एच एल दुसाध
ज्ञान को वंचित मानवता की मुक्ति का हथियार बनाने वाले भारत रत्न डॉ।आंबेडकर के जीवन में अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय का खास महत्व है। यही वह विश्वविद्यालय है जहाँ 1913 में बड़ौदा नरेश सियाजी राव गायकवाड से छात्रवृत्ति पाकर वे उच्च शिक्षा के लिए पहली बार विदेश की धरती पर कदम रखे थे। उसी कोलंबिया विश्वविद्यालय ने 2004 में अपनी स्थापना की 250वीं वर्षगांठ मनाई। तब ‘स्कूल ऑफ इंटरनेशनल एंड पब्लिक अफेयर्स’(सीपा)की ओर से कई कार्ड जारी किये गये, जिसमें विश्वविद्यालय के 250 सालों के इतिहास के 40 ऐसे महत्वपूर्ण लोगों के नाम थे जिन्होंने वहां अध्ययन किया तथा ‘दुनिया को प्रभावशाली ढंग से बदलने में महत्वपूर्ण योगदान किया’। ऐसे लोगों में डॉ. आंबेडकर का नाम पहले स्थान पर था।काबिले गौर है कि इसे अबतक 95 नोबेल पुरस्कार विजेता देने का गौरव प्राप्त है। डॉ. आंबेडकर की अहमियत यहाँ यह है कि कोलंबिया विवि ने उन्हें अपने ढेरों नोबेल विजेता छात्रों के ऊपर तरजीह दिया। बहरहाल यहाँ सवाल पैदा होता है क्या डॉ।. आंबेडकर दुनिया को बदलनेवाले सिर्फ कोलंबिया विवि से संबद्ध लोगों में ही सर्वश्रेष्ठ थे या उससे बाहर भी?
दुनिया बदलने वालों की श्रेणी में उन महामानवों को शुमार किया जाता है जिन्होंने ऐसे समाज-जिसमें लेशमात्र भी लूट-खसूट,शोषण-उत्पीड़न नहीं होगा;जिसमें मानव-मानव समान होंगे तथा उनमें आर्थिक-सामाजिक विषमता नहीं होगी-का न सिर्फ सपना देखा बल्कि उसे मूर्त रूप देने के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया। ऐसे लोगों में बुद्ध, मज्दक, अफलातून, सैनेका, हाब्स-लाक, रूसो-वाल्टेयर, पीटर चेम्बरलैंड, टामस स्पेन्स,विलियम गाडविन, फुरिये, प्रूधो, चार्ल्सहाल, राबर्ट ऑवेन, मार्क्स, लिंकन, लेनिन, हो ची मिन्ह, माओ, आंबेडकर इत्यादि की गिनती होती है। ऐसे महापुरुषों में बहुसंख्य लोग कार्ल मार्क्स को ही सर्वोतम मानते हैं। ऐसे लोगों का दृढ़ विश्वास रहा है कि मार्क्स पहला व्यक्ति था जिसने विषमता की समस्या का हल निकालने का वैज्ञानिक ढंग निकाला; इस रोग का बारीकी के साथ निदान किया और उसकी औषधि को भी परख कर देखा। किन्तु मार्क्स को सर्वश्रेष्ठ मानने वालों ने कभी उसकी सीमाबद्धता को परखने की कोशिश नहीं की। मार्क्स ने जिस गैर-बराबरी के खात्मे का वैज्ञानिक सूत्र दिया उसकी उत्पत्ति साइंस और टेक्नालोजी के कारणों से होती रही है। उसने जन्मगत कारणों से उपजी शोषण और विषमता की समस्या को समझा ही नहीं। जबकि सचाई यह है कि मानव-सभ्यता के विकास की शुरुआत से ही मुख्यतः जन्मगत कारणों से ही सारी दुनिया में विषमता का साम्राज्य कायम रहा जो आज भी काफी हद तक अटूट है। इस कारण ही सारी दुनिया में महिला अशक्तिकरण एवं नीग्रो जाति का पशुवत इस्तेमाल हुआ। इस कारण ही भारत के दलित-पिछड़े हजारों साल से शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक) से लगभग पूरी तरह बहिष्कृत रहे।
दरअसल तत्कालीन यूरोप में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप पूंजीवाद के विस्तार ने वहां के बहुसंख्यक लोगों के समक्ष इतना भयावह आर्थिक संकट खड़ा कर दिया कि मार्क्स पूंजीवाद का ध्वंस और समाजवाद की स्थापना को अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बनाये बिना नहीं रह सके। इस कार्य में वे जूनून की हद तक इस कदर डूबे कि जन्मगत आधार पर शोषण,जिसका चरम प्रतिबिम्बन भारत की जाति-भेद और अमेरिका-दक्षिण अफ्रीका की नस्ल-भेद व्यवस्था में हुआ,शिद्दत के साथ महसूस न कर सके। पूंजीवादी व्यवस्था में जहाँ मुट्ठी भर धनपति शोषक की भूमिका में उभरता है वहीँ जाति और नस्लभेद व्यवस्था में एक पूरा का पूरा समाज शोषक तो दूसरा शोषित के रूप में नज़र आते हैं। पूंजीपति तो सिर्फ सभ्यतर तरीके से आर्थिक शोषण करते रहे हैं, जबकि जाति और रंगभेद व्यवस्था के शोषक अकल्पनीय निर्ममता से आर्थिक शोषण करने के साथ ही शोषितों की मानवीय सत्ता को पशुतुल्य मानने की मानसिकता से पुष्ट रहे। खैर जन्मगत आधार पर शोषण से उपजी विषमता के खात्मे का जो सूत्र न मार्क्स न दे सके, इतिहास ने वह बोझ डॉ. आंबेडकर के कन्धों पर डाल दिया, जिसका उन्होंने नायकोचित अंदाज़ में निर्वहन किया।
