छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, दिल्ली और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में आपस में लड़ मरेंगे काँग्रेसी
शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश के गौतम बुद्ध नगर जिले के एक काँग्रेस नेता का बयान अखबार में पढ़कर अजीब लगा। लगा कि या तो काँग्रेस की संस्कृति में कोई भारी बदलाव आया है या मुकामी काँग्रेसियों को पता लग गया है कि काँग्रेस के बड़े नेताओं के खिलाफ बोलने से कोई नुक्सान नहीं होने वाला है।

नोएडा डेटलाइन की इस खबर में लिखा है कि जिले से पी सी सी सदस्य चौधरी अख्तर खान ने अपनी पार्टी के प्रदेश प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री पर आर एस एस और विश्व हिंदू परिषद जैसी सोच रखने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि श्री मिस्त्री काँग्रेस का प्रभारी बनकर भी नरेन्द्र मोदी के लिये काम कर रहे हैं और उनको प्रधानमंत्री बनवाना चाह रहे हैं। खान का कहना है कि मधुसूदन मिस्त्री इस बहाने गुजरात में अपनी घर वापसी की जगह तलाश रहे हैं।

जो लोग काँग्रेस कल्चर को समझते हैं उनके लिये यह खबर बहुत ही महत्वपूर्ण है। मधुसूदन मिस्त्री राहुल गांधी के बहुत करीबी माने जाते हैं। उनके खिलाफ इस तरह का बयान देने के पहले काँग्रेस के जिला स्तर के नेता ने सौ बार सोचा होगा क्योंकि मधुसूदन मिस्त्री को नाराज़ करने का मतलब काँग्रेस से पत्ता साफ़ होना माना जाता है। उत्तर प्रदेश में काँग्रेस के कुछ और नेताओं ने भी बताया कि मधुसूदन मिस्त्री नरेंद्र मोदी के पुराने साथी हैं। शंकर सिंह वाघेला जब 1977 में कपड़वंज लोकसभा सीट से चुनकर आये थे और नार्थ एवेन्यू के 107 नंबर के फ़्लैट में रहते थे तो नरेंद्र मोदी और मधुसूदन मिस्त्री उनके सबसे करीबी शिष्य माने जाते थे। नरेंद्र मोदी और मधुसूदन मिस्त्री हमेशा साथ साथ रहते थे और नार्थ एवेन्यू के साथ लगे हुये प्रेसिडेंट एस्टेट के ढाबे में साथ- साथ खाना खाते थे। इन खबरों का कोई मतलब नहीं है क्योंकि अब शंकर सिंह वाघेला काँग्रेस के बड़े नेता हैं और नरेंद्र मोदी के खिलाफ काम कर रहे हैं।

लेकिन इन खबरों का महत्व यह है कि आम तौर पर काँग्रेस में बड़े नेता की पसन्द के किसी भी काँग्रेसी की तारीफ़ करने की संस्कृति के बावजूद इस तरह की बातें होना काँग्रेस के लिये अच्छा संकेत नहीं है। उत्तर प्रदेश जैसी हालत अन्य राज्यों की भी है। जिन चार महत्वपूर्ण राज्यों में इस साल विधान सभा के चुनाव होने हैं उनकी हालत भी काँग्रेस के अदूरदर्शी फैसलों के कारण खराब है। साफ़ नज़र आ रहा है कि अगर काँग्रेस ने फ़ौरन सुधारात्मक कार्रवाई नहीं की तो इन चारों ही राज्यों में काँग्रेस के लिये मुश्किल होगी। यह बात सभी जानते हैं कि अगर 2013 के विधानसभा चुनावों में काँग्रेस के उम्मीदवार बड़ी संख्या में हार गये तो नरेंद्र मोदी की लहर बन जायेगी और फिर भाजपा को रोक पाना काँग्रेस के बस की बात नहीं रह जायेगी। नवंबर 2013 में विधानसभा चुनाव वाले राज्यों की राजनीतिक पड़ताल करना दिलचस्प हो सकता है।

