राजनीति राष्ट्र निर्माण का सबसे अच्छा तरीका हो सकता है- प्रो. आनंद कुमार
मीडिया पूरी तरह से बाजार के चंगुल में फंस गया है- ए. के. सिंह
लोकतंत्र और एकाधिकार एक साथ नहीं चल सकते- राम बहादुर राय
नई दिल्ली। “राजतंत्र में पुरोहित जन जागरण के लिए हो सकते हैं, लेकिन जनतंत्र में इसके लिए कोई पुरोहित नहीं हो सकता है। किसी समाज का पतन आर्थिक कारणों से नहीं हुआ है। अगर समाज का पतन होता तो सिर्फ नैतिक पतन की वजह से होता है।“

पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने यह बात रविवार को मुख्य वक्ता के रूप में कंचन स्मृति न्यास द्वारा आयोजित व्याख्यानमाला में कही। “पत्रकारिता और राजनीति – निकट भविष्य में हमारी भूमिका” पर व्याख्नयामाला का आयोजन गांधी शांति प्रतिष्ठान में किया गया था जिसमें मीडिया जगत के कई नामचीन लोगों ने शिरकत की। आरिफ मोहम्मद खान ने कहा कि हमारा देश 1803 से ही अंग्रेजों के हाथ में था जो 1857 तक दीवानी राइट्स के रूप में रहा। उन्होंने कहा कि 1857 के विद्रोह ने अंग्रेजों की जड़े हिला दी थीं। लंदन में बैठे भारत सचिव ने कहा कि हम नहीं जानते कि भारत के लिए क्या फैसला लिया जाए। अगर हम भारतीय के बीच वैचारिक एकता बढ़ाने का प्रयास करते हैं तो साम्राज्य के लिए भयावह स्थिति हो सकती है। लेकिन अगर फूट डालने की नीति अपनाएं तो इससे समस्या स्थानीय शासकों को हो सकती है। लेकिन हुकूमत के लिए यह लाभकारी होगा।

इस मौके पर बोलते हुए प्रो. आनन्द कुमार ने कहा कि लोकतंत्र की दो संताने हैं। एक तो समाचार पत्र है और दूसरा राजनीतिक दल। इन दोनों में एक दूसरे के प्रति कुंठा का भाव है। नेता सोचता है कि वह पत्रकार होता तो स्वतंत्र रूप से लिख बोल सकता। वहीं पत्रकार के अन्दर नेताओं की विलासित को लेकर आकर्षण बना रहता है। उन्होंने कहा कि राजनीति राष्ट्र निर्माण का सबसे अच्छा तरीका हो सकता है। लेकिन इसके लिए सतत काम करने की जरूरत है। यह एक दिन का काम नहीं है।

ए.के. सिंह ने बाजारवाद पर करारा प्रहार किया और कहा कि बाजार आज हमारे ऊपर हावी होता जा रहा है। इसने, इसके लिए हमारी विचार पद्धित को बदले का षंडयत्र रचा है। सबसे बड़ी बात यह है कि बाजार इसमें कामयाब भी होता नजर आ रहा है। मीडिया पूरी तरह से बाजार के चंगुल में फंस गया है। मौजूदा परिस्थिति में देश के आइकान बदल रहे है।

वहीं कार्यक्रम के अध्यक्ष और यथावत के सम्पादक राम बहादुर राय ने कहा कि मीडिया का मूल संकट एकाधिकार का है। वर्तमान में तकरीबन 80-85 हजार पत्र-पत्रिकाएं है। 850 टेलीविजन चैनलों को लाइसेंस मिला है इनमें से तकरीबन 350 समाचार चैनल है। सैंकड़ों रेडियो है। इन पर 14-15 घरानों का एकाधिकार है। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र और एकाधिकार एक साथ नहीं चल सकते। 2014 के चुनाव के बारे में कहा कि यह भारतीय राजनीति के परिर्वतन का भी क्षण हो सकता है।