जनगणना के आंकड़े और सांप्रदायिक खेल
जनगणना के आंकड़े और सांप्रदायिक खेल
जनगणना के आंकड़े और सांप्रदायिक खेल
संघ-भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार ने अब जनगणना के आंकड़ों को भी अपने सांप्रदायिक खेल की गोटी बना दिया है। मंगलवार, 25 अगस्त की शाम अचानक जिस तरह से 2011 की जनगणना के धार्मिक समुदायवार आंकड़े जारी किए गए, उसके तरीके और टाइमिंग दोनों से, इन आंकड़ों के सांप्रदायिक इस्तेमाल की आशंकाओं को ही बल मिला है।
वास्तव में अगली सुबह के अनेक अखबारों की सुर्खियों ने इन संख्याओं के जरिए एक बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक संदेश दिए जाने की चिंताओं की पुष्टि भी कर दी।
एक प्रमुख राष्ट्रीय हिंदी दैनिक की चीखती हुई सुर्खी थी: ‘‘हिंदू घट गए, मुसलमानों की आबादी में बढ़ोतरी’’। इसी प्रकार, टेबलाइड के आकार में छपने वाले एक अंग्रेजी दैनिक ने मुख्य शीर्षक लगाया, ‘‘हिंदू वृद्धि दर गिरी’’ और पूरक शीर्षक में जानकारी दी कि, ‘‘जनगणना के नये आंकड़े दिखाते हैं कि 2001 और 2011 के बीच हिंदू आबादी 0.7 फीसद गिरी है’’, जबकि एक बहुत ही प्रतिष्ठिïत अंग्रेजी दैनिक की सुर्खी थी: ‘‘पहली बार, हिंदुओं की संख्या 80 फीसद से घटी।’’
चंद सुर्खियों के ये नमूने यह बताने के लिए काफी हैं कि मोदी सरकार ने जनसंख्या के संप्रदाय-आधारित आंकड़ों को संघ परिवार के इस आशय के जाने-पहचाने प्रचार में जोतने की कोशिश की है कि खासतौर पर मुसलमान हिंदुओं पर हावी होते जा रहे हैं।
बेशक, यह कहा जा सकता है कि न तो जनसंख्या के ये आंकड़े मोदी सरकार ने तैयार किए हैं और न ही यह पहली बार है जब जनसंख्या के धार्मिक समुदायवार आंकड़े जारी किए गए हैं।
बताया जाता है कि 2011 की जनगणना से निकले ये आंकड़े, कम से कम 2014 की शुरूआत से तो तैयार पड़े ही थे। यहां तक कि अगर यूपीए की पिछली सरकार इन आंकड़ों को जारी करने में हिचक रही थी, तो नरेंद्र मोदी की सरकार भी करीब साल भर तक तो इन आंकड़ों के जारी किए जाने को रोके ही रही थी। इसलिए, अब प्रधानमंत्री कार्यालय की हरी झंडी मिलने के बाद, इन आंकड़ों के जारी किए जाने को बिहार के चुनाव से जोडक़र देखना क्या उचित है? आखिरकार, उससे पहले न सही पर 2004 में भी तो 2001 की जनगणना के धार्मिक समुदायवार आंकड़े जारी किए गए थे!
