गुमनामी बाबा, नेता जी थे क्या?
गुमनामी बाबा, नेता जी थे क्या?
फैजाबाद। उधर कोलकाता में पश्चिम बंगाल सरकार ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस से जुड़ी 64 फाइलें सार्वजनिक कीं और इधर फैजाबाद में गुमनामी बाबा के समर्थक उनके तीस साल पुराने जिन्न को एक बार फिर बोतल से बाहर निकाल लाये और प्रयत्न करने लगे कि बाबा से जुड़ी उनकी भावनाओं की तुष्टि के लिए तथ्यों से परे जाकर मान लिया जाये कि बाबा के रूप में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ही यहां लम्बे समय से अज्ञातवास पर थे, जिनका 1985 में 16 सितम्बर को निधन हो गया। दुर्भाग्य से ज्यादातर ज्ञात तथ्य, यहां तक कि इन समर्थकों का अंतर्विरोधी रवैया और परस्परविरोधी दावे भी, इसकी गवाही नहीं देते।
गुमनामी बाबा 1972-73 में कभी अयोध्या के समीप स्थित दर्शननगर नामक बाजार के ‘शंकर निवास’ में आये, जहां कहते हैं कि उन्हें पड़ोसी जिले की बांसी रियासत के पूर्व नरेश का ‘सशस्त्र’ संरक्षण प्राप्त था। रहस्यमय गतिविधियों के कारण, इस संरक्षण के बावजूद उनकी ‘शंकर निवास’ के पड़ोसियों से नहीं बनी और उन्हें अयोध्या की हनुमानगढ़़ी के पास स्थित रामकिशोर नाम के पंडे के छोटे से घर में शरण लेनी पड़ी। उनके पास 20-22 बड़े ट्रंक थे जो उस छोटे घर में सुभीते से समाते नहीं थे।
इस असुविधा के मद्देनजर 15 जनवरी, 1975 को उनके सेवकों ने उनके लिए ब्रह्मकुंड गुरुद्वारे के पास सरदार गुरुबख्श सिंह सोढ़ी का अपेक्षाकृत बड़ा मकान किराये पर लिया। वहां किराये के भुगतान को लेकर विवाद हुआ तो सोढ़ी ने उन्हें दो-दो बार फैजाबाद के सिविलजज की अदालत में घसीटा। दोनों मुकदमों में उन्हें गुरुदेव स्वामी उर्फ भगवन जी कहकर सम्बोधित किया और उनकी ‘संदिग्ध गतिविधियों’ को लेकर उनके आइडेन्टीफिकेशन के लिए पुलिस को भी अर्जियां दीं।
पुलिस अधीक्षक ने एक सीआईडी इंस्पेक्टर को बाबा के आइडेंटीफिकेशन की जिम्मेदारी भी सौंपी, लेकिन आइडेंटीफिकेशन हो पाता, इससे पहले अयोध्या के तत्कालीन कोतवाल जालिम सिंह अज्ञात कारणों से बाबा की तरफ से उलटे सोढ़ी को ही धमकाने व उत्पीड़ित करने लगे।
15 मई, 1978 की रात बाबा ने सोढ़ी का मकान खाली करके अयोध्या की सब्जीमंडी के बीचोबीच स्थित लखनउवा मंदिर को अपना निवास बनाया, जहां एक नये विवाद के बाद पत्रकार डॉ. वीरेन्द्रकुमार मिश्र ने बाबा से अपनी सुरक्षा को खतरा बताकर पुलिस अधीक्षक से शिकायत की और उनकी रहस्यमयता का सच उजागर करने का अनुरोध किया।
बाबा के साथ शुरू से ही उनकी एक सेविका हुआ करती थीं, जिनका नाम यों तो सरस्वती देवी शुक्ला था, लेकिन वे उन्हें जगदम्बे कहते थे। जगदम्बे बस्ती के निवासी और अपने लोगों के बीच साहित्यकार की छवि से मंडित पंडित महादेव प्रसाद तिवारी की विवाहित पुत्री थीं, पूरी तरह अनपढ़, सो बाबा के ज्यादा काम की। कुछ लोगों के अनुसार जगदम्बे का सम्बन्ध नेपाल के राजपरिवार से भी था। बाबा अपने अन्य सेवक एक निश्चित अंतराल पर बदलते रहते थे।
चूंकि अयोध्या में गुमनामी बाबा जैसे बाबाओं की बहुतायत है, इसलिए उनकी दिनचर्या में आम तौर पर किसी को भी ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी। भले ही वे जहां भी रहते, अपने चारों ओर एक रहस्यमय आवरण बनाये रखते और किसी से मिलते-जुलते नहीं थे।
