बात 2010 की है। मैं दैनिक भास्‍कर में था। 'समय' नाम का एक पन्‍ना निकालता था जिसमें समकालीन विषयों पर लेख होते थे। एक दिन हमारे मित्र Navin Kumar ने एक लेख भेजा। मैंने लगा दिया। छप गया। दो दिन बाद सम्‍पादक श्रवण गर्ग ने मेरे वरिष्‍ठ विमल झा को और मुझे केबिन में बुलाया। माथे पर चुहचुहाता पसीना पोंछते हुए बोले, "अब बताइए, मैं क्‍या जवाब दूं? चिदंबरम के ऑफिस से बुलावा आया है इस लेख पर...।" और ऐसा कहते हुए उन्‍होंने अखबार सामने पटक दिया।
चिदंबरम गृहमंत्री थे। एक-एक प्रकाशित सामग्री देखते थे। उन्‍होंने नवीन के लेख का अनुवाद करवा के रख लिया था और अपने पीए से संपादकजी को तलब करवा लिया था। मैंने श्रवणजी से कहा कि यह तो गर्व की बात है किसी हिंदी के अखबार के लिए कि उसके लेख पर सरकार संज्ञान ले रही है, वरना कौन हिंदी को पूछता है।
संपादकजी नाराज़ होकर कुछ बेचारगी में बोले कि अब तो मुझे ही झेलना होगा, आपको जो करना है सो तो आपने कर ही दिया। वे गए, वहां क्‍या हुआ पता नहीं, लेकिन आगे की कहानी दिलचस्‍प है। कुछ दिन बाद चिदंबरम ने उन्‍हें राष्‍ट्रीय एकता परिषद का सदस्‍य बना दिया।
यह घटना मैं इसलिए बता रहा हूं क्‍योंकि बकौल Prabhat Ranjan, "कांग्रेस एक उदार पार्टी है। वह लेखकों की लेखकीय स्वतंत्रता का सम्मान करना जानती है।" ऐसी उदारता के इतने उदाहरण बीते दस वर्षों में गिना दूंगा कि प्रभातजी को उदारता का अर्थ बदलना पड़ जाएगा। उसके बावजूद प्रभातजी वही के वही रहेंगे- unapologetic!
O- अभिषेक श्रीवास्तव
अभिषेक श्रीवास्तव, जनसरोकार से वास्ता रखने वाले खाँटी पत्रकार हैं। हस्तक्षेप के सहयोगी हैं।
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