जन्माधारित शोषण का सबसे बड़ा दृष्टान्त भारत की जाति-भेद व्यवस्था में स्थापित हुआ। भारत में सहस्रों वर्षों से आर्थिक और सामाजिक विषमता के मूल में रही है सिर्फ और सिर्फ जाति/वर्ण-व्यवस्था। इसमें अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, राज्य संचालन में मंत्रणादान, राज्य-संचालन, सैन्य वृति, व्यवसाय-वाणिज्य इत्यादि के अधिकार सिर्फ द्विज वर्ग के हिस्से में रहे। चूँकि इस व्यवस्था में ये सारे अधिकार जाति/वर्ण सूत्र से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांरित होते रहे इसलिए वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण – व्यवस्था का रूप ले लिया। इस आरक्षण में दलित-पिछड़े शक्ति के सभी स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत रहे।
वर्ण–व्यवस्था के वंचितों में अस्पृश्यों की स्थिति मार्क्स के सर्वहाराओं से भी बहुत बदतर थी। मार्क्स के सर्वहारा सिर्फ आर्थिक दृष्टि से विपन्न थे, पर राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक क्रियाकलाप उनके लिए मुक्त रहे। विपरीत उनके भारत के दलित सर्वस्वहारा थे जिनके लिए आर्थिक, राजनीतिक के साथ ही धार्मिक और शैक्षणिक गतिविधियां भी धर्मादेशों से पूरी तरह निषिद्ध रहीं। यही नहीं लोग उनकी छाया तक से दूर रहते थे। ऐसी स्थिति दुनिया किसी भी मानव समुदाय की कभी नहीं रही। यूरोप के कई देशों की मिलित आबादी और संयुक्त राज्य अमेरिका के समपरिमाण संख्यक सम्पूर्ण अधिकारविहीन इन्ही मानवेतरों की जिंदगी में सुखद बदलाव लाने का असंभव सा संकल्प लिया था डॉ. आंबेडकर ने। किस तरह तमाम प्रतिकूलताओं से जूझते हुए दलित मुक्ति का स्वर्णीय अध्याय रचा, वह एक इतिहास है जिससे हमसब भलीभांति वाकिफ हैं।
डॉ. आंबेडकर ने दुनिया को बदलने के लिए किया क्या? उन्होंने सदियों शक्ति के सभी स्रोतों से वहिष्कृत किये गये मानवेतरों के लिए संविधान में आरक्षण के सहारे शक्ति के कुछ स्रोतों(आर्थिक(सरकारी नौकरियों) और राजनीति) में संख्यानुपात में हिस्सेदारी सुनिश्चित कराया। परिणाम चमत्कारिक रहा। जिन दलितों के लिए कल्पना करना दुष्कर था, वे झुन्ड के झुण्ड एमएलए, एमपी, आईएएस, पीसीएस, डाक्टर, इंजीनियर इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्यधारा जुड़ने लगे। दलितों की तरह ही दुनिया के दूसरे जन्मजात सर्वहाराओं-अश्वेतों, महिलाओं इत्यादि-को जबरन शक्ति के स्रोतों दूर रखा गया था। भारत में आंबेडकरी आरक्षण के, आंशिक रूप से ही सही, सफल प्रयोग ने दूसरे देशों के सर्वहाराओं के लिए मुक्ति के द्वार खोल दिए। आंबेडकरी प्रतिनिधित्व(आरक्षण) का प्रयोग अमेरिका, इंग्लैण्ड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, मलेशिया, आयरलैंड ने अपने –अपने देश के जन्मजात वंचितों को शक्ति के स्रोतों में उनकी वाजिब हिस्सेदारी देने के लिए किया। इस आरक्षण ने तो दक्षिण अफ्रीका में क्रांति ही घटित कर दिया। वहां जिन 9-10 प्रतिशत गोरों का शक्ति के समस्त केन्द्रों पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा था, वे जहां अपने संख्यानुपात पर सिमटने के लिए बाध्य हुए, वहीँ सदियों के वंचित मंडेला के लोग हर क्षेत्र में अपने संख्यानुपात में भागीदारी पाने लगे। इसी आरक्षण के सहारे सारी दुनिया में महिलाओं को राजनीतिक, आर्थिक इत्यादि क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कराने का अभियान जारी है। यह सही है कि सम्पूर्ण विश्व में ही आंबेडकरी आरक्षण ने जन्मजात सर्वहाराओं के जीवन में भारी बदलाव लाया है। पर अभी भी इस दिशा में बहुत कुछ करना बाकी है। बहरहाल आज की तारीख में जहां मार्क्सवाद एक यूटोपिया बनकर रह गया है, कुछ कमियों और सवालों के बावजूद आंबेडकरवाद की प्रासंगिकता बढती ही जा रही है। और यह तब तक प्रासंगिक रहेगा जब तक मानव जाति जन्मगत कारणों से शोषित-उत्पीड़ित होती रहेगी।
एच एल दुसाध, लेखक बहुजन चितक, स्वतंत्र टिप्पणीकार एवं बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।