छत्तीसगढ़ में काँग्रेस के प्रभारी महासचिव बी के हरिप्रसाद हैं। उनको भी राहुल गांधी का नॉमिनी माना जाता है लेकिन रायपुर में ही एक सार्वजनिक मंच पर छतीसगढ़ के काँग्रेसी नेता, अजीत जोगी ने उनको हड़का लिया था और काँग्रेस आलाकमान के नुमाइन्दे कुछ नहीं कर पाये थे। दिल्ली में अपने कमरे में बैठकर अपने प्रिय पत्रकारों के सामने अजीत जोगी को काँग्रेस से निकलवा देने की बातचीत के अलावा उन्होंने कोई एक्शन नहीं सुझाया था।

इस बात में दो राय नहीं है कि अजीत जोगी छत्तीसगढ़ में काँग्रेस पार्टी के सबसे ताक़तवर नेता हैं और उनको नाराज़ करके काँग्रेस को भारी घाटा होगा। जब काँग्रेस के छतीसगढ़ अध्यक्ष समेत राज्य के कई बड़े नेता माओवादी हमले में मारे गये थे तो काँग्रेस के पक्ष में सहानुभूति की लहर थी लेकिन रायपुर में रहने वाले उन काँग्रेसियों के कारण आज काँग्रेस की स्थिति फिर वही हो गयी है जो पहले थी। अपने छोटे- मोटे काम के लिये काँग्रेसी नेता मुख्यमंत्री रमन सिंह के दरबारी बन जाते हैं और टिकट के लिये अजीत जोगी के अलावा छत्तीस गढ़ का काँग्रेसी किसी पर भरोसा नहीं कर रहा है। दिल्ली से भेजे गये बी के हरिप्रसाद और जयराम रमेश आलाकमान के प्रतिनिधि तो हैं लेकिन उनको भी मालूम है कि अगर अजीत जोगी नाराज़ हो गये तो बहुत मुश्किल होगी और जिन दस सीटों पर अजीत जोगी काँग्रेस को हरा सकते हैं वे भाजपा के खाते में चली जायेंगी।

काँग्रेस की हालत राजस्थान में भी अच्छी नहीं है। वहाँ अशोक गहलोत मुख्यमंत्री हैं। दिल्ली में काँग्रेस के जितने भी बड़े नेता हैं सब उनके खिलाफ हैं। सी पी जोशी, गिरिजा व्यास, सीसराम ओला और सचिन पाइलट, अशोक गहलोत को हटवाना चाहते हैं लेकिन अशोक गहलोत को आलाकमान का आशीर्वाद मिला हुआ है इसलिये वे हटाये नहीं जा रहे हैं। केन्द्र में मौजूद काँग्रेसियों के गुस्से को कम करने के लिये गिरिजा व्यास और सीसराम ओला को केन्द्र में मंत्री बना दिया गया, सी पी जोशी को संगठन में बहुत महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दे दी गयी लेकिन इसका कोई असर होता नहीं दिख रहा है। राजस्थान में अशोक गहलोत के खिलाफ दिल्ली में मौजूद नेता मीडिया के ज़रिये अभियान चला रहे हैं। उधर काँग्रेस को सत्ता से हटाने के लिये व्याकुल वसुंधरा राजे को कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं। वे अशोक गहलोत की असफलता गिनाने के लिये निकल पड़ी हैं। जहाँ भी जा रही हैं जनता उनका स्वागत कर रही है। अब वसुंधरा राजे को उनकी पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह का पूरा समर्थन मिल गया है, हालाँकि इसके पहले भारी नाराजगी थी। राजनाथ सिंह बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये मामूली और निजी नाराजगियों को दरकिनार करने की नीति पर काम कर रहे हैं। वसुंधरा राजे जाति के गणित में भी वे जाटों और राजपूतों में अपनी नेता के रूप में पहचानी जा रही हैं। राजनाथ सिंह के कारण पूरे उत्तर भारत में राजपूतों का झुकाव भाजपा की तरफ है उसका फायदा भी उनको मिल रहा है।

