अभिषेक श्रीवास्तव की रिपोर्ताज-इब तो आम आदमी की बारी है
नई दिल्ली। हस्तक्षेप के साथी पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव लगातार दिल्ली विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र दिल्ली और आस-पास घूम रहे हैं। उनकी पारखी नज़र आम आदमी का चेहरा और मनोभाव पढ़ रही है। पहली कड़ी में इब तो आम आदमी की बारी है.....
अभी दो दिन पहले दिल्‍ली से टहल-फिर कर रात में जब मैं घर लौट रहा था, तो अपनी गली में कुछ बच्‍चे एक जगह इकट्ठा दिखे। वे सब आकाश में देख रहे थे जैसे कुछ बूझने की कोशिश कर रहे हों। ये बच्‍चे मुझे शक्‍ल से जानते हैं। रोज़ देख-देख कर मुस्‍कराते हैं। इनमें एक नहर वाली बच्‍ची भी है। इस मोहल्‍ले में उसकी पहली पहचान ग़ाजियाबाद के वैशाली और इंदिरापुरम इलाकों को बांटने वाली एक नहर से है जहां बरसों पहले उसे फेंका हुआ पाया गया था। मेरे बगल की बिल्डिंग में रहने वाले लम्‍बू उसे अपने घर ले आए थे और अपने बच्‍चों के साथ पाल कर उसे बड़ा किया। उसी बच्‍ची ने सबसे पहले मुझे आते देख पूछा, "अंकल, ये बताओ ये चांद चल रहा है कि बादल?" मैंने आकाश में देखा।
पहली नज़र में बादलों के झुटपुटे में चांद चलता हुआ नज़र आया। ध्‍यान से देखा तो चांद स्थिर था, बादल चल रहे थे। मैंने यही जवाब दिया।
नहर वाली बच्‍ची ने फिर पूछा, "अंकल, अगर बादल चल रहा है तो चांद बार-बार छुप क्‍यों जा रहा है?"
मैंने सोचा, उसे कहूं कि धरती भी तो चल रही है जिस पर वो खड़ी है, लेकिन मैं चुप रह गया। मेरी चुप्‍पी से बच्‍चे इस निष्‍कर्ष पर पहुंचे कि चांद ही चल रहा था। नहर वाली बच्‍ची मेरी हार से खुश थी। उसे उन बादलों का ज़रा भी अहसास नहीं था, जो पिछले कुछ दिनों से चांद पर मंडरा रहे थे।
जाने कितने दिनों से ये बादल मेरे इलाके में मौजूद थे, लेकिन मुझे उसी सुबह इनकी झलक मिली थी जब मैं घर से निकला था। उस वक्‍त लम्‍बू का पान-प्रेमी भतीजा बबलू की पान की दुकान पर खड़ा मिला था। वह दर्जी है। बबलू के ठीक बगल में वह अपनी दुकान लगाता है। दुकान मने एक स्‍टूल, एक मेज़ और एक सिलाई मशीन। उससे कुछ मीटर आगे लम्‍बू की पत्‍नी और ढेर सारे बच्‍चे चाय का ठीहा संभालते हैं। नहर वाली बच्‍ची भी यहीं बैठती है। लम्‍बू रिक्‍शा भी चलाते हैं। कभी-कभार गर्मियों में नहर वाली बच्‍ची गली के बाहर भुट्टा भी बेचती दिख जाती है। भरा-पूरा परिवार है। मेरे बगल वाली बिल्डिंग से उसका क्‍या रिश्‍ता है, ये मैंने आज तक पता नहीं किया। वह किरायेदार है या मकान मालिक, अवैध कब्‍ज़ा है या किसी का मकान अगोरता है, मैं नहीं जानता। मेरी गली इस मामले में बहुत रहस्‍यमय है। छह साल पहले जब मैं यहां आया था तो सामने वाली बिल्डिंग में एक सब्‍ज़ी वाला रहता था। कुछ दिनों बाद वो पीलिया से मर गया। दो दिनों तक उसकी लाश ठेले पर ढंकी पड़ी रही। मेरी बालकनी से सामने ही फूली हुई लाश दिखती थी। दूसरे दिन पता चला कि दफ़नाने के लिए परिवार के पास पैसे नहीं थे। गली के बाशिंदों से पैसे जुटाकर उसका काम निपटाया गया। मैंने तब भी नहीं पता किया कि कौडि़यों का मोहताज वह परिवार उस एमआइजी फ्लैट में क्‍या कर रहा था। लम्‍बू तब से या उससे पहले से यहां रह रहे हैं।
ऐसे बहुत से चेहरे हैं मेरे पड़ोस में जिनके नाम मैं नहीं बता सकता। कभी पूछा ही नहीं। सब एक-दूसरे को चेहरे से जानते हैं। लम्‍बू का भतीजा मुझे पान की दुकान पर सवेरे-सवेरे देखकर मुस्‍कराया, जैसा वह रोज़ करता है। अभी उसका पान लग रहा था। उसके बाद मेरी बारी थी। नालियों से ताज़ा-ताज़ा कूड़ा निकाला गया था। कूड़े की भीनी-भीनी सोंधी महक धूपबत्‍ती के साथ मिलकर अजब माहौल रच रही थी। इसके रचयिता बेलदार बगल में ही बैठे थे। मैंने उनकी ओर देखते हुए कहा- शुक्र है दो साल बाद नगर निगम को सफाई की याद तो आई। बेलदार के शरीर में कोई हरकत नहीं हुई लेकिन ठीहे पर पान लगाते बबलू के छोटे भाई ने गरदन झुकाए-झुकाए ही टिप्‍पणी की, "भइया, यहां मुल्‍ले बहुत बढ़ गए हैं, इसीलिए गंदगी भी ज्‍यादा है।" मैंने कहा, "मतलब?" उसने लम्‍बू के भतीजे को कनखियाते हुए कहा, "देखो, नाली में से सब कपड़ा ही कपड़ा निकला है जो ये साला दिन भर काट-काट के फेंकता रहता है। सफाई करनी है तो पहले मुल्‍लों को यहां से हटाओ।" बात मेरी समझ में अब आई। लम्‍बू के भतीजे ने पान की पीक नाली में मारी और मेरी ओर देखकर पनवाड़ी पर तंज़ किया, "इसके ताऊ ने साफ की है ये नाली, जो इतना बोल रिया है। अबे, मुल्‍ला गंदा करता है तो मुल्‍ला ही साफ भी करता है।" उधर से पान बढ़ाते हुए बबलू का भाई हंसते हुए बोला, "मुलायम सरकार के कारण इनका दिमाग खराब है आजकल।" अपनी स्‍टूल की ओर मुड़ते हुए लम्‍बू के भतीजे ने जवाब दिया, "जाने दे... मुलायम भी जाओगो... इब तो आम आदमी की बारी है।"