जनता बनाम सेना : मोती लाल बास्के की मौत
जनता बनाम सेना : मोती लाल बास्के की मौत
मोती लाल बास्के की मौत की गुत्थी-
इल्लिका प्रिय
9 जून 2017 को झारखण्ड के गिरिडीह जिला में पीरटांड़ प्रखंड अंतर्गत मधुबन थाना क्षेत्र के पारसनाथ पहाड़ की तराई में बसे गांव ढोलकट्टा के सिमराढाब जंगल में पुलिस और नक्सलियों के बीच एक मुठभेड़ हुई, जिसमें खबर आई कि पुलिस द्वारा एक नक्सली मारा गया। वास्तव में सच्चाई कुछ और ही थी।
मारा गया मोतीलाल बास्के एक ग्रामीण था जो मूल रूप से झारखंड के धनबाद जिला के तोपचांची प्रखंड के चिरूवाबेड़ा गांव का रहने वाला था, लेकिन कुछ दिनों से अपने ससुराल गिरिडीह जिला के पीरटांड़ प्रखंड के ढोलकट्टा में रह रहा था। वह एक डोली मजदूर था जो ‘मजदूर संगठन समिति’ और आदिवासी संगठन ‘मरांङ बुरू सांवता सुसार बैसी’ का सदस्य था, पहाड़ी पर अपनी छोटी सी दुकान चलाता था, जंगल कभी-कभी लकड़ी काटने जाता था, डोली मजदूरी करके भी घर चलाता था। इंदिरा आवास का लाभार्थी था, जिसका घर बनना शुरू हो चुका था।
इन सारे डाटा के साथ वह एक सीधा-साधा ग्रामीण था मगर पुलिस वालों ने, सीआरपीएफ और कोबरा बटालियन ने उसकी निर्मम हत्या कर उसे माओवादी बता दिया।
जब यह घटना प्रकाश में आयी तो धीरे-धीरे सारी सच्चाई सामने आ गयी।
एक आदिवासी की हत्या पर प्रशासन का जश्न और मीडिया का मोतियाबिन्द
कहा जा सकता है कि यह जानते हुए कि वह एक ग्रामीण है, पुलिस वालों ने उसे जबरन माओवादी बनाकर अपनी वाहवाही बटोरनी चाही।
अखबारों के अनुसार जैसा कि ग्रामीण बताते हैं, उस दिन पहाड़ों से फायरिंग की आवाज आने के बाद पुलिस बल गांव में फायरिंग करती हुई उतरी। गांव के कुछ ग्रामीण को अपने साथ ले गयी, खटिया मंगवाया, उस पर मृतक मोतीलाल बास्के को रखवाकर जंगल में कुछ दूर ले गये वहां उसे जमीन पर रखवाकर उन्हें वापस भेज दिया। जब मोतीलाल बास्के की लाश को ग्रामीण ने देखा था, तब उसके पास कोई हथियार नहीं था, मगर बाद में जो फोटो आई उसमें राइफल बगल में साफ नजर आ रही है।
हम इससे पूरे घटना को साफ-साफ समझ सकते हैं।
कोई शक नहीं कि पुलिस वालों ने एक निर्दोष को मारकर इनाम के लालच मे प्लानिंग के साथ उसे माओवादी बताया और अपनी पीठ थपथपाई।
सरकारी पैसों का बंदरबांट-
निर्दोष ग्रामीण को मारकर, उसे माओवादी बताकर अपनी पीठ थपथपाकर पुलिस ने सरकारी पैसों का जबरदस्त बंदरबांट किया। 11 लाख कोबरा बटालियन को और 1 लाख जश्न मनाने के लिए गिरिडीह एसपी अखिलेश. एस.वारियर को देकर पूरे सरकारी खजाने की लूट मचाई, जो डायरेक्ट व इनडायरेक्ट ऐसी ही मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई का एक हिस्सा है। साथ ही 274 लाख रूपये नक्सलियों को मार इनाम ले जाने के लिए रख दिया गया है।
अब सवाल उठता है कि क्या जनता अपनी गाढ़ी कमाई से हिस्सा काटकर टैक्स इसलिए ही देती है ताकि उनके पैसों का इस तरह दुरूपयोग किया जाए? क्या वो पैसे ऐसे पुलिसबल, कोबरा बटालियनों की देख-रेख के लिए, उनके हथियार के लिए ही देती है जो जनता को ही अपने हथियार का निशाना बनाती है और पैसों की इस तरह से लूटखसोट मचाती है?
