चिरकुट प्रजाति के बहुजन कारोबारी
चिरकुट प्रजाति के बहुजन कारोबारी
मुद्दा जाति उन्मूलन का है, सत्ता में भागेदारी नहीं।
पासवान या उदितराज दलित नेता जरूर है लेकिन दलितों के नेता नहीं।
बंगाल में माकपाई दलित मुस्लिम राजनीति के पुनरुत्थान से जाति का गणित उसी तरह नहीं बदलने वाला है, जैसे मायावती की सोशल इंजीनियरिंग से।
पलाश विश्वास
आज दिन भर फोन आते रहे। कुछ लोगों ने हर्ष के साथ सूचित किया कि हमारे कुछ और मित्र बिक गये। तो कुछ लोग दुःखी हैं कि हिन्दुत्व को खारिज करने वाले उदितराज हिन्दुत्व के ही सिपाहसालार कैसे बन गये। भारतीय जनता पार्टी ने मिशन 2014 के लिये हर मुमकिन रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है। इसी मिशन के तहत भाजपा अब दलितों को लुभाने की ओर एक कदम आगे बढ़ा चुकी है। जस्टिस पार्टी के अध्यक्ष उदित राज तो भाजपा के पक्ष में आ ही गए हैं, एलजेपी अध्यक्ष रामविलास पासवान के भी भाजपा से गठबंधन के आसार दिख रहे हैं। उदित राज तो भाजपा की जमकर तारीफ भी कर रहे हैं।
मोदी को अछूत और ओबीसी चहरा बतौर प्रोजेक्ट करने की रणनीति दरअसल बहुजनों की बड़ी केशरिया फौज बनाने की कवायद है। अब पासवान और उदितराज इस केशरिया हिन्दुत्व पैदल सेना के सिपहेसालार होंगे।
उदित राज ने कहा कि एक समय था, जब भाजपा का विरोध किया था। अनुभवों के आधार पर हमने देखा कि भाजपा दलितों के मामले में अन्य पार्टियों से अच्छी है। वाजपेई जी की सरकार ने संशोधन ने किया था जिससे दलितों का भला हुआ था लेकिन काँग्रेस की 10 साल की सरकार में दलितों के लिये कोई काम नहीं हुआ है। भाजपा ही है जो भागीदारी की बात मान सकती है। दलित आदिवासी की भागीदारी के लिये हम भाजपा में शामिल होंगे।
वहीं एनसीपी नेता तारिक अनवर ने भाजपा-एलजेपी गठबंधन के आसार पर कहा कि अगर ये गठबंधन होता है तो राजनीति में इससे ज़्यादा विडम्बना की बात नहीं होगी। 2002 में गुजरात दंगों के बाद रामविलास ने इसी बात पर गठबंधन तोड़ा था और मोदी पर आरोप लगाए थे।
कुछ लोगों को उत्साह है कि फेंस पर जो लोग खड़े हैं, वे लोग भी अब केशरिया बनने को हैं और नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक ही नहीं सकता।
अरविंद केजरीवाल से भाजपायी और संघी कितना घबड़ाये हुये थे और केशरिया खेमे में कितनी बेचैनी है, इस ताजा दलबदल से साबित हुआ। यह सिलसिला आगे भी जारी रहना है। हिन्दुत्व सुनामी क्या कुछ बह जायेगा कहना मुश्किल है। हम इसीलिये अपने अनुभव से बार-बार निवेदन करते रहे हैं कि केजरीवाल पर जनपक्षधर मोर्चा और धर्मनिरपेक्ष ताकतें फिलहाल वार करने से बचें तो बेहतर है। केजरीवाल के हाशिये पर जाने का मतलब नरेंद्र मोदी के लिये खुल्ला मैदान। काँग्रेस की तरह नागपुर के संघी मुख्यालय से अन्ना टीम को प्लान बी के तहत मैदान में उतारकर ममता बनर्जी का विकल्प भी तैयार है।
हम लोकसभा चुनाव में अमेरिकी समर्थन से, मीडिया सक्रियता से और कॉरपोरेट लॉबिइंग के तहत निर्मामाधीन जनादेश में हस्तक्षेप करने की हालत में नहीं है। जो भी कॉरपोरेट विकल्प सत्ता में काबिज होना है उसका एकमात्र विकल्प है जनसंहार। इसका जवाबी अंबेडकरी एजेण्डा जाति उन्मूलन है, जिसके तहत बहुसंख्य भारतीय जन गण और सामाजिक शक्तियों को हम गोलबन्द कर सकते हैं। इसी रणनीति के तहत मोदी को अगर अरविंद केजरीवाल अपनी वोट काटू भूमिका से रोकते हैं, तो वह बहुत बड़ी राहत होगी।