1985 में 16 सितम्बर को रात साढ़े नौ से दस बजे के बीच अंतिम सांस लेने से दो तीन साल पहले पहले बाबा लखनउवा मंदिर छोड़कर अयोध्या के जुड़वा शहर फैजाबाद के सिविल लाइंस क्षेत्र के रामभवन में रहने लगे थे। अंतिम समय में सरस्वती देवी शुक्ला उर्फ जगदम्बे के अलावा पुरुष परिचारक कृष्ण गोपाल श्रीवास्तव भी उनके पास थे। उनकी मृत्यु के तुरंत बाद से ही उनके सेवक उनकी सम्पत्ति व विरासत पर कब्जे को लेकर आपस में झगड़ने लगे थे। इस चक्कर में उनके निवास पर तीन-तीन सेवकों ने अपने ताले बंद किये थे।
दावा किया जाता है कि बाबा के जीवित रहते हर 23 जनवरी को कोलकाता से कुछ खास लोग नेता जी का जन्मदिन मनाने उनके पास आतेे थे। लेकिन उनकी मृत्यु की सूचना भेजने पर उनमें से कोई उनके अंतिम दर्शन करने या अंतिम संस्कार में हिस्सा लेने नहीं आया। दो दिन तक निराश प्रतीक्षा के बाद गुप्तारघाट पर बाबा की अंत्येष्टि की गयी तो उनके शव से दुर्गंध आ रही थी।
दरअस्ल, एक खास समूह ने बाबा के निवास से नेताजी से जुड़ी या उनकी बताई जाने वाली अनेक वस्तुएं मिलने के बहाने जनभावनाओं का दोहन करके उन्हें नेताजी प्रचारित करने की अपनी कोशिशें इस सबके कोई डेढ़ महीने भर बाद खासे योजनाबद्ध ढंग से शुरू की थीं। इन कोशिशों में ‘रामभवन’ के वे मालिक सबसे आगे थे, जो फैजाबाद के बहुचर्चित भूतपूर्व सिटी मजिस्ट्रेट गुरुदत्त सिंह के वंशज भी हैं।
प्रसंगवश, गुरुदत्त सिंह ने, जिनकी सेवानिवृत्ति में तब कुछ ही दिन बाकी थे, देश के विभाजन के बाद के 22-23 दिसम्बर, 1949 को तत्कालीन जिलाधिकारी के.के. नैयर के साथ मिलकर अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद में भगवान राम को ‘प्रगट’ कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
उनके वंशजों ने समझा था कि गुमनामी बाबा को नेता जी प्रचारित करना बाबरी मस्जिद में भगवान राम को प्रगट करने से कहीं ज्यादा आसान होगा। इसके दो कारण थे। पहला यह कि अभी भी देश में तमाम लोग हैं जो नेता जी के विमान दुर्घटना में निधन की खबर को सही नहीं मानते। अब उक्त 64 फाइलों के हवाले से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी ऐसे ही संकेत दिये हैं। दूसरा यह कि गुमनामी बाबा की हस्तलिपि नेताजी की हस्तलिपि जैसी ही लगती थी और उनके निवास से मिला नेताजी से सम्बन्धित सामग्री का जखीरा वाकई आश्चर्यजनक था। मसलन-नेता जी जैसे गोल शीशे वाले सुनहरे फ्रेम के मेड इन जर्मनी चश्मे, रोलेक्स जेब घड़ी, फाउंटेनपेन, दूरबीन, 555 ब्रांड की सिगरेटें, विदेशी शराब, आजाद हिन्द फौज की वरदी, उसके गुप्तचर विभाग के प्रमुख पवित्र मोहन राय के बधाई संदेश, नेता जी के माता-पिता व परिजनों, उनके कोलकाता के जन्मोत्सवों और लीला राय की मौत पर हुई शोकसभाओं की दुर्लभ निजी तस्वीरें, जर्मन, जापानी व अंग्रेजी साहित्य की अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें, 1974 में कोलकाता के दैनिक ‘आनंद बाजार पत्रिका’ में 24 किस्तों में प्रकाशित रिपोर्ट ‘ताइहोकू विमान दुर्घटना एक बनी हुई कहानी’ की कतरनें, भगवन जी को सम्बोधित अनेक पत्र व तार, नेता जी के लापता होने की गुत्थी सुलझाने के लिए गठित शाहनवाज व खोसला आयोगों की रपटें, हाथ से बने नक्शे, जिनमें उस स्थल को इंगित किया गया था, जहां कथित विमान दुर्घटना में नेता जी का निधन हुआ। इनके अतिरिक्त नेताजी के बारे में देश-विदेश के समाचार पत्रों छपी अनेकानेक खबरों व रिपोर्टों की कतरनें। बाबा के बारे में प्रचारित था कि वे जिसे भी देते हैं, नये करारे नोट ही देते हैं और अपने नजदीकी लोगों से कहा करते हैं कि ‘इस देश के रजिस्टर से मेरा नाम काट दिया गया है।’
