ग्लोबलाइजेशन की दोहरी मार झेलती आदिवासी महिलाएँ
ग्लोबलाइजेशन की दोहरी मार झेलती आदिवासी महिलाएँ
निर्मला पुतुल
झारखण्ड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद विकास की जो यहाँ परिकल्पना की गयी थी, वे समय चक्र के परिवत्र्तन के साथ घोर निराशय में परिवर्तित हो गया है। आज यहाँ की महिलाएँ प्रत्येक क्षेत्रा में पिछड़ी हुई है। इनकी कल्याण की बातें न तो सरकार करती है और न ही गैर सरकारी संस्थान। अगर करती भी है तो बस पफाईलों पर ही सिमट कर रह जाती है। जिस तरह से हमारे समाज, परिवारों में यह अवधरणा है कि महिलाओं को सिपर्फ चाहरदीवारी के अन्दर ही अपनी दुनियाँ सीमित रखनी चाहिए। यह सोच और वत्र्तमान सरकार की सोच में किसी प्रकार का कोई अन्तर नजर नहीं आता।
हालांकि इस बात से भी हम इंकार नहीं कर सकते हैं कि आज आदिवासी महिलाएँ पूर्व की अपेक्षा थोड़ी बहुत सशक्त हुई हैं। कुछ हद तक अपने अध्किारों के प्रति सजग हुई है। गौरतलब हो कि घरेलू हिंसा अध्निियम के पारित होने से महिलाओं में यह आशा जगी थी कि उनके प्रति अब अत्याचार कम होंगे। वे अपने आप को सुरक्षित समक्षने लगी थीं। झारखण्ड के परिदृश्य में देखें तो महिलाओं के साथ बलात्कार, दहेज हत्या, मारपीट जैसी घटनाएँ लगातार जारी है। राज्य और राज्यों के बाहरी हिस्सों में भी प्रत्येक दिन महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न, हत्या अर्थात् शारीरिक और मानसिक शोषण जैसी खबरें अखबारों की सुर्खियों में देखने-पढ़ने को मिलती है। झारखण्ड प्रदेश की आदिवासी महिलाएँ अपने पेट की आग को बुझाने के लिए रोजगार की तलाश में दूसरे प्रदेशों जैसे - बंगाल, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, मुम्बई जैसे महानगरों में पलायन करती है। जहाँ इनके साथ हृदय विदारक घटनाएँ घटती है। जिन्हें देख-सुनकर उन शोषकों का घिनौना मासिकता का जीता जागता साक्ष्य प्रस्तुत करता है।
ग्लोबलाइजेशन के इस बढ़ते दौर में शहर से गाँव तक तमाम नीतियों पर कुठाराघात हो रहा है। एक तरपफ शिक्षा नीति का व्यवसायिकरण तो दूसरी तरपफ शारीरिक श्रम का मशीनीकरण। जिसका सीध-सीध प्रभाव छोटे-छोटे घरेलू उद्योग ध्ंधें पर पड़ता है। इससे लोगों में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। जिन लोगों को मुश्किल से यदि काम मिल भी जाता है तो उन्हें उनका उचित पारिश्रमिक नहीं मिल पाता है। परिणाम स्वरूप लोगों का विश्वास विकास की इस अंध्ी दौड़ में उठता जा रहा है। आज अगर हम देखें तो झारखण्ड हो या देश के अन्य दूसरे राज्यों में सभी जगह विकास के नाम पर गरीबों का निवाला छीना जा रहा है। उन्हें अपनी खुद की जमीन से बेदखल होना पड़ रहा है। यदि हम अतीत में जायें तो यह जानकर बड़ा आश्चर्य होगा कि अंग्रेज शोषक होते हुए भी जल, जंगल, जमीन पर आधरित आदिवासियों की जीवन शैली को जानने व समझने की कोशिश करते थे। यहाँ की लोक सभ्यता, संस्कृति एवं परम्परागत कानून की पढ़ाई करनी उनकी अवसर शाही का अनिवार्य विषय था। लेकिन दुर्भायवश स्वतंत्रा भारत में खासकर अनुसूचित क्षेत्रों में भी जहाँ पर शेष भारत से अलग शासन की व्यवस्था का प्रावधन है, वहाँ पर भी ये अपफसरशाह उनकी संस्कृति, रीतिरिवाज को नहीं जानते हैं। इन तमाम बातों पर यदि हम गौर करें तो हम कह सकते हैं कि इस बाजारवाद की अंध्ी दौड़ में आदिवासी समुदाय पूरी तरह से नेस्तनाबूत होती जा रही है।
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