जाटों की राजनीति का अजीब हिसाब है। काँग्रेस ने जाटों को साथ लेने के लिये उसी बिरादरी का अध्यक्ष बना दिया है लेकिन उनकी वजह से काँग्रेस की तरफ उनकी जाति का वोट नहीं जा रहा है। बल्कि उससे काँग्रेस को नुक्सान ही हो रहा है। परम्परागत रूप से भाजपा के मतदाता रहने वाले जाटों को राज्य काँग्रेस के लगभग सभी महत्वपूर्ण पदों पर बैठा दिये जाने के बाद राज्य के राजपूत नेताओं में भारी नाराज़गी है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की राजनीति इस तरह से डिजाइन की गयी है जिससे राज्य में काँग्रेस की हार को सुनिश्चित किया जा सके।

दिल्ली में ज़्यादातर काँग्रेस नेता यह मानकर चल रहे हैं कि अशोक गहलोत अकेले ही चलना चाहते हैं क्योंकि उन्होंने अपनी पार्टी के ज़्यादातर केंद्रीय मंत्रियों को नाराज कर रखा है। सी पी जोशी, सचिन पाइलट, भंवर जीतेंद्र सिंह और लाल सिंह कटारिया उनको कोई समर्थन नहीं दे रहे हैं। महिपाल मदेरणा, ज्योति मिर्धा और शीशराम ओला भी उनसे नाराज़ हैं। लेकिन फिर भी आलाकमान की नज़र में अशोक गहलोत का कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे हैं। यह एक सवाल है। इस सवाल का जवाब तलाशने में काँग्रेस अध्यक्ष के रिश्तेदारों के व्यापारिक कारोबार पर ध्यान जाता है और अशोक गहलोत की कुर्सी की स्थिरता की पहेली समझ में आने लगती है। जहाँ तक रिश्तेदारों की बात है मुख्यमंत्री ने अपने रिश्तेदारों को भी सत्ता से मिलने वाले लाभ को पहुँचाने में संकोच नहीं किया है। जयपुर के स्टेच्यू सर्किल की एक ज़मीन का ज़िक्र बार- बार उठ जाता है जहाँ बन रहे फ्लैटों की कीमत आठ करोड़ रूपये से ज्यादा बतायी जा रही है और खबर यह है कि गहलोत जी के बहुत करीबी लोग उसमें लाभार्थी हैं। एक नेता जी ने तो यहाँ तक कह दिया कि जिस कम्पनी की संस्थागत ज़मीन का लैंडयूज बदल कर इतनी महँगी प्रॉपर्टी बना दिया गया है उसमें मुख्यमंत्री गहलोत का बेटा ही निदेशक है। पत्थर की खदानों का घोटाला भी राजस्थान के मुख्यमंत्री के नाम पर दर्ज है। उस घोटाले को तो टी वी चैनलों ने भी उजागर किया था। बताते हैं कि इस घोटाले में 21 खानें एलाट की गयी थीं जिनमें से 18 मुख्यमंत्री जी के क़रीबी लोगो और रिश्तेदारों को दे दी गयी थीं।

इस साल विधानचुनाव वाले दो अन्य राज्य हैं मध्य प्रदेश और दिल्ली। दिल्ली में काँग्रेस की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने विकास का काम किया है। लेकिन काँग्रेस आलाकमान के फैसलों की रंगत देखिये कि उनको ही कमज़ोर कर दिया गया। काँग्रेस की संचार टीम के प्रमुख अजय माकन कभी शीला दीक्षित के बहुत करीबी माने जाते थे लेकिन अब वे शीला दीक्षित के भारी विरोधी हैं। अजय माकन अब शीला दीक्षित की कुर्सी खुद ही संभालना चाहते हैं। उनको नए संगठनात्मक फेरबदल में बहुत ही अधिक महत्व दे दिया गया है। नतीजा यह हुआ है कि दिल्ली में काँग्रेस के कार्यकर्ता अब निजी लाभ और टिकट आदि के लिये अजय माकन का दरबार करने लगे हैं। यह माना जा रहा है कि शीला दीक्षित का कार्यकाल अपने अंतिम दौर में है। हालाँकि यह बात समझ में नहीं आयी कि काँग्रेस आलाकमान ने शीला दीक्षित को कमज़ोर करने की योजना क्यों बनायी जब कि दिल्ली में पिछले बार की काँग्रेस की जीत के पीछे शीला दीक्षित के पहल से हुये विकास कार्य ही सबसे बड़ा कारण थे। आज दिल्ली में काँग्रेस के खिलाफ भाजपा की सारी ताकत लगी हुयी है, लेकिन काँग्रेस ने अपने उस राज्य को जहां उसे जीत मिल सकती थी, हार की लाइन में लगा दिया है।