लेकिन, जैसाकि कई टिप्पणीकारों ने याद दिलाया है, 2004 में जिस तरह इन आंकड़ों को जारी किया गया था और अब नरेंद्र मोदी के राज में जिस तरह जारी किया गया है, उसमें जमीन-आसमान का अंतर है।
बात सिर्फ इतनी नहीं है कि 2004 में उक्त आंकड़े राष्ट्रीय जनसंख्या आयुक्त द्वारा बाकायदा एक संवाददाता सम्मेलन आयोजित कर जारी किए गए थे, जबकि इस बार बिना किसी भूमिका या संदर्भ के ये आंकड़े वैबसाइट पर डालकर जारी भर कर दिए गए हैं।
जाहिर है कि इन आंकड़ों और खासतौर पर उनकी किसी भी व्याख्या के लिए सरकार की कोई जवाबदेही नहीं होगी। खबरों के अनुसार, इस बार आंकड़ों के इस तरह जारी किए जाने को ‘‘अब से आंकड़े ऑनलाइन ही जारी करने’’ की तथाकथित नीति की दलील से उचित ही ठहराने की कोशिश नहीं की जा रही है बल्कि यह कहकर पहले के तरीके से बेहतर साबित करने की भी कोशिशें की जा रही हैं कि , ‘‘आप आंकड़ों को विभिन्न कोणों से देख सकते हैं। हमने इसे खुला छोड़ दिया है ताकि लोग जैसे चाहें इनकी व्याख्या कर सकें।’’
लेकिन, वास्तव में यह आंकड़ों की व्याख्या के ‘जनतंत्र’ का नहीं बल्कि जनसंख्या के धर्मवार आंकड़ों की सांप्रदायिक व्याख्या का रास्ता खोलने का ही मामला है। और जैसाकि पीछे उद्धृत सुर्खियों से साफ है, मोदी सरकार इस कोशिश में किसी हद तक कामयाब भी रही है। इसके विपरीत, 2004 में तत्कालीन जनगणना आयुक्त जे के बांठिया द्वारा विज्ञान भवन में बाकायदा एक बड़े संवाददाता सम्मेलन में इसी तरह के आंकड़ों का जारी किया जाना, सिर्फ संवाददाता सम्मेलन करने का मामला नहीं था। उक्त आयोजन में, न सिर्फ संबंधित रिपोर्ट जारी करने के बाद, उसकी प्रति अल्पसंख्यक आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष, तरलोचन सिंह को भेंटकर, ऐसे आंकड़ों की संभव सांप्रदायिक व्याख्याओं को हतोत्साहित करने की संवेदनशीलता दिखायी गयी थी बल्कि उसी संवाददाता सम्मेलन को एक जाने-माने जनसंख्यिकीविद् से भी संबोधित कराया गया था, जिसने इन आंकड़ों को संदर्भ में रखकर, उनके वास्तविक अर्थ को रेखांकित किया था। इस तरह, उस समय इन आंकड़ों की सांप्रदायिक कुव्याख्याओं का रास्ता रोकने का पूरा प्रयास किया गया था। लेकिन, इस बार ऐसा कुछ नहीं किया गया क्योंकि इस बार तो मकसद ही ऐसी कुव्याख्याओं का रास्ता बनाना था।
खबरों की मानें तो इस बार संवाददाता सम्मेलन नहीं किए जाने की एक वजह यह थी कि सरकार पिछली बार जैसे अनुभव से बचना थी। याद रहे कि पिछली बार आंकड़े जारी करते हुए, तत्कालीन जनगणना आयुक्त ने मुस्लिम आबादी की अपेक्षाकृत ऊंची वृद्धि दर को मुस्लिम महिलाओं की साक्षरता की नीची दर जैसे कारणों से जोडक़र समझने की कोशिश की थी। जाहिर है कि मोदी सरकार मुस्लिम आबादी की ऊंची वृद्धि दर की ओर ही ध्यान खींचना चाहती है, न कि उसके सामाजिक-आर्थिक कारणों की ओर।
