छत्तीसगढ़ चुनाव : भाजपा के आठ मंत्री हारे, 16 जिलों में उसका खाता भी नहीं खुला
छत्तीसगढ़ चुनाव : भाजपा के आठ मंत्री हारे, 16 जिलों में उसका खाता भी नहीं खुला
छत्तीसगढ़ चुनाव : भाजपा के आठ मंत्री हारे, 16 जिलों में उसका खाता भी नहीं खुला
छत्तीसगढ़ चुनाव : कुछ निष्कर्ष, कुछ सबक
Chhattisgarh Election: Some Conclusions, Some Lessons
छत्तीसगढ़ में पूरे प्रदेश में कांग्रेस के मत प्रतिशत में केवल 1.53% की ही वृद्धि हुई है, लेकिन 68 सीटें जीतने में कामयाब रही है. उसे वर्ष 2013 में 41.57% मत मिले थे, जबकि इस बार 43.10% वोट मिले हैं. इसीलिए यह जीत कांग्रेस की जीत नहीं है, बल्कि भाजपा की हार है. भाजपा की नीतियों के खिलाफ वह उस तरह संघर्ष के मैदान में कभी नहीं उतरी, जैसे कि आम जनता के अन्य तबके लड़ रहे थे और दमन का शिकार हो रहे थे. कांग्रेस ने इन तबकों की मांगों के केवल समर्थन तक अपने को सीमित रखा. भाजपा की सांप्रदायिक नीतियों के खिलाफ भी, जिसके चलते चर्चों पर और अल्पसंख्यकों व दलितों की रोजी-रोटी पर बड़े पैमाने पर हमले हुए हैं, कांग्रेस कभी मुखर नहीं रही. यही कारण है कि भाजपा के मत-प्रतिशत में 10% गिरावट का बहुलांश कांग्रेस के पक्ष में नहीं गया.
भाजपा का आम जनता से बुरी तरह अलगाव था और वह केवल 15 सीटें ही जीत पाई है. उसके 15 में से 8 मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा है. प्रदेश के 27 जिलों में से 16 जिलों में उसका खाता भी नहीं खुला. आदिवासी-दलितों के लिए आरक्षित 39 सीटों में से केवल 5 सीटें ही वह बहुत कम वोटों से जीत पाई, जबकि पिछली बार उसके पास 20 सीटें थी. आदिवासी और दलितों के प्रति उसका हिकारत भरा रवैया था. जल-जंगल-जमीन, खनिज व अन्य प्राकृतिक संसाधनों को कारपोरेट तबको को सौंपने को वह विकास बता रही थी. मानवाधिकारों को कुचलने को वह नक्सलवाद का खात्मा कह रही थी. जिन लोगों ने भी, चाहे उनकी राजनैतिक संबद्धता कुछ भी क्यों न हो, शोषित-पीड़ित तबकों के अधिकारों की बात की, उन्हें नक्सलवादी कहकर झूठे केसों में फंसाया गया. इसीलिए प्रदेश की आबादी का लगभग 50% का प्रतिनिधित्व करने वाले दलित-आदिवासी सामाजिक समुदाय ने भाजपा की नीतियों को, उसके विकास के दावों को, पूरी तरह ठुकरा दिया है. दलितों-आदिवासियों का पदोन्नति में आरक्षण, आउटसोर्सिंग, कृषि संकट, असंगठित मजदूरों की मजदूरी, नियमितीकरण, राज्य सरकार कर्मचारियों के वेतन-भत्ते मुख्य मुद्दे थे, लेकिन अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए भाजपा ने योगी की चुनावी सभाओं और बाद में खुद रमनसिंह ने राम मंदिर निर्माण को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की. यह उनकी संभावित हार के प्रति उनकी हताशा का सर्वोच्च प्रदर्शन था.
भाजपा के वोट जोगी को शिफ्ट हुए
भाजपा को वर्ष 2013 के 42.34% की तुलना में इस बार केवल 32.80% वोट ही मिले और उसके वोटों में 9.54% की गिरावट आई है. ये वोट जोगी-बसपा गठबंधन की ओर खिसके है. प्रदेश में 'सत्ता-प्रतिकूलता कारक' anti-incumbancy factor इतना जबरदस्त था कि जहां जनता ने यह देखा कि कांग्रेस का उम्मीदवार भाजपा को हराने में सक्षम नहीं है, वहां उसने जोगी-बसपा गठबंधन को वोट देना बेहतर समझा. इस गठबंधन को 8.5% वोट मिले हैं और वह कुल 7 सीटें (जोगी 5+बसपा 2) जीतने में कामयाब रही हैं. जिस गठबंधन को भाजपाविरोधी वोटों को विभाजित करने के लिए भाजपा ने ही खड़ा किया था और उसके लिए वित्तीय मदद व संसाधन जुटाए थे, वह भाजपा के लिए ही नुकसानदेह साबित हुआ है.
