ओंकारेश्वर पांडेय
इसे समूचे पूर्वोत्तर में शांति के प्रति आम जनता की बढ़ती प्रतिबद्धता कहें या हिंसा के रास्ता अपनाने को लेकर बढ़ता अविश्वास, असम के उग्रवादी संगठन एक एक कर सरकार के साथ सू (सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस) समझौता करने या उसे आगे बढ़ाने को राजी हो रहे हैं. पूर्वोत्तर के प्रवेश द्वार असम से लेकर सुदूर म्यांमार की सीमा पर बसे मणिपुर तक में शांति की बयार बहती दिखायी दे रही है. लेकिन साथ ही पड़ोसी देशों के साथ खुली सीमाएं और वहां सक्रिय भारत विरोधी तत्वों की मौजूदगी के कारण सीमा पार से खतरा भी लगातार बना हुआ है.

असम में पहलो बोड़ो जनजातियों के साथ समझौता हुआ. फिर अल्फा नेतृत्व को बातचीत के जरिये समस्या का समाधान तलाशने के लिए तैयार किया गया. उसके बाद पिछले ही साल केन्द्र सरकार ने यूपीडीएस यानी यूनाइटेड पीपुल्स सॉलिडेरिटी के साथ भी विवाद हल करने संबंधी समझौता किया. समझौता वैसे तो असम के अलावा मणिपुर के कूकी नेशनल ऑर्गनाइजेशन तथा युनाइटेड पीपुल्स फ्रंट के साथ सरकार ने किया है. लेकिन मणिपुर के अन्य उग्रवादी संगठन हिंसा जारी रखे हुए हैं. आखिर मणिपुर के विद्रोही राज्य में हो रहे विधानसभा चुनावों में उतर कर व्यवस्था बदलने की बात क्यों नहीं सोचते? राज्य में भ्रष्टाचार चरम पर है. विकास नहीं हो रहा. तो उग्रवादी ही चुनावी राजनीति का रास्ता चुनें, और बदल दें सब कुछ. आखिर जब पूर्वोत्तर के ही अन्य उग्रवादी इस रास्ते को अपना सकते हैं तो मणिपुरी उग्रवादी क्यों नहीं?

खुशी की बात है कि असम के दीमासा कछारी जनजाति से जुड़े उग्रवादी संगठन डीएचडी ने भी भारत सरकार के साथ सू समझौता को जारी रखने का फैसला किया है. डीएचडी यानी दीमा हलाम दाओगाह के उग्रवादी ज्यादातर असम के उतत्री कछार जिले में सक्रिय रहे हैं. इन उग्रवादियों के साथ सैन्य अभियान स्थगन संबंधी समझौता सन 2003 से ही चल रहा है. दीमासा कछारी जनजाति के लोगों की जनसंख्या सन् 2001 की जनगणना के मुताबिक एक लाख 10 हजार से कुछ ही ज्यादा है. इतनी कम जनसंख्या के लोग भी हथियारबंद अभियान चलाएं तो हमारी राजनीतिक व्यवस्था और प्रशासन पर सवाल उठता है. दीमापुर के पास हाल ही में दीमासा कछारी जनजाति के लोग अपने ऐतिहासिक राजबाड़ी के महल के अवशेषों के आस पास सफाई करते दिखे. पुरातत्व विभाग उनकी सुधि नहीं ले रहा. इसी तरह अपनी जातीय अस्मिता को लेकर भी ऐसे जनजातीय समुदाय चिंतित रहे हैं.

सवाल ये है कि ये सभी संगठन शांति वार्ता के लिए क्यों राजी हो रहे हैं. और जो नही हो रहे, वे क्यों नहीं हो रहे? इस पर चर्चा करना जरूरी है. जो गुट शांति वार्ता के लिए आगे आ रहे हैं, वे महसूस कर रहे हैं कि सरकार अब उनकी मांगो पर ध्यान देने लगी है. समूचे पूर्वोत्तर में विकास का काम भी हो रहा है. अब लगभग गर महीने केन्द्र सरकार के कोई न कोई मंत्री इन राज्यों के दौरे पर आते हैं. अफसरों का दौरा भी लगा ही रहता है. और यह भी कि हिंसा से हल नहीं निलने वाला. जो नहीं मान रहे, उनके लिए सरकार अब भी उनके साथ सौतेला व्यवहार कर रही है. और कुछ संगठन अपनी पृथक जातीय पहचान और ऐतिहासिक कारणों का उल्लेख करते हुए संप्रभुता की मांग करते आ रहे हैं.

