जब-जब लोकतंत्र पर खतरे होते हैं तो न्यायपालिका ही लोकतंत्र को उन खतरों से बचाती है
जब-जब लोकतंत्र पर खतरे होते हैं तो न्यायपालिका ही लोकतंत्र को उन खतरों से बचाती है

Whenever there are threats to democracy, it is the judiciary that saves democracy from those dangers.
न्यायमूर्ति जगदीश सिंह खेहर ने ऐसे समय देश के मुख्य न्यायाधीश का पद संभाला है जब न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच में तनावपूर्ण संबंध चल रहे हैं। पिछले मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर का कार्यकाल उनके अनेक विवादग्रस्त निर्णयों और बयानों से भरपूर रहा है। अनेक मुद्दों पर न्यायमूर्ति ठाकुर और कार्यपालिका के बीच में मतभेद स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आए। न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच में तनावपूर्ण संबंध देश के हित में नहीं हैं।
हमारी सर्वोच्च न्यायपालिका की सबसे बड़ी समस्या यह है कि मुख्य न्यायाधीश को बहुत कम समय, इस महान पद पर बने रहने का, मिलता है। जैसे वर्तमान न्यायाधीश 27 अगस्त को सेवा-निवृत्त हो जाएंगे।
अभी हाल में न्यायमूर्ति ठाकुर के विदाई के अवसर पर उन्होंने जो भाषण दिया उसकी सार्वजनिक रूप से आलोचना केन्द्रीय विधिमंत्री रविशंकर प्रसाद ने की। इस समय सर्वोच्च न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच में विवाद का मुख्य मुद्दा उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के पदों पर नियुक्ति है।
देश के 24 उच्च न्यायालयों में इस समय 430 न्यायाधीशों के पद खाली हैं। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की स्वीकृति प्राप्त पदों की संख्या 1,079 है जबकि सिर्फ 649 पद भरे हुए हैं। न्यायमूर्ति ठाकुर बार-बार यह अनुरोध करते रहे कि कार्यपालिका इन खाली पदों को भरने के लिए त्वरित कदम उठाए परंतु ऐसा नहीं हुआ। एक ऐसे गंभीर मुद्दे का संबंध इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति से है।
केन्द्रीय सरकार ने उन न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए प्रस्तावित 13 उम्मीदवारों के नामों को मंजूर नहीं किया और दूसरी बार भी सर्वोच्च न्यायालय को वापस भेज दिया। नियमानुसार सरकार एक बार ही नियुक्ति के लिए प्रस्तावित नाम वापस भेज सकती है परंतु सरकार ने दूसरी बार इन नामों को वापस भेजा, जिससे न्यायपालिका और सरकार के बीच में संबंध तनावपूर्ण हो गए।
अब चूंकि नए मुख्य न्यायाधीश ने कार्यभार संभाला है इसलिए उनसे यह अपेक्षा की जाएगी कि वे सरकार और न्यायपालिका के संबंधों को मधुर बनाएं।
न्यायमूर्ति खेहर एक बहुत ही अनुभवी न्यायाधीश हैं। उनके नेतृत्व वाली बेंच ने ही न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए प्रस्तावित आयोग की व्यवस्था को अमान्य किया। बाद में उन्हीं के नेतृत्व में नियुक्ति की अगली व्यवस्था क्या हो इसके बारे में विचार करने वाली बेंच गठित की गई थी। इस बेंच का नेतृत्व करते ही उन्होंने इस बात पर सिफारिश की है कि नियुक्ति की वर्तमान कॉलेजियम व्यवस्था पारदर्शी बनाई जाए। अब चूंकि वे स्वयं मुख्य न्यायाधीश के पद पर हैं, इसलिए कॉलेजियम व्यवस्था किस ढंग से पारदर्शी बनाई जाए इस संबंध में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी।
इस बात में कोई संदेह नहीं कि यदि न्यायायिक आयोग की व्यवस्था को मान्य कर दिया जाता तो उच्च न्यायपालिका के पदों पर नियुक्ति में प्रशासन का हस्तक्षेप बढ़ सकता था। परंतु यह कहना भी सही नहीं है कि कॉलेजियम व्यवस्था ही सर्वश्रेष्ठ है।
यद्यपि इस बात को स्वीकारना होगा कि कॉलेजियम व्यवस्था में राजनैतिक हस्तक्षेप की गुंजाइश कम है। परंतु इस व्यवस्था के चलते अनेक बार कॉलेजियम के सदस्यों के ऊपर पक्षपात का आरोप लगता रहा है।
इस आरोप से उसी समय बचा जा सकता है जब कॉलेजियम व्यवस्था को पारदर्शी बनाया जाए। इस संबंध में अमरीका की व्यवस्था काफी बेहतर है।
अमरीका में उच्च न्यायपालिका के पदों पर नियुक्ति के मामले वहां की सीनेट के समक्ष विचार के लिए जाते हैं। सीनेट में प्रस्तावित उम्मीदवारों के नाम पर खुली बहस होती है और यदि प्रस्तावित उम्मीदवारों के बारे में कोई प्रतिकूल बातें पता लगती हैं तो राष्ट्रपति को अपना प्रस्ताव वापस लेना पड़ता है।
हमारे देश में भी यदि उच्च न्यायिक पदों पर प्रस्तावित व्यक्तियों के नाम पर सार्वजनिक रूप से विचार हो तो कॉलेजियम के सदस्य पक्षपात के आरोप से बच सकते हैं।
कॉलेजियम जिन न्यायाधीशों के नाम उच्च न्यायपालिका के पदों पर प्रस्तावित करें उन्हें सार्वजनिक किया जाए और उनके बारे में जनप्रतिक्रिया भी मालूम की जाए। लोकतंत्र में न्यायपालिका का बहुत महत्व है। जब-जब लोकतंत्र पर खतरे होते हैं तो न्यायपालिका ही लोकतंत्र को उन खतरों से बचाती है।
आशा है कि सर्वोच्च न्यायालय के नए मुख्य न्यायाधीश न सिर्फ कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच मधुर संबंध स्थापित करेंगे वरन नियुक्ति कार्यप्रणाली में भी आवश्यक सुधार कर पाएंगे।
-एल.एस. हरदेनिया
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं)