बसपा, कांग्रेस के साथ जाती तो फायदे में रहती
जोगी के साथ जाने का बसपा को कुछ खास फायदा नहीं हुआ. उसके मत-प्रतिशत में कोई वृद्धि नहीं हुई. 5 सीटों पर वह दूसरे स्थान पर रही, जबकि कांग्रेस के साथ जाकर वह इन सीटों को जीत सकती थी. सीपीआई को भी माया मिली न राम और मनीष कुंजाम तीसरे स्थान पर ही रहे. दंतेवाड़ा सीट पर भी उसने अपना जनाधार खोया है. बस्तर में जोगी का कोई जनाधार नहीं है. इसलिए उसे जोगी से कोई फायदा होना नहीं था और बसपा का उसे साथ मिलना न था. इस गठबंधन से केवल जोगी को फायदा हुआ है, जो 5 सीटें जीतकर तीसरी ताकत का दावा कर रहे हैं. उन्होंने बसपा और भाकपा की कीमत पर अपने को स्थापित करने का प्रयास किया है.
चुनाव नतीजों से स्पष्ट है कि बसपा यदि कांग्रेस के साथ जाती, तो भाजपा का आंकड़ा दहाई पर भी नहीं पहुंचता. केवल इस सीमित अर्थ में ही इस गठबंधन को खड़ा करने का भाजपा को फायदा मिला है. वैसे भी जोगी की भाजपा से मिलीभगत बहुत साफ है, जो चुनाव परिणामों के एक दिन पहले भी भाजपा को समर्थन देने की बात कर रहे थे.
बसपा और भाकपा, जोगी की चाल को जितनी जल्दी समझ लें, वह उनकी पार्टी और प्रदेश की जनता के हित और बेहतरी में होगा. मध्यप्रदेश और राजस्थान में भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस सरकारों के गठन में मदद करने की बसपा की घोषणा से छत्तीसगढ़ में भी यह आशा की जा सकती है कि यहां भी वह जोगी के चंगुल से बाहर निकलेगी.
भाकपा छत्तीसगढ़ में सबसे बड़ी वामपंथी पार्टी है और वामपंथी एकता को मजबूत करने की जिम्मेदारी उस पर ही आती है. प्रदेश में वामपंथी आंदोलन मजबूत करने, भाजपा की सांप्रदायिक-फासीवादी नीतियों के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष ताकतों को संगठित करने और आने वाले दिनों में कांग्रेस की आर्थिक नीतियों के खिलाफ प्रगतिशील-जनवादी ताकतों की व्यापक एकता का निर्माण करने के लिए जरूरी है कि वह अपनी लाइन पर पुनः विचार करे. व्यापक वामपंथी एकता के निर्माण में ही भाकपा की प्रगति भी निहित है, वरना आने वाले दिनों में उसे और झटके खाने पड़ेंगे.
कांग्रेस उन्हीं उदारवादी नीतियों को आगे बढ़ाएगी, जिसने पूरे देश को आर्थिक संकट में ढकेला है. इस सबके खिलाफ आम जनता पहले की तरह लड़ेगी. लेकिन तत्काल आशा यह की जा सकती है कि कांग्रेस अपने चुनावी वादों को पूरा करने की पहलकदमी करेगी और पिछले 15 सालों के भाजपाई कुशासन से उपजी संमस्याओं से आम जनता को राहत देगी. कांग्रेस के सामने दूसरी बड़ी चुनौती है, भाजपा की समाज को बांटने वाली सांप्रदायिक नीतियों के खिलाफ सद्भाव के वातावरण का निर्माण करना. राहुल की कांग्रेस को नेहरू की ओर फिर से लौटने की जरूरत है, जो धर्मनिरपेक्ष विचारों के अविचल अनुयायी थे. 'नरम हिंदुत्व' की नीति से संघी गिरोह की सांप्रदायिक मुहिम को मात नहीं दी जा सकती और प्रकारांतर से वह फिर प्रदेश में भाजपा की वापसी का रास्ता ही खोलेगी.
भाजपा ने अपनी विचारधारात्मक परियोजना को लागू करने के लिए जिन फासीवादी औजारों का उपयोग किया है, उसने जनतांत्रिक वातावरण (democratic space) को खत्म किया है और उनसे असहमति रखने वाले हर व्यक्ति, समुदाय और संस्था पर नक्सलवादी होने, पाकिस्तानपरस्त या राष्ट्रविरोधी होने का ठप्पा लगाया है. उसने हर प्रकार की मानवीय संवेदना को कुचलने के लिए समाज में नफरत के बीज बोए हैं और आम जनता की वैज्ञानिक चिंतन-प्रणाली को अवरूद्ध करने के लिए महत्वपूर्ण पदों व संस्थाओं में संघी गिरोह के लोगों की नियुक्तियां की हैं. इसने वैज्ञानिक शिक्षा प्रणाली को नष्ट किया है और अवैज्ञानिक विचारों के प्रवाह को सहज-सुगम बनाया है. कांग्रेस की अहम जिम्मेदारी है कि इस जनतांत्रिक वातावरण को बहाल करें, असहमति के विचारों को सुनें और संवाद कायम करें. आखिर जनता ने भाजपा की सांप्रदायिक-फासीवादी नीतियों के खिलाफ अपना फैसला दिया है ताकि अपनी समस्याओं/मांगों के लिए संघर्ष के लिए उनके जनवादी अधिकार सुरक्षित रहे. वर्ष 2003 में कांग्रेस की जोगी सरकार को जनता ने इसीलिए हटाया था कि उसने आम जनता के संघर्षों को कुचलने का रास्ता अपनाया था और कांग्रेस को 15 साल का वनवास भुगतना पड़ा है. आशा की जा सकती है कि कांग्रेस इससे सबक लेगी.
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