पूर्वोत्तर में सबसे पुराने उग्रवादी नगा जनजाति के हैं. नगालैंड के दो विद्रोही गुट एनएससीएन इशाक मुइवा तथा खापलांग गुटों के साथ केन्द्र सरकार की शांति वार्ता लंबे समय से चल रही है.

नगा पूर्वोत्तर के ही नहीं इस देश के सबसे पुराने उग्रवादी समूह हैं. नगा उग्रवादियों के एक गुट के साथ भारत सरकार ने 1975 में शिलांग समझौता किया था. लेकिन एनएससीएन के इशाक मुइवा तथा खापलांग दोनों गुटों ने इसको अस्वीकार कर दिया और नये सिरे से सशस्त्र संघर्ष शुरु किया. भारत के मौजूदा नगालैंड समेत पूर्वोतत्र के कुछ अन्य राज्यों और म्यांमार के कुछ हिस्सों में नगाओं की विभिन्न जातियां निवास करती हैं. भारत पर अंग्रेजी हुकूमत के दौरान कई बार ब्रिटिश सेनाएं नगा पहाड़ियों पर कब्जे के लिए गयीं. पर उन्हें हार कर लौटना पड़ा. बाद में उन्होंने अपनी रणनीति बदली और चिकित्सा तथा अन्य सेवा कार्यों के जरिये मिशनरी के तौर पर वे वहां पहुंचने में कामयाब हो गये. आज लगभग समूचा नगालैंड चर्च के प्रभाव से ईसाई धर्म को अपना चुका है.

इन नगाओं ने 1929 में साइमन कमीशन के सामने साझा मातृभूमि तथा स्वशासन की मांग रखी थी. बताया जाता है कि गांधीजी भी नगाओं की मांग के समर्थन में थे. ब्रिटिश हुकूमत ने हैदरी समझौते के तहत नगाओं को दस साल तक के लिए संरक्षित क्षेत्र घोषित करने संबंधी समझौता किया था. लेकिन इसी बीच जब भारत आजाद हो गया तो नगा इलाकों को भी भारतीय गणराज्य में शामिल कर लिया गया.

अब एनएससीएन यानी नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम के इसाक-मुइवा (आईएम) धड़े के महासचिव लोकप्रिय नगा नेता टीएच मुइवा यानी थुइंगलांग मुइवा हैं. गरीबी और बदहाली में पले बढ़े मुइवा के अशिक्षित माता-पिता और उनके परिवार की गहरी आस्था ईसाई धर्म में थी. थुइंगलांग मुइवा भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.शायद इसीलिए उनके आंदोलन के पर्चों पर भी वी फॉर क्राइस्ट, नगालिम फॉर क्राइस्ट्स और नगालैंड फॉर क्राइस्ट्स के नारे हमेशा दिखायी देते रहे. वैसे तो मुइवा गांधी से भी प्रभावित थे. पर हिंसा की राह पर लंबे समय तक चलते रहे. उन्होंने गांधी के अलावा मार्क्स, लेनिन, माओत्से तुंग आदि को भी पढ़ा.

पर आखिरकार भारतीय परिप्रेक्ष्य में गांधी ही प्रासंगिक लगे. करीब छह दशक तक ग्रेटर नगालैंड की मांग को लेकर खूनी लडाई लड़ते रहे मुइवा की भारत सरकार के साथ शांति वार्ता 1997 में तब शुरु हुई जब केन्द्र में पहली बार एक नगा जनजाति के नेता प्रोफेसर एम कामसन को गृह राज्य मंत्री बनाया गया. तब से नगाओं के दोनों गुटों के साथ केन्द्र की कई दौर की वार्ता हो चुकी है. लेकिन चूंकि नगा नेता ग्रेटर नगालैंड के तहत असम और मणिपुर के भी कुछ हिस्सों को शामिल करने की मांग कर रहे हैं, इसलिए यह मसला अब भी लटका हुआ है. इस बीच नगा नेताओं ने नगालैंड में शांति के लिए गंभीर प्रयास किये. और आज इसका नतीजा है कि नगालैंड में आम लोग समान्य अपराधियों के खिलाफ भी अभियान चला रहे हैं.