बंगाल में बहुजनों को अब नजरुल इस्लाम, रज्जाक मोल्ला और नंदीग्राम विख्यात हल्दिया के पूर्व माकपाई सांसद लक्ष्मण सेठ की तिकड़ी के भरोसे से उम्मीद है कि स्वतन्त्रतापूर्व अखण्ड बंगाल की तर्ज पर बंगाल में दलित मुस्लिम वोट गठजोड़ से फिर दलितों का राज बहाल हो जायेगा।
हमारे तमाम साथी उत्तर भारत के गो वलय में सामाजिक उथल-पुथल से व्यवस्था परिवर्तन का स्वप्न देखते रहे हैं। तमाम बहुजन चिन्तक और मसीहा कॉरपोरेट राज में बुराई नहीं देखते और इस आक्रामक ग्लोबीकरण को बहुजनों के लिये स्वर्णकाल मानते हैं।
कांशीराम जी ने जो सत्ता की चाबी ईजाद कर ली है, उसके बाद से निरंतर अंबेडकर हाशिये पर जाते रहे हैं और उनके जाति उन्मूलन के एजेण्डा अता पता नहीं है। सोशल इंजीनियरिंग की चुनावी राजनीति, अस्मिता और पहचान को पूँजी बनाकर पार्टीबद्ध राजनीति कॉरपोरेट राज का पर्याय बन गयी है।
हमारे मेधावी साम्यवादी विद्वतजन इसे अंबेडकरी विचारधारा का ही परिणाम मानते हैं तो हम जाति उन्मूलन के एजेण्डे से अंबेडकरी आन्दोलन के विचलन को ही भारतीय गणतन्त्र के लिये सबसे बड़ा कुठाराघात मानते हैं।
बहरहाल उदित राज का उद्भव ग्लोबीकरण को वैधता देने केलिये निजी क्षेत्र में आरक्षण आन्दोलन के अभियान के साथ है। निजीकरण, उदारीकरण और एकाधिकारवादी कॉरपोरेट आक्रमण को बेमुद्दा बनाकर अप्रासंगिक आरक्षण को मुद्दा बनाने के लिये बहुजनों की गोलबंदी के लिये उन्होंने बाबासाहेब की तर्ज पर धर्मंतरण अभियान भी चलाया और उनके वाजपेयी सरकार से भी उतने ही मधुर सम्बंध थे,जितने सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के साथ। उनकी कमान संभालने वाली युथिका मैडम अत्यंत चतुर महिला हैं, जो कॉरपोरेट प्रबंधन के तहत जस्टिस पार्टी चलाती रही हैं। इसलिये बदलते हुये मौसम में केशरिया कायाकल्प उनसे अपेक्षित ही था। बहुजन राजनीति के और भी बड़े नाम केशरिया होने वाले हैं क्योंकि उनकी बहुजन हिताय या अंबेडकरी विचारधारा से लेना देना नहीं है। वे बहुजन कारोबारी हैं।
हमारे पुरातन पाठकों को मालूम होगा कि अस्सी के दशक में मैं खूब अखबारी लेखन करता रहा हूँ लघुपत्रिकाओं में निरंतर छपते रहने के साथ साथ। 1991 से मेरा साम्राज्यवाद विरोधी उपन्यास अभियान इंटरएक्टिव अमेरिका से सावधान के साथ ही हमारा अखबारी लेखन छूट गया। लोगों ने हमें छापना ही बंद कर दिया। जब तक मैं अखबारी लेखन करता रहा तब तक कुछ राजनेताओं और मंत्रियों को मैं चिरकुट नेता चिरकुट मंत्री लिखता रहा हूँ। वही चिरकुट प्रजाति अब भारतीय कॉरपोरेट राजनीति के कुरु पाण्डव हैं। उनके विचलन, उनकी बाजीगरी विचार निरपेक्ष हैं और बाजार की अर्थव्यवस्था ने विचारधारा की हत्या सबसे पहले करके उन्हीं को सत्ता की चाबी सौंप दी है। हम नाम लेकर बताना नहीं चाहते। हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या। बूझ लीजिये।