मगर इस बेशर्मी के साथ जनता के पैसों को लूटते हुए वे यह कहते भी गए कि नक्सली मारिये, इनाम लेते जाइए।
यह है इनका नक्सल मुक्त अभियान?
अगर इसी तरह ये नक्सली मारते रहे और जनता चुप रही, तो जहां भी ‘नक्सल मुक्त अभियान’ चल रहा हो वहां के पूरे गांव वाले इनके हाथों साफ हो जाएंगे और ये खुद अपना पीठ थपथपाएंगे कि सारे नक्सलियों को मार दिये। इतना कुछ हो जाने के बाद भी इनके खिलाफ सरकार की ओर से कार्रवाई के लिए कोई सुगबुगाहट नहीं नजर आई है। बल्कि जितने भी सच का खुलासा हुआ है वह मजदूर संगठनों और जनता के मेहनत के बदौलत ही हुआ है। आगे भी जो भी कदम उठाए जाएंगे जनता के दबाव के कारण ही। ये है हमारे प्रशासन और सरकार की गैरजिम्मेदाराना तस्वीर!
हिंसक कौन है-
माओवादियों को सरकार ने देश का सबसे बड़ा आंतरिक खतरा घोषित कर दिया है। उनके हथियारबंद होने के कारण उन्हें प्रतिबंधित कर दिया गया है।
आए दिन यह भी खबर दी जाती है कि गांव वाले नक्सली के कारण दहशत में है। जैसे उनकी हिंसा से सब भयभीत हैं। इसलिए उनका सफाया करना सबसे बड़ा और प्राथमिक काम बताया गया है। उनसे लड़ने के लिए सेना पर सेना तैयार किये जा रहे हैं, सरकारी खजाने का बड़ा हिस्सा इस ओर खर्च किया जा रहा है। (भले गांव में स्कूल बने या ना बने शिक्षक हो या ना हो, भले ही ग्रामीणों को सरकारी योजनाओं के लाभ मिले या ना मिले मगर सेना के लिए पूरे कार्यक्रम हमेशा जमीन पर उतरते हैं।
कोबरा बटालियन, सीआरपीएफ के जवानों की भरती और उनकी ट्रेनिंग की सुविधा, हथियार का बंदोबस्त होता है।) मगर यह घटना भी इस बात का प्रमाण पेश करती है कि जनता की नजरों में वाकई में हिंसक कौन है।
जहां जनता हर हालत में शांत जीवन को ही पसंद करती है वह खुद तय कर सकती है कि उनके लिए उनकी मूलभूत जरूरतों के लिए कौन उनके साथ है कौन नहीं।
इस घटना में देखा जाए तो जब पुलिस पहाड़ों में फायरिंग कर रही थी काफी लोग गांव छोड़कर भाग गये, जो गांव में थे अपने घर के दरवाजे बंद करके दुबक गये। पुलिस जब पहाड़ों से नीचे उतरी तो गांव में फायरिंग करती हुई आगे बढ़ी। किसी का छप्पर टूटा, तो किसी का दरवाजा किसी को जबरन खींचकर बाहर ले आए। ग्रामीणों के साथ मारपीट किया फिर नक्सलियों के बारे में पूछने लगे और जवाब ‘नहीं जानते’ मिलने पर गांव वालों पर नक्सली होने का आरोप और नक्सलियों को छुपाने का आरोप लगाने लगे। गांव वाले किसकी दहशत से भयभीत है यह साफ समझा जा सकता है।
पुलिस वालों की भी बातों से यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ग्रामीण उनकी हिंसक गतिविधियों से भयभीत है और नक्सलियों के प्रति उनके रवैये सहयोगात्मक है क्योंकि एक तरफ जहां पुलिस वालों के डर से लोग गांव छोड़कर भाग खड़े होते है, वहीं लाख मारने-पीटने पर भी नक्सलियों के खिलाफ कुछ नहीं बोलते।
पुलिस यह शक करती है कि वे नक्सलियों को बचा रहे हैं, छुपा रहे हैं व साथ दे रहे है।
जनता क्यों किसी हिंसक दस्ते का साथ देगी?