नगालैंड से पहले मिजो पहाड़ियां भी भयंकर उग्रवाद की चपेट में थी. यह जानना दिलचस्प होगा कि मिजो उग्रवाद चूहों के आतंक के कारण पनपा था. सन 1960 के दशक में असम के लुशाई पहाड़ी इलाकों में बांस के पौधों में फूल लगे. कहते हैं कि बांस में लगे फूल चूहों को बहुत भाते हैं. लुशाई के जंगलों में बांस में लगे फूलों को खाने के लिए बड़ा पैमाने पर चूहे पैदा हो गये. और बांस के फूलों को खाने के बाद वहां के खेतों से अनाज चट कर गये. इससे पूरे इलाके में भीषण अकाल पड़ गया. इस अकाल के बाद वहां रहने वाले मिजो जनजाति के लोगों ने जब असम और केन्द्र की सरकारों से मदद मांगी तो उन्हें काफी निराशा हाथ लगी. इससे त्रस्त मिजो युवकों के एक दल ने एमएनएफ यानी मिजो राष्ट्रीय मोर्चा के नाम से एक राहत दल का गठन किया, जिसने गांव गांव जाकर राहत अभियान तो चलाया ही,

साथ ही मिजो जनजाति के लोगों को स्वशासन के लिए प्रेरित भी किया. एमएनएफ ने इसके बाद मिजो पहाड़ियों में हथियारबंद आंदोलन की शुरुआत की. सन 1966 आते आते एमएनएफ ने राजधानी आइजॉल पर अपना कब्जा जमा लिया. एमएनएफ के कब्जे से आइजॉल को छुड़ाने के लिए पहली बार भारतीय वायुसेना को शहर पर बम बरसाने पड़े. शहर के बीचोबीच सेना की छावनी बनायी गयी. फिर भी मिजो उग्रवाद थमा नहीं. आखिरकार 1986 में राजीव गांधी की पहल पर मिजो नेताओं ने केन्द्र सरकार के साथ शांति समझौता किया और राषट्रीय मुख्य धारा में शामिल हो गये. मिजो जनजाति के लोगों ने ये समझौता दिल से किया था. भारत सरकार ने भी उसका मान रखा. और नतीजतन मिजोरम आज देश के सर्वाधिक शांत राज्यों में शुमार है.

यानी जब इस सच्चाई को मिजो विद्रोहियों ने समझ लिया कि हिंसा के रास्ते से किसी समस्या का समाधान नहीं होने वाला. उन्होंने बंदूकें फेंक दीं और चुनावी राजनीति में आ गये. मणिपुर के उग्रवादियों को भी चुनावी राजनीति के जरिये सत्ता और व्यवस्था परिवर्तन के बारे में सोचना चाहिए. चुनाव सामने है. और चुनौती भी. पर क्या वे इस बात को मिजो और बोड़ो जनजातियों की तरह समझेंगे. अब तो नगा उग्रवादियों ने भी समझ लिया है कि बातचीत से ही समस्या सुलझेगी. विश्व में तेजी से एक बड़ी शक्ति के तौर पर उभरता जा रहा भारत किसी भी समस्या का हल लोकतांत्रिक तरीके से संविधान के दायरे में ही करेगा, इसमे किसी को कोई संदेह नहीं रखना चाहिए. उम्मीद की जानी चाहिए कि पूर्वोतत्र के अन्य भूमिगत उग्रवादी गुटों को भी ये बात देर सबेर समझ में आएगी. बशर्ते कि वे विदेशी ताकतों के हाथों के खिलौने नहीं बने रहे तो.

"द संडे इंडियन"