जाहिर है कि मुद्दा जाति उन्मूलन का है, सत्ता में भागेदारी का नहीं। अंबेडकरी आन्दोलन को सत्ता की चाबी में बदलने की कवायद में लगे रंग बिरंगी अस्मिताओं के चितेरे पारटीबद्ध नेता और मसीहा की अर्जुन दृष्टि सत्ता मछली की आँख की निशानेबाजी में निष्णात हैं। मौसम चक्र की तरह हर चुनाव में पहला और बाद में सत्ता दावत में शामिल होने की गरज से महान अंबेडकरी बहुजन समाजवादी नेता माफिक पोशाक बदल लेते हैं। अस्मिता की राजनीति उनके लिये वोट बैंक साधने का सर्वोत्तम उपकरण है।
जब सत्ता सुख ही चरमोत्कर्ष है और उसी अर्गानेज्म में साध्य खोजा जाना है तो बहुजन या आम विमर्श धोखेबाज फंडा है। न बदलाव की कोई प्रतिबद्धता है और न बुनियादी जनप्रतिबद्धता।
जाति उन्मूलन इनका मिशन नहीं है। जाहिर है कि बिना पेंदी के लोटे की तरह इनमें से कोई कहीं भी कभी भी लुढ़क सकता है।
राम विलास पासवान लगातार सत्ता शिखर पर रहने के अभ्यस्त रहे हैं और उनके, शरद पवार, मुलायम, लालू के पक्षांतर में चले जाने का अचरज भी नहीं होता। बताते हैं कि खुद पासवान पर पार्टी के अंदर से बहुत दबाव है।
उदित राज को उनके रामराज समय से जानता रहा हूँ। महत्वाकाँक्षा और मौकापरस्ती इलाहाबाद के देहात मेजा के एक बेहद सादा मेहनती ईमानदार नौजवान को इस मंजिल तक ले जा सकता है कि हिन्दुत्व के विरोध में बाबासाहेब की तर्ज पर बौद्ध धर्म अपना कर धर्मांतरण से सामाजिक क्रांति का अभियान चलाने के बाद वे ही हिन्दुत्व के सिपाहसालार हो गये। कभी देवी प्रसाद त्रिपाठी के कायाकल्प से सदमा पहुँचा था। बौद्धप्रिय मौर्य के हश्र पर हैरत हुयी थी।
अब ऐसा नहीं होता।
शायद हमारे युवा मित्रों अभिनव सिन्हा, आनंद सिंह और सत्यनारायण सिंह सही कहते हैं कि सामाजिक बदलाव के लिये भाववाद यथार्थवादी दृष्टिकोण का सबसे बड़ा अंतर्विरोध है। अस्मिता और पहचान की राजनीति अंततः भावनाओं की लहलहाती सुनामी है, कब किसे किस मुकाम तक बहा ले जायेगी, कहना मुश्किल है।
डॉ. अंबेडकर के बदले बहुजनों ने जिस कांशीराम की दीक्षा को अन्तिम सत्य माना है, सत्ता में भागेदारी के चरम लक्ष्य हासिल करने के लिये मौकापरस्ती उसका अहम तत्व है, जिसे सोशल इंजीनियरिंग कहा जाता है।
उदित राज जी सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी से सीधा सम्बंध होने के हवाला देते हुये मुझसे कई दफा ऑर्गेनिक इंटेलेक्चुअल बनने की दावत देते रहे हैं। लेकिन हम तो शरणार्थी किसान के बेटे हैं, सामाजिक राजनीतिक आर्थिक ऊँचाइयों से डर लगता है। अंबेडकरवादियों, संघियों और ऐसे तमाम तत्वों के सत्ता निमंत्रण से मैं हजार योजन दूर हूँ।
सोशल इंजीनियरिंग का अन्तिम लक्ष्य जाति उन्मूलन हो नहीं सकता। वह जाति को मजबूत करने का भेदभाव को प्रतिष्ठानिक मान्यता देने और वर्चस्व के तिलिस्म को अभेद्य बनाने का खेल है।
बंगाल में जो लोग दशकों तक वामपंथ के जरिये क्रांति करने के लिये ब्राह्मण मोर्चा की सत्ता जीते रहे हैं, वे लोग ही अब दलित मुस्लिम सोशल इंजीनियरिंग की कमान थामे हुये हैं। रज्जाक अली मोल्ला जैसे राष्ट्रीय किसान नेता से तो बड़ी शख्सियत नहीं हैं उदित राज।
मायावती के तमाम आलोचक मोदी के प्रधानमंत्रित्व के लिये केशरिया खेमे के सिपाहसालार शरद यादव, राम विलास पासवान और कैप्टेन जय नारायण निषाद के साथ न केवल मंच साझा करते रहे हैं, बल्कि मोदी के प्रधानमंत्रित्व के लिये वैदिकी यज्ञ भी करवाते रहे हैं। अभी तो फेंस पर इंतजार में खड़े तमाम लोग हैं।
भारत में जाति सर्वस्व व्यवस्था को बहाल रखने में ऐसी फर्जी अस्मिता राजनीति की सबसे बड़ी भूमिका है जिसका अंबेडकरी जाति उन्मूलन एजेण्डा से कुछ लेना देना नहीं है। ये लोग बहुसंख्य जनगण को धर्मोन्मादी प्रजाजन या जनसंहारी अश्वमेध की पैदल सेना बनाये रखने के दुश्चक्र के पेशेवर खिलाड़ी हैं।
हमें जाहिर है कि उनके उत्थान पतन पर हर्षविषाद भावान्तर से बचना ही चाहिए।
राजनीति और सरकार में बड़ी जाति के लोगों का बोलबाला और पश्चिम बंगाल में दलित मुख्यमंत्री होने के नारे के साथ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के विद्रोही नेता अब्दुर रजाक मुल्ला ने रविवार को दलितों और अल्पसंख्यकों की पार्टी खड़ी कर दी। मुल्ला ने कहा कि नया संगठन सामाजिक न्याय मोर्चा राजनीतिक दल का रूप लेगा और 2016 में राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव में कम से कम 185 सीटों पर चुनाव लड़ेगा। संगठन के पहले सार्वजनिक सम्मेलन के मौके पर उन्होंने कहा, हम किसी जाति के खिलाफ नहीं हैं। लेकिन लम्बे समय से सरकार, पार्टियों और प्रशासन में उच्च जाति का बोलबाला है और दलितों, वंचितों और अल्पसंख्यकों का भला कभी नहीं हो सका है।
संगठन ने दलित मुख्यमंत्री होने पर जोर देने के साथ ही एक मुस्लिम गृहमंत्री और उपमुख्यमंत्री के साथ ही साथ अन्य महत्वपूर्ण विभाग अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को दिए जाने की बात की है। सम्मेलन में अल्पसंख्यक समुदाय के कई धार्मिक नेताओं ने हिस्सा लिया। माकपा के एक और विद्रोही नेता लक्ष्मण सेठ ने भी नए संगठन को समर्थन देने की वकालत की है।
अपनी ही पार्टी माकपा और खास तौर से पूर्व मुख्यमंत्री एवं पार्टी पोलित ब्यूरो के सदस्य बुद्धदेव भट्टाचार्य के धुर आलोचक मुल्ला ने हालांकि पार्टी छोड़ने के कारणों पर कुछ भी नहीं कहा।
अपने झारखंडी मित्र फैसल अनुराग का मंतव्य गौरतलब हैः
“न तो यह अजीब है और न ही इस से कोई अचरज होना चाहिए रामविलास परसवान या उदितराज दलित नेता जरूर हैं लेकिन दलितों के नेता नहीं है। दूसरों की बैसाखी के बिना इनकी कोई पहचान नहीं है और अतीत में कभी रही भी नहीं। पासवान तो हमेशा सामन्तों के दलाल रहे हैं और उदितराज कांशीराम से खुन्नस खाए नौकरशाह जो साहब होने की आकाँक्षा पालता रहा है। अच्छा है चुनाव के पहले सब साफ हो रहा है क्योंकि भारत के जनगण अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देंगे। भारतीय चुनावी राजनीति में पहले भी ऐसा हुआ है जनगण का अपना व्यापक गठबंधन उभरता रहा है जो अपने विवेक से फैसला लेता रहा है और इस बार ज्यादा सजगता से लेगा। थके—हारे और सत्ता के लालची नेताओं का यह हश्र देर—सेबेर होना ही था। आदिवासी—दलित जनगण ऐसे नेताओं को खारिज करने की परम्परा का निर्वाह करती रहेगी।”


