जब तक जाति रहेगी, तब तक जातीय भेदभाव मौजूद रहेगा और जातीय उत्पीड़न भी होगा
जब तक जाति रहेगी, तब तक जातीय भेदभाव मौजूद रहेगा और जातीय उत्पीड़न भी होगा

जातीय उत्पीड़न और संघर्ष की दिशा
Development of caste system in India
भारत में जाति प्रथा का विकास सामंतवादी व्यवस्था में ही हुआ। जाति प्रथा की उत्पत्ति के प्रारंभिक काल में इसका प्रतिरोध नाममात्र का ही रहा होगा। लेकिन जैसे-जैसे यह सामंती काल में विकसित हो रही थी, इसका विरोध होना भी शुरू हो गया। इस दौर में जाति और वर्ग एक ही थे। जातिगत पेशे प्रारंभिक काल में बदले जा सकते थे। किंतु जाति की जड़ें मजबूत होने के साथ जातिगत पेशों को बदलने पर भी पाबंदी लगा दी गई।
Jyotiba Phule was primarily a social reformer
जाति प्रथा का विरोध (reactance to caste system) प्रारंभ में ज्योतिबा फुले ने किया। निचली जातियां जो अत्यंत भेदभाव का शिकार थीं, ज्योतिबा फुले ने उनकी शिक्षा पर जोर दिया। विशेषतः पहली बार दलित महिलाओं के लिए विद्यालय की व्यवस्था की गई। ज्योतिबा फुले मुख्यत: एक समाज सुधारक थे।
Ramaswamy Periyar also launched a radical movement against the caste system.
रामास्वामी पेरियार ने भी जाति प्रथा के विरोध में अत्यंत रेडिकल आंदोलन चलाया। उन्होंने अत्यंत ही जोरदार ढंग से मनुवादी, ब्राह्मणवादी और जातिवादी व्यव्स्था का विरोध किया। उन्होंने हिंदू धर्म और उसके देवताओं से जुड़े अंधविश्वास को तोड़ने और वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए नए-नए प्रयोग किए। समाजवादी मुल्कों के नेताओं से चर्चा कर एक 20 सूत्रीय कार्यक्रम तैयार किया। इस कार्यक्रम पर वो जीवन के अंतिम क्षणों तक काम करते रहे।
रामास्वामी पेरियार का मानना था कि दलितों की सत्ता में भागीदारी से दलित प्रश्न को हल किया जा सकता है। लेकिन रामास्वामी पेरियार तमिलनाडु तक ही सिमट कर रह गए। वो जाति प्रथा के विरोध के एजेंडे को अखिल भारतीय स्तर तक ले जा पाने में सक्षम नहीं हो पाए।
पेरियार के बाद डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जाति के एजेंडे को राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर रखने में सक्षम साबित हुए। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने ब्राह्मणवादी, मनुवादी व्यवस्था की जमकर धज्जियां उड़ाईं। वे ताउम्र इस जातिवादी और अमानवीय व्यवस्था के विरोध में संघर्ष करते रहे।
Dr. Bhimrao Ambedkar believed in the capitalist democratic parliamentary system.
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने स्वर्ण जातियों द्वारा निर्मित वेदों और शास्त्रों को अपने निशाने पर लिया और बताया कि हिंदू धर्म ही जाति प्रथा की जड़ है।
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर पूंजीवादी जनतांत्रिक संसदीय प्रणाली में विश्वास रखते थे। उनका मानना था, कि कानून बना देने मात्र से जाति को खत्म किया जा सकता है। वैसे उनका जमीन और उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव और कम्युनल अवार्ड जिसमें दलितों के लिए असेंबली और पार्लियामेंट में सभी राज्यों में आरक्षित सीटों और आरक्षित सीटों पर केवल दलितों को ही वोट का अधिकार , सामान्य सीटों पर भी दलितों को वोट का अधिकार, डॉक्टर अंबेडकर के ये दोनों प्रस्ताव जिनको वे भारतीय समाज में जाति प्रथा की चूलों को हिला देने के उपादान के रूप में देख रहे थे, भारतीय संविधान के ड्राफ्ट में शामिल नहीं होने पाए।
पहला, जमीन और उद्योगों के राष्ट्रीयकरण पर संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी सहमत नहीं थी। यहां शासक वर्ग चाहता ही नहीं था, कि सामंती बड़े जमींदारों की जमीन सरकार अपने कब्जे में ले और भारत बड़े उद्योगों को अपने अधीन करे। यह भारत के शासक वर्ग का नीतिगत निर्णय था। और कांग्रेस पार्टी में बड़े सामंती जमींदार स्वयं बैठे हुए थे।