लेकिन बाबा को नेताजी बताने वालों को तब बहुत जोर का झटका लगा, जब आजाद हिन्द फौज के गुप्तचर विभाग के प्रमुख रहे पवित्रमोहन राय तक ने उन्हें नेताजी मानने से साफ इनकार कर दिया। कोलकाता में एक वरिष्ठ सम्पादक से बातचीत में उन्होंने उलटे खीझकर प्रतिप्रश्न कर डाला कि फैजाबाद में नेताजी का निधन हो जाता और वे उनके अंतिम दर्शन या अंतिम संस्कार के लिए वहां जाने के बजाय कोलकाता में रहकर इस तरह हंस-हंसकर उनसे बात कर रहे होते? राय के अनुसार वे नेताजी के जीवित होने की उम्मीद लिए अनेक जगहों पर उनको तलाशने जाते रहे हैं। गुमनामी बाबा के पास भी गये थे। लेकिन वे उन्हें पल भर के लिए भी नेता जी नहीं लगे। यह पूछे जाने पर कि बाबा के पास नेताजी से जुड़ी अनेक वस्तुओं का जखीरा कहां से आया? राय ने कहा कि बहुत संभव है कि बाबा ऐसी चीजों के संग्रह के शौकीन रहे हों, लेकिन ‘वे और जो भी हों, नेता जी कतई नहीं हैं।’ चूंकि इन वस्तुओं के बाबा के पास होने का पता उनके देहांत के 45 दिन बाद चला था, इसलिए फैजाबाद में भी कई लोग अंदेशा जताते हैं कि वे बाद में वहां रखी गयी हो सकती हैं।
आगे चलकर नेताजी के लापता होने की तिबारा जांच के लिए गठित मुखर्जी आयोग ने भी गुमनामी बाबा को नेताजी मानने से इनकार कर दिया, तो इसके अनेक कारणों में से एक यह था कि बाबा और नेता जी की एक जैसी दिखने वाली हस्तलिपि प्रयोगशालाओं में तीन तीन बार की गयी फोरेंसिक जांच में एक नहीं सिद्ध हुई। दो जांचों में दोनों हस्तलिपियों के अक्षरों के स्ट्रेस व स्ट्रक्चर में बहुत फर्क मिला, जबकि तीसरी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी।
गुमनामी बाबा को नेताजी मानने वालों के पास कई महत्वपूर्ण सवालों के जवाब नहीं हैं। खासकर इस सवाल का कि गुमनामी बाबा नेताजी थे और अज्ञातवास के बावजूद कई लोगों को इसकी जानकारी थी, तो उन्होंने देहांत के बाद उनकी गरिमा के अनुरूप अंतिम संस्कार के जतन क्यों नहीं किये? किसने और क्यों उनकी पहचान मिटाने के लिए किसी रसायन से उनके शव का चेहरा विकृत कर डाला और कौन लोग थे जिन्होंने पुलिस को इस अपराध की सूचना तक नहीं दी?
कौन से कारण थे कि बाबा के सेवकों ने उनकी मौत के बाद भी जनसामान्य को उनके दर्शन की अनुमति नहीं दी और इसे लेकर आपस में झगड़ते रहे? नेताजी के इतने निरीह भाव वाले अज्ञातवास की बात उनके ऐतिहासिक शौर्य, पराक्रम और स्वभाव से मेल नहीं खाती। कितने भी विषम हालात में वे यों छिपछिपाकर दिन काटने के बजाय बाहर निकलकर चुनौतियों का सामना करते। खासकर तब, जब देश में अभी भी उनके प्रति असीम समर्पण की भावना है। लेकिन एक पल को उनका अज्ञातवास स्वीकार भी कर लिया जाये तो उनकी मृत्यु के बाद उसको रहस्य बनाये रखकर किस उद्देश्य की प्राप्ति की जा रही थी?
नेताजी के नजदीकी जिन खास लोगों के हर 23 जनवरी को गुमनामी बाबा से मिलने आने का दावा किया जा रहा था, वे उनकी मृत्यु के बाद अन्त्येष्टि या अंतिम दर्शन के लिए फैजाबाद क्यों नहीं आये?
सच यह है कि 16 सितम्बर, 1985 को हुई बाबा की ‘अननोटिस्ड’ मौत के बयालीस दिन बाद कुछ लोगों द्वारा उनके नेताजी होने का दावा किया जाना अचानक तब शुरू हुआ, जब फैजाबाद के दैनिक ‘नये लोग’ ने, जो अब बंद हो चुका है, प्रसार की अनैतिक स्पर्धा में अपने प्रतिद्वंद्वियों पर बढ़त बनाने के लिए अपने 28 अक्टूबर, 1985 के अंक में पहले पृष्ठ पर खासी अहमियत से उनके नेता जी होने की सनसनी से जोड़कर छापा और दावा किया कि बाबा के सेवक ही उनके नेता जी होने के सबूत नष्ट करने पर आमादा हैं। इसके बाद भी यह महीनों तक बाबा के सुभाषचंद्र बोस होने का प्रचार करता रहा।
बाद में इस दैनिक के सम्पादक अशोक टंडन ने ‘गुमनामी सुभाष’ नामकी पुस्तक भी लिखी, जिसके कुछ अंश स्वर्गीय कमलेश्वर के सम्पादन में दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका ‘गंगा’ में धारावाहिक रूप से छपे थे। लेकिन कमलेश्वर ने उनके इस निष्कर्ष को स्वीकार नहीं किया था कि गुमनामी बाबा ही नेता जी थे।
टंडन का दावा है कि उन्होंने बाबा के पास से मिले दो हजार सात सौ साठ सामानों की खासी बारीकी से जांच की है और उनमें से अनेक नेताजी से सम्बन्धित हैं। यह सब सामान अदालती आदेश पर फैजाबाद जिला प्रशासन की निगरानी में रखा है, जिसकी सार-संभाल को लेकर सवाल उठते रहते हैं। अब उच्च न्यायालय के आदेश पर उसे अयोध्या के रामकथा संग्रहालय में रखे व प्रदर्शित किये जाने की बात चल रही है।
फैजाबाद में जानकार लोग कहते हैं कि इस मामले में महज इतनी जांच बाकी है कि गुमनामी बाबा को नेताजी के रूप में प्रचारित करने के पीछे किनका और कौन-सा षडयंत्र था? दुर्भाग्य से सरकारों या कि प्रशासनों की ऐसी कोई जांच कराने में दिलचस्पी नहीं है और फैजाबाद में संघ परिवार के संगठन इस मामले को जोर-शोर से उठा रहे हैं। लगता है कि पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव में लाभ की उम्मीद से वे किसी न किसी तरह इस मामले को गरमाये रखना चाहते हैं। दूसरी ओर ममता बनर्जी ने नेताजी से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करके गेंद मोदी सरकार की मार्फत उन्हीं के पाले में डाल दी है। अब मोदी सरकार पर दबाव होगा कि वह भी अपने पास की नेताजी से जुडी फाइलें सार्वजनिक करे।
लेकिन फैजाबाद में गुमनामी बाबा के समर्थक सच का सामना करने में कम नेताजी की ही तरह गुमनामी बाबा को भी मिथक बना देने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं। तभी तो वे एक ही सांस में बाबा के ‘अज्ञातवासी होने’, यहां तक कि ‘सेवकों के सामने भी न आने’ और ‘नेता जी के रूप में जाने व पहचाने’ जाने की बात कह रहे हैं। उन्होंने एक चित्रकार को नेताजी का चित्र दिखाकर इस संभावना पर आधारित स्केच बनवा रखा है कि नेताजी वृद्ध होते तो दाढ़ी-मूंछ में कैसे दिखते और अब उसे गुमनामी बाबा का उन्हें पहचानने वालों के बताये अनुसार बना स्केच बताकर प्रचारित कर रहे हैं!
-कृष्ण प्रताप सिंह
कृष्ण प्रताप सिंह, वरिष्ठ पत्रकार हैं।