मध्यप्रदेश में काँग्रेस को वैसे भी कोई उम्मीद नहीं है। भाजपा नेता और मुख्यमंत्री शिवराज चौहान वहाँ अच्छा काम कर रहे हैं। हर स्तर पर उनकी सरकार की पहल नज़र आती है। अपने सुसराल वालों के कारण और कुछ कुख्यात दलालों से निकटता के कारण उनकी किरकिरी हो चुकी है लेकिन काँग्रेस से उनको कोई चुनौती नहीं मिल रही है। आर एस एस वाले भी शिवराज सिंह चौहान से नाराज़ बताये जाते हैं क्योंकि उन्होंने पूर्व वित्तमंत्री राघवजी के साथ जिस तरह का व्यवहार किया उसे नागपुर वाले पसंद नहीं कर रहे हैं। शिवराज सिंह चौहान, नरेंद्र मोदी को भी इतना महान नहीं मानते जितना आर एस एस वाले मनवाना चाहते हैं लेकिन उनकी भाग्य का कमाल देखिये कि मध्यप्रदेश में काँग्रेस के नेता एकजुट नहीं हैं। कहीं कमल नाथ हैं तो कहीं अजय सिंह हैं। ग्वालियर संभाग में सिंधिया परिवार का प्रभाव माना जाता है लेकिन कमल नाथ अपने आपको सबसे बड़ा काँग्रेसी मानते हैं। वे इमरजेंसी में संजय गांधी के बहुत करीब थे। जनता पार्टी की सरकार गिराने में 1978-79 में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई थी। राज नारायण को लालच देकर उन्होंने ही चौधरी चरण सिंह को कुछ महीनों के लिये प्रधानमंत्री बनवाकर 1980 में काँग्रेस की वापसी का रास्ता साफ़ किया था। उनके ऊपर आर्थिक गड़बड़ियों की तरह- तरह की चर्चा रहती है। लेकिन सबको मालूम है कि आज की सत्ता की राजनीति करने वाली पार्टियों में आर्थिक गड़बडडी का बुरा नहीं माना जाता। अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं और उन्होंने अपने पिताजी की विरासत को सम्भाला है लेकिन ज्योतिरादिय सिंधिया की महत्वाकाँक्षा और राहुल गांधी से उनकी दोस्ती अजय सिंह को आगे नहीं बढ़ने देगी। राष्ट्रीय स्तर पर काँग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने 2003 में मुख्यमंत्री की कुर्सी गँवाने के बाद दस साल के संन्यास की घोषणा की थी और वह दस साल नवम्बर में विधानसभा चुनाव के बाद पूरा होगा। शायद इसीलिये वे राज्य की राजनीति में सीधा हस्तक्षेप नहीं कर रहे हैं। मध्य प्रदेश में भी कुल मिलाकर काँग्रेस की हालत ठीक नहीं है।

ज़ाहिर है अगर काँग्रेस को भाजपा की बढ़ रही रफ्तार को रोकना है तो इन चार राज्यों में उसे सही फैसले और सही लोगों को आगे लाना होगा। अगर अपने आपको भाग्यविधाता ही मानते रहे तो और इन चारों राज्यों में हार गये तो काँग्रेस के सामने मजबूरी होगी कि वह लोकसभा 2014 में भाजपा से छोटी पार्टी बन जायेगी। यह बात समझ में बिलकुल नहीं आती कि कोई सत्ताधारी पार्टी इस सारी जानकारी से अनजान है लेकिन अगर जानबूझ कर काँग्रेस अपनी हार का ताना बाना बुन रही है तो उसको इलाज़ किसी के पास नहीं है।