दूसरा प्रस्ताव जो दलितों के दो वोट के अधिकारों से संबंधित था, महात्मा गांधी के घोर विरोध के बावजूद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने स्वीकार कर लिया, किन्तु गांधी जी इस प्रस्ताव, का इसके पास होने के बाद भी विरोध करते रहे और अंततोगत्वा वे इसके विरोध में अनशन पर बैठ गए। डॉक्टर अंबेडकर को बहुत दबाव के बाद इस प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा। पूना पैक्ट के बाद इसके बदले में जो भी सरकारी नौकरियों और राजनीतिक सीटों पर आरक्षण मिला, उसे डॉक्टर अंबेडकर ने पर्याप्त नहीं माना। इससे उन्हें भारी निराशा हुई और यह बात समझ में आ गई कि इस पूंजीवादी संसदीय प्रणाली में जाति प्रथा का विनाश उनके बूते की बात नहीं है। उन्होंने जाति उन्मूलन का सिद्धांत भी पेश किया। लेकिन उससे भी भारत में जाति प्रथा का उन्मूलन नहीं हो पाया।
अंत में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर हिंदू धर्म और भारत की जाति प्रथा की समस्या से पलायन कर गए। नतीजतन आज भी जाति प्रथा भारत की विशिष्टता बनी हुई है।
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के बाद उनका ही नाम लेकर दलित मुक्ति का सपना दिखाने वाली वर्तमान दलित आंदोलन में विभिन्न धाराएं पैदा हो गई हैं, जो देशी -विदेशी सरकारों से करोड़ों रुपए का धन लेकर दलितों मुक्ति के झूठे सपने दिखाकर उन्हें गुमराह कर रही हैं। यह स्वयंसेवी संस्थाएं अपने निहित स्वार्थों के लिए और साम्राज्यवादी और पूंजीवादी सरकारों के एजेंडे पर काम काम कर दलित आंदोलन में पैदा हुए असंतोष को ठंडा करने का काम कर रही हैं। शासक वर्ग, उसके विरोध में चल रहे आंदोलनों को तोड़ने के लिए इन संस्थाओं को पैसा देता है। यह सभी संस्थाएं इस नीति से भलीभांति परिचित हैं, किन्तु स्वयं को मालामाल करने का उनका एकमात्र यही तरीका है। दूसरा, राजनीति में दलितों के बीच से एक ऐसा वर्ग पैदा हुआ है, जो वर्तमान दलित विरोधी मनुवादी व्यवस्था का हिस्सा बन चुका है। वह जाति प्रथा को कतई समाप्त नहीं करना चाहता है। क्योंकि यदि जाति समाप्त हो जाएगी तो वो जातीय वोट बटोर कर मुख्यमंत्री और मंत्री कैसे बन पाएंगे। अरबों-खरबों का धन कैसे आएगा। इस सुविधाभोगी वर्तमान व्यवस्था के समर्थक दलित नेताओं को दलितों के उत्पीड़न और अत्याचारों से कोई सरोकार नहीं है। भारत की संसद और विधानसभाओं में बैठकर यह दलित नेता निजीकरण और दलित विरोधी नीतियों का पुरजोर समर्थन करते हैं। ये नेता दलितों को तब तक बेवकूफ बनाते रहेंगे, जब तक वो बनेंगे।
तीसरा, दलित साहित्यकार एक उल्टा पहाड़ा पढ़ा रहे हैं कि जाति कभी खत्म नहीं हो सकती। इसलिए हमको भी वर्तमान जाति व्यवस्था को बनाए रखना है और गर्व से कहना है कि हम भंगी, चमार हैं।
अब सोचने वाली बात यह है कि जातियों में जब कोई सामाजिक बराबरी ही नहीं है, तब उसमें भंगी, चमार होने का काहे का गर्व होगा। ये दलित साहित्यकार और बुद्धिजीवी भी वर्तमान शासक वर्ग के एजेंडे पर ही काम कर रहे है और दलित समाज को गहरी साजिश का शिकार बना रहे हैं। जब तक जाति रहेगी, तब तक जातीय भेदभाव मौजूद रहेगा और जातीय उत्पीड़न भी होगा।
वर्तमान दलित आंदोलन के इन तरह-तरह के रूझानों और भटकाओं से व्यवस्था समर्थक बन जाने से, दलित आंदोलन भयंकर रूप से ठहराव का शिकार हो गया है। इसलिए जाति प्रथा की जड़े भारतीय समाज में इस कदर मजबूत हैं, कि आए दिन देश के विभिन्न हिस्सों में दलितों पर अत्याचार की घटनाएं सामने आती रहती हैं। दलितों की बहू-बेटियों के साथ सामूहिक बलात्कार किए जा रहे हैं। दलित युवकों के सवर्ण जाति की युवतियों से प्रेम विवाह कर लेने पर उन्हें फांसी के फंदे पर लटका दिया जा रहा है। उनके घर जला दिए जा रहे हैं। उन्हें अपने ही घर और गांव से पलायन करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। उनकी जमीनों पर कब्जे किए जा रहे हैं।
आज भारतीय समाज पूंजीवादी रूपांतर के दौर से गुजर रहा है। यह रूपांतर काफी पीड़ादायी और मंथर गति का है। इसी में कुछ चंद फीसद लोग पढ़-लिख गए हैं। कुछ सरकारी नौकरियों में भी पहुंच गए हैं और इनमें से एक हिस्सा अपने अधिकारों के लिए जागरूक भी हुआ है। वह प्रतिरोध करता है। इसके अलावा प्रमुख कारण यह कि तमाम कृषि भूमि पर दबंग जातियों का ही कब्ज़ा है और दलित समुदाय का बहुसंख्यक हिस्सा खेतिहर मजदूर है जो उन्हीं के खेतों पर आश्रित रहता है। यही जाति उत्पीड़न का भौतिक आधार है, इसी आधार को खिसकाने के लिए एक सशक्त क्रांतिकारी जाति विरोधी जनआंदोलन विकसित कर क्रांतिकारी भूमि सुधार करना होगा, ताकि जाति प्रथा की चूलों को हिलाया जा सके और उसके ताबूत में आखिरी कील ठोकी जा सके।
जेपी नरेला
Topics - caste system in India, जातीय उत्पीड़न, caste, ethnic discrimination, caste oppression,


