कानून को अमल में लाने के लिए, अपनी पूर्ववर्ती नरेंद्र मोदी सरकार जितनी ही उत्सुक होगी।
‘चुनाव’ और ‘अनिवार्यता’ का विरोधी होना स्वयंसिद्ध है। इसका अर्थ यह है कि हरेक अनिवार्यता, चुनाव की जनतांत्रिक गुंजाइश को कुछ न कुछ घटाती है, उस पर कुछ न कुछ अंकुश लगाती है। स्वाभाविक रूप से मतदान को ऐसा ‘अनिवार्य कर्तव्य’ बनाना, जिसका पालन न करना अपने आप में एक ‘अपराध’ माना जाएगा, जनतंत्र तथा जनतांत्रिक चुनाव में निहित व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश के रूप में एक कीमत बसूलता है। 2009 में पहली बार जब गुजरात की नरेंद्र मोदी की सरकार ने गुजरात लोकल अथॉरिटीज़ लाज़ (अमेंडमेंट) बिल पेश किया था, खासतौर पर उसके बाद से हमारे देश में भी विभिन्न स्तरों पर इस पर काफी चर्चा हुई है कि यह जनतंत्र के लिए फायदे का सौदा है या नुकसान? यह सिर्फ संयोग ही नहीं है कि भाजपा शायद ऐसी अकेली महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टी है, जो कानून के जरिए मतदान को अनिवार्य किए जाने को जरूरी समझती है। यह दूसरी बात है कि भाजपा के नेताओं में भी मोदी के अलावा एक आडवाणी ही हैं जो ऐसे कानून की बढ़-चढक़र वकालत करते रहे हैं।
दूसरी ओर, अगर गुजरात की तत्कालीन राज्यपाल, कमला बेनीवाल ने एक नहीं दो-दो बार उक्त विधेयक, विधानसभा को लौटाया था, तो यह सिर्फ एक कांग्रेसी राज्यपाल द्वारा उसके कामों में टांग अड़ाए जाने का मामला नहीं था, जैसाकि तत्कालीन भाजपा सरकार प्रचारित कर रही थी। इसके विपरीत, अपने कार्यकाल में भाजपा सरकार द्वारा पारित अधिकांश विधेयकों का अनुमोदन करने के बावजूद, अगर तत्कालीन राज्यपाल ने इस विधेयक को नापास किया था, तो इसीलिए कि राज्यपाल की नजरों में यह व्यक्ति की ‘स्वतंत्रता’ के संविधानप्रदत्त बुनियादी अधिकार के खिलाफ जाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि राज्यपाल का अनुमोदन भी इसकी कोई गारंटी नहीं है कि उक्त कानून की संवैधानिक वैधता को ही आगे कोई चुनौती नहीं दी जाएगी।
इसके कारण खोजना भी मुश्किल नहीं है। जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा-79 (डी) में बिल्कुल स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मतदान के अधिकार में, मत देने के अधिकार के साथ ही साथ, मत न देने का अधिकार भी शामिल है। भारत के चुनाव आयोग ने, जो जनप्रतिनिधित्व कानून से ही निर्देशित होता है, कम से कम इतना तो साफ कर ही दिया है कि गुजरात से हुई उक्त शुरूआत को, स्थानीय निकायों के चुनाव से आगे, विधानसभा आदि के चुनाव के स्तर तक ले जाना आसान नहीं होगा। पूर्व-मुख्य चुनाव आयुक्त, एस वाइ कुरैशी ने तो साफ-साफ शब्दों में कहा भी है कि, ‘‘जनतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अनिवार्यता, साथ-साथ नहीं चल सकते हैं।’’
बेशक, मतदान अनिवार्य बनाए जाने का विचार कोई नया नहीं है। मौलिक तो हर्गिज नहीं है। वास्तव में पश्चिमी योरप में बेल्जियम जैसे देशों ने उन्नीसवीं सदी में ही इस तरह के तजुर्बों की शुरूआत कर दी थी। इसके बावजूद, आज स्थिति यह है कि दुनिया भर में मुश्किल से 22 देशों में किसी भी रूप में अनिवार्य मतदान का कानून है और इनमें से भी सिर्फ 11 देश हैं जहां इस कानून को लागू कराने के लिए वाकई प्रयास किया जाता है। चिली, फिजी, नीदरलेंड्स तथा वेनेजुएला ने हाल के वर्षों में ही बाकायदा इस अनिवार्यता से हाथ खींचा है। यह अकारण भी नहीं है। इस कानून का पालन सुनिश्चित करना भी अपने आप में काफी महंगा सौदा है। एक अनुमान के अनुसार, आस्ट्रेलिया में मतदान न करने पर 50 डालर का जो जुर्माना लगता है, उसे लागू कराने पर पूरे 5 हजार डालर का खर्चा आता है!
बात सिर्फ इतनी नहीं है कि सबसे बढक़र राष्ट्रवादी होने की दावेदार भाजपा, इस मामले में योरप का अंधानुकरण करने के रास्ते पर चल रही है। इस अनुकरण में एक अंधता यह भी है कि यह अनुकरण तब किया जा रहा है, जब खुद योरप अपने अनुभव से सीखकर इस तजुर्बे से पीछा ही छुड़ाता जा रहा है। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर डैमोक्रेसी एंड इलैक्टोरल असिस्टेंस का तो स्पष्ट कहना है कि अनिवार्य मतदान की व्यवस्था खुद पश्चिमी योरप में एक ‘‘खत्म होती हुई परिघटना’’ है। सही कहा है-नकल के लिए भी अकल की जरूरत होती है।
संघ-भाजपा का बुनियादी मिजाज़ एकाधिकारवादी है। सिर्फ वामपंथ ही नहीं बल्कि बाकी अधिकांश राजनीतिक ताकतों के भी विरोध के बावजूद, वे अगर मतदान की इस अनिवार्यता के संदिग्ध लाभों के नाम पर, वोट देने न देने की बुनियादी स्वतंत्रता पर ही तलवार चलाने के लिए उत्सुक हैं, तो इस पहल के मंतव्य और संदिग्ध हो जाते हैं। लालकृष्ण आडवाणी इसी अप्रैल में यह सुझा चुके थे कि वोट न डालने के अपराध की ‘सजा’ के तौर पर, यह अपराध करने वाले का मताधिकार ही छीना जा सकता है! कहीं यह जनता के संभावित असंतोष को ही ‘अपराध’ बनाकर, जनतांत्रिक प्रक्रिया से बाहर ही कर देने का खेल तो नहीं है? आखिर, ‘नोटा’ की ही तरह वोट न देना भी तो, एक हद तक लोगों के असंतोष की अभिव्यक्ति है। चुनाव में जनता की भागीदारी बढ़ाने के नाम पर, जनता के असंतोष की अभिव्यक्ति को ही ‘अपराध’ बनाकर, उसे जनतांत्रिक चुनाव के दायरे से ही बाहर किए जाने की इजाजत कैसे दी जा सकती है?
कानून बनाकर मतदान का अनिवार्य किया जाना, जनता की कम हिस्सेदारी की बीमारी की दवा नहीं, जनतंत्र के लिए जहर है। हां! यह जहर धीमा जरूर है। इसीलिए और ज्यादा खतरनाक भी है।
0- राजेंद्र शर्मा
राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।