जनता क्यों किसी आतंकी संगठन का साथ देगी? जो देश के लिए खतरनाक है जनता क्यों उस खतरे को पनाह देगी? आखिर जनता ही तो देश की बुनियाद है और यह किसी एक गांव की कहानी नहीं है जहां भी नक्सलियों के होने का अंदेशा लगाया जाता है वहां के ग्रामीणों को इस लिए प्रताडि़त किया जाता है कि वे नक्सलियों का साथ दे रहे हैं।
एक लोकतांत्रिक देश में जनता तो उसी का साथ देगी जो जनता के हितैषी हो। जिस संगठन से जनता इतना प्यार करती है और जिस पर इतना विश्वास करती है उसे कैसे खतरनाक कहा जा सकता है? जाहिर है पुलिस भी मानती है कि वे जनता के हितैषी हैं। तब सोचने वाली बात है कि किसे ज्यादा हिंसक माना जाए जिसके दहशत से ग्रामीण भाग जाते है उन्हें या जिनपर वे भरोसा करते हैं उन्हें। नक्सलियों को पकड़ने के लिए आज सेना पर सेना तैयार किये जा रहे है। गांव वालों पर हर तरह के जुल्म-अत्याचार किये जा रहे हैं मगर फिर भी जब उनके हाथ कुछ नहीं लगता तो निर्दोष को ही नक्सली बताकर उसपर अपना भड़ास निकालते हैं। अगर नक्सली अपनी हिंसा के लिए आलोचना के पात्र हैं तो इन्हें किस तरह का तमगा दिया जा सकता है?
क्या है ऐसी वारदातों का असली मकसद
वास्तव में इन घटनाओं को अंजाम देने के पीछे सरकार का मकसद ही कुछ और है। सेना तो एक हथियार है जिसे सरकार द्वारा कारपोरेट घराने अपने मुनाफा के लिए अपनी संपत्ति बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करती है। झारखंड की कृषि योग्य भूमि को कारपोरेट को बेचने के लिए।
किसानों के पास, आदिवासियों के पास जमीन है जिसपर फसल उगाकर वे अपना भरण पोषण करते हैं, सरकार उन जमीनों को लेकर कारपोरेट को देना चाहती हैं, जहां फैक्ट्रिया लगाई जाएंगी। इसके लिए सरकार जमीन के लिए बड़े-बड़े एमओयू करती है कारपोरेटरों के साथ। सीएनटी-एसपीटी एक्ट जो कि भोले भाले आदिवासियों की जमीन बचाने के लिए ब्रिटिश सरकार के समय काफी संघर्ष के बाद बनाया गया था जिसके तहत आदिवासियों की जमीन कोई गैरआादिवासी नहीं खरीद सकता और न ही उनकी कृषि योग्य भूमि उद्योग के लिए उपयोग किया जा सकता है।
इस सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन का प्रस्ताव रखा गया है जिसमें सरकार कृषि योग्य भूमि और उद्योग के जमीन के विभाजन रेखा को खत्म करके हर जमीन को उद्योगों के लिए मुहैया करा देगी। वैसे बिना सीएनटी-एसपीटी में संशोधन के भी जमीनों की लूट चालू है मगर यह संशोधन उन्हें कानूनी हक दे देगा जमीन लूटने की। अपने इस उद्देश्य के खिलाफ में जनता की उठती आवाज को दबाने के लिए सरकार सेना का इस्तेमाल करती है।
जितने ज्यादा जमीन के अधिग्रहण उतना ज्यादा लोगों की सेना में भर्ती। उतना ज्यादा सेना आम जनता का खास कर भोले-भाले आदिवासियों का दमन करेगी।
इसी दमन के खिलाफ भाकपा (माओवादी) ऐसे ही सवालों को लेकर इन ग्रामीणों के साथ खड़े हैं इसलिए माओवादियों का खात्मा सरकार के लिए अहम् कार्य बन गया है। झारखंड में माओवदियों को हम इसी रूप से समझ सकते हैं, किसानों के पक्ष से लड़ने वाला हथियारबंद दस्ता। यह कैलकुलेशन सिर्फ हमारा नहीं बल्कि खुद सरकार का भी है।
आए दिन सरकार कोहराम मचाती है कि नक्सलियों ने यहां रोड बनने नहीं दिया, विकास को वे बाधित कर रहे हैं। और सरकार के विकास का स्वरूप ऐसा है जिसमें गरीब किसानों को उनकी जमीन से बेदखल किया जाता है, सेना द्वारा बलपूर्वक विस्थापित किया जाता है और वह जमीन बड़े कारपोरेटरों के नाम कर दिया जाता है।
क्या शहरीकरण से बेराजेगारी व गरीबी खत्म हो गयी है? लोग आराम में हैं?
सरकार किसे विकास का नाम देती है रोड का बनना, कम्पनियों का खुलना, उद्योगों का लगना, रोड तो शहरों में भी बने हुए है, कम्पनियां तो शहरों में भी बहुत है, उद्योग तो शहरों में भी बहुत है तो क्या शहरीकरण से बेराजेगारी व गरीबी खत्म हो गयी है? लोग आराम में हैं?
दरअसल इस विकास में जितने लोगों को आवास और रोजगार दिया जाता है, उससे कहीं ज्यादा लोगों को विस्थापित और लोगों का रोजगार छीना जाता है, बेरोजगार किया जाता है। अगर इस तरह के विकास का विरोध किया जाए तो उसमें बुराई क्या है? क्या सही है, जमीन बचाने की लड़ाई लड़ना या सरकार के इस विकास का मॉडल?
जनता की आवाज- मोतीलाल बास्के की हत्या का खुलासा न ही किसी इंटेलिजेस ब्यूरो ने किया और न ही किसी ईमानदार अफसर ने आकर और न ही सरकार ने। बल्कि इसपर आवाज उठा तो जनता की आवाज उठी, जनता की हितैषी संगठनों की आवाज उठी, मजदूर की हत्या पर मजदूर संगठन ’मजदूर संगठन समिति’ और ‘मरांङ बुरू सांवता सुसार बैसी’ ने आवाज उठाने की पहल की। आवाज ही नहीं उठाया पूरी सच्चाई निकालकर बाहर ले आई और उसके बाद और भी संगठन व राजनीतिक दलों ने भी इस ओर साकारात्मक पहल की और इस फर्जी मुठभेड़ के खिलाफ दमन विरोधी मोर्चा बनाकर लड़ाई लड़ रही है, जिसमें कई राजनीतिक पार्टी को भी शामिल होने को मजबूर होना पड़ा है। यहां तक कि झारखंड के तीन पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन, हेमन्त सोरेन व बाबूलाल मरांडी को भी जनता के सुर में सुर मिलाना पड़ा।
दमन विरोधी मोर्चा ने 14 जून के महापंचायत, 17 जून के मधुबन बंद व 21 जून के गिरिडीह में आयेजित धरना में जनता की ताकत दिखला दी है, अब आगे 3 जुलाई के गिरिडीह बंद की बारी है। चूंकि जनता की आवाज का नेतृत्व कोई वोटबाज पार्टी के द्वारा नहीं बल्कि मजदूर संगठन समिति के द्वारा किया जा रहा है, इसलिए किसी भी तरह के लालच से परे यह आवाज आगे और बढ़ रही है।
मोतीलाल बास्के के परिवार के साथ न्याय के लिए और डीजीपी के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए। इतने बड़े कदम के बाद भी जितना संभव हो सका सरकार और प्रशासन चुप बैठी रही।
खैर जनता को जो कदम उठाना है सरकार की चुप्पी के बावजूद भी वह उन कदमों को उठाएगी ही और न्याय के लिए हर संभव प्रयास करेगी ही, मगर इससे सरकार और प्रशासन की असली चरित्र को पहचाना जा सकता है और इनके द्वारा चिन्हित संगठनों को जिसे ये आंतरिक बड़ा खतरा बताती है, वाकई में देश के लिए कितने खतरनाक हो सकते है? इस बात पर गहरी चिंतन की जा सकती है।
Ilika priy
Story writer & painter
Bokaro steel city (jharkhand)