वास्तव में धार्मिक समुदायवार आंकड़ों की सही व्याख्या कितनी जरूरी है, इसका कुछ अंदाजा ठीक इन्हीं आंकड़ों की खबर की एक अंग्रेजी दैनिक द्वारा लगायी गयी एकदम अलग सुर्खी से लग सकता है। दूसरे अनेक दैनिकों की सुर्खियों के विपरीत, जिनमें मूलत: हिंदू आबादी घटने या मुस्लिम आबादी बढ़ने या दोनों पर ही ध्यान केंद्रित किया गया था, चाहे अपवादस्वरूप ही एक दैनिक की सुर्खी ने इस तथ्य पर जोर दिया कि, ‘‘मुस्लिम आबादी में बढ़ोतरी धीमी पड़ी।’’
वास्तव में मंगलवार, 25 अगस्त को जारी आंकड़ों की असली या मुख्य कहानी यह नहीं है कि 2001 और 2011 की दो जनगणनाओं के बीच देश की कुल आबादी में हिंदुओं का अनुपात 0.7 फीसद घट गया है, जबकि मुसलमानों का अनुपात, 0.8 फीसद बढ़ गया है। इन आंकड़ों का असली अर्थ सिर्फ इतना भी नहीं है कि हिंदुओं की आबादी जो 2001 में 82 करोड़ 76 लाख थी, 2011 तक 96 करोड़ 63 लाख यानी 79.8 फीसद हो चुकी थी, जबकि इसी दौरान मुसलमानों की आबादी 13 करोड़ 82 लाख से बढक़र 17 करोड़ 22 लाख यानी कुल आबादी का 14.23 फीसद हो चुकी थी। इन आंकड़ों की असली कहानी सिर्फ यह भी नहीं है कि दो जनगणनाओं के बीच हिंदुओं की आबादी 16.76 फीसद की दर से बढ़ रही थी, जबकि मुसलमानों की आबादी 24.60 फीसद की दर से।
इन आंकड़ों का वास्तविक अर्थ, जिसमें जन तथा जनसंख्या, दोनों में वास्तविक दिलचस्पी रखने वाले किसी भी समाज विज्ञानी तथा नीति निर्माता की दिलचस्पी हो सकती है और होने चाहिए, यही है कि अगर हिंदुओं के मामले में आबादी की दशकीय वृद्घि दर, पिछले तीन दशकों में लगातार गिरते हुए, 24.07 फीसद से खिसक कर, 16.76 फीसद पर आयी है, तो मुसलमानों के मामले में यही दर पिछले दो दशकों से गिर रही है और 1991 में समाप्त हुए दशक के 32.88 फीसद के स्तर से गिरकर, अब 24.60 फीसद पर आ गयी है। और यह भी कि हालांकि दोनों प्रमुख समुदायों की आबादी की वृद्धि दरें अब लगातार गिरावट पर हैं, फिर भी मुसलमानों के मामले में यह गिरावट ज्यादा तेज है।
हिंदुओं के मामले में दो दशकों के बीच आबादी की वृद्धि दरों में 3.16 फीसद गिरावट हुई है, जबकि मुसलमानों के मामले में इसी अवधि में 4.92 फीसद गिरावट दर्ज हुई है। इस तरह हिंदुओं और मुसलमानों की वृद्धि दरों में अंतर भी घटता जा रहा है। एक दशक पहले अगर यह अंतर 9.60 फीसद का था, अब 7.94 फीसद रह गया है। वास्तव में प्यू रिसर्च की रिपोर्ट के अनुसार, 2050 तक तो भारत में मुस्लिम आबादी स्थिरता भी प्राप्त कर लेगी यानी उसका बढऩा ही बंद हो जाएगा।
इस सब के साथ केरल के आंकड़ों से सामने आने वाली इस जानी-माना सचाई को और जोड़ लें कि जहां भी शिक्षा व अन्य सुविधाओं का स्तर बेहतर है, मुसलमानों की आबादी में बढ़ोतरी की दर, कम सुविधाओं में जी रही अन्य धर्मों की आबादी से धीमी दर से बढ़ रही है।
यानी आबादी का सवाल घनिष्ठ रूप से जनसाधारण की जीवनस्थितियों के सवाल से जुड़ा हुआ है। लेकिन, ठीक इसी सचाई की ओर से ध्यान हटाने के लिए ही तो मोदी सरकार और उसके संघ परिवार को, समुदायवार जनसंख्या आंकड़ों की सांप्रदायिक कुव्याख्याएं चाहिए!
0 राजेंद्